सिर्फ 20 फीसदी लोगों ने कहा कोरोना आपदा के दौरान उन्हें मनरेगा में मिला काम- गांव कनेक्शन सर्वे

कोविड-19 लॉकडाउन के चलते भारत ने कारोबार बंदी के साथ माइग्रेशन का जो दर्द झेला, उसने देश की आर्थिक व्यवस्था को हिलाकर रख दिया। गांव कनेक्शन रुरल इनसाइट ने 23 राज्यों के 179 जिलों में 25,371 व्यक्तियों का इंटरव्यू कर ये जानने की कोशिश की, कि लॉकडाउन का उनके जीवन पर क्या असर पड़ा। सीरीज के इस हिस्से में बात मनेरगा की।

Kushal MishraKushal Mishra   17 Aug 2020 6:03 AM GMT

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राजा करीब चार महीनों से बेरोजगार हैं। लॉकडाउन में गाँव लौटने के बाद उन्हें उम्मीद थी कि सरकार उन्हें कोई न कोई रोजगार देगी, मगर ऐसा नहीं हुआ।

"यही सोच कर वापस आया था कि गाँव में मनरेगा में ही काम मिल जाएगा तो वो करेंगे, कम से कम घर के खर्चे का तो निकले, मगर हमारी पंचायत में कहीं भी काम नहीं चल रहा, चार महीने बीत गए, और कितने दिनों तक खाली बैठेंगे," लॉकडाउन में मुंबई से झारखण्ड में अपने गाँव लौटे मजदूर राजा बाबू कहते हैं।

झारखण्ड के गिरिडीह जिले के प्रखंड बगोदर में बेको पश्चिम गांव के रहने वाले राजा अकेले नहीं थे, लॉकडाउन के दौरान उनकी ग्राम पंचायत में 400 से ज्यादा प्रवासी मजदूर वापस लौटे हैं। राजा के मुताबिक ये सभी चार महीने से बेरोजगार हैं। गाँव कनेक्शन ने अपने सर्वे में देश के अलग-अलग राज्यों में ऐसे हजारों लोगों से बातचीत की जो लॉकडाउन के दौरान दूसरे राज्यों और शहरों से अपने गाँव को लौट आये।

कोरोना वायरस से देश में लगे पूर्ण लॉकडाउन के ख़त्म होने के बाद गाँव कनेक्शन ने 20 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों के 179 जिलों में 25,371 से ज्यादा ग्रामीणों के बीच सर्वे किया। गाँव कनेक्शन के इस सबसे बड़े ग्रामीण सर्वे में जो आंकड़े सामने आए हैं वो गांवों में मनरेगा में काम मिलने को लेकर ग्रामीणों के दर्द की कहानी बयां करते हैं।

गाँव कनेक्शन सर्वे के अनुसार देश के 80% प्रतिशत ग्रामीणों ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें या उनके परिवार के किसी सदस्य को मनरेगा में काम नहीं मिला। जबकि सिर्फ 20 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें मनरेगा में काम मिला।


राजा और गाँव लौटे उनके जैसे प्रवासी मजदूरों को राज्य में मनरेगा में काम मिलने की तस्वीर और भी साफ़ होती है यदि हम झारखंड के ग्रामीण विकास विभाग के 'मिशन सक्षम' के आंकड़ों पर गौर करें।

'मिशन सक्षम' ने झारखण्ड में आए करीब सात लाख प्रवासियों में से 3,01,987 प्रवासी मजदूरों से बातचीत के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार की। इस रिपोर्ट के मुताबिक इन प्रवासी श्रमिकों में 75.04 प्रतिशत यानी 2.26 लाख से ज्यादा लोग मनरेगा में काम करने के लिए तैयार हैं। वहीं इनमें से 52.71 प्रतिशत यानी 1.59 लाख से ज्यादा लोगों के पास मनरेगा में काम करने के लिए जॉब कार्ड नहीं थे।

ग्रामीण विकास विभाग की सचिव आराधना पटनायक ने 10 जुलाई को इन प्रवासी मजदूरों के जॉब कार्ड जल्द बनवाने की बात कही। मगर मार्च में लॉकडाउन के बाद से खाली बैठे और रोज कमाकर अपना पेट पालने वाले इन मजदूरों को सरकार की ओर से मनरेगा में रोजगार दिए जाने की प्रक्रिया बेहद धीमी गति से चलती नजर आई।

मनरेगा यानी महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत देश के ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को साल में 100 दिन रोजगार देने का प्रावधान किया गया है। लॉकडाउन के बीच केंद्र सरकार ने 21 अप्रैल से मनरेगा में लोगों को रोजगार दिए जाने की छूट दी थी। इसके बावजूद कई इलाकों में लॉकडाउन के चार महीने बीतने के बाद भी मनरेगा का काम शुरू नहीं हो सका।

कोरोना संकट के समय में देश में लॉकडाउन के दौरान केंद्र सरकार ने 17 मई को अपने 20 लाख करोड़ रुपए के आर्थिक पैकेज की आखिरी किश्त में मनरेगा में 40,000 करोड़ रुपए के अतिरिक्त बजट का ऐलान किया था। इससे पहले बजट में सरकार ने मनरेगा के तहत 61,500 करोड़ रुपए के बजट की घोषणा की थी। ऐसे में मनरेगा के लिए कुल एक लाख करोड़ रुपए से ज्यादा बजट का प्रावधान किया गया था। इसके बावजूद जमीनी स्तर पर ग्रामीणों को लॉकडाउन के दौरान मनरेगा में काम नहीं मिल सका।

गाँव कनेक्शन सर्वे के देश के अलग-अलग राज्यों के आंकड़ों पर गौर करें तो लॉकडाउन के दौरान मनरेगा में काम मिलने को लेकर तस्वीर और साफ़ होती नजर आती है।


देश के पूर्वी राज्यों की बात करें तो बिहार, झारखण्ड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में क्रमश : 13, 09, 14 और 24 प्रतिशत ग्रामीणों को ही लॉकडाउन के दौरान मनरेगा में काम मिल सका। जबकि पश्चिमी राज्यों की बात करें तो महाराष्ट्र में सिर्फ आठ और गुजरात में सिर्फ दो प्रतिशत ग्रामीणों को मनरेगा में काम मिला।

वहीं उत्तर भारत के राज्यों में शामिल हिमाचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में यह आंकड़ा क्रमश : सात, चार, 25, सात, 14 और 19 प्रतिशत है यानी सिर्फ इतने प्रतिशत लोगों को ही लॉकडाउन के दौरान मनरेगा में काम मिला।

सिर्फ छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और राजस्थान ऐसे राज्य रहे जहाँ 50 प्रतिशत से ऊपर यानी आधे से ज्यादा ग्रामीणों ने कहा कि उनको या उनके परिवार के किसी सदस्य को लॉकडाउन के दौरान मनरेगा में काम मिला है।

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में लॉकडाउन के दौरान 35 लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूर अपने गांवों को लौटे। कोरोना संकट के समय में रोजगार को लेकर उत्तर प्रदेश सरकार ने मनरेगा को बढ़ावा भी दिया, इसके बावजूद जमीनी स्तर पर मनरेगा में रोजगार की मांग और काम मिलने को लेकर बड़ा अंतर दिखाई देता है।

उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर जिले के ब्लॉक कतरा के साहमपुर गाँव के आरेन्द्र सिंह भदौरिया 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "लॉकडाउन में सब लोग गाँव वापस आ गए कि गाँव में रोजगार मिलेगा मनरेगा द्वारा, सरकार रोजगार देगी, लेकिन रोजगार कहीं कुछ नहीं, दो चार दिन मिल जाता है वो भी आम जनता के लिए नहीं हो पाता है, कम लोगों को मिलता है, मिल भी जाता है तो पैसे नहीं आते हैं।"

आरेन्द्र कहते हैं, "इसलिए इन सब चीजों से लॉकडाउन में परेशानी आ रही है, रोजी-रोटी कमाने में, परिवार चलाने में, परिवार को पालना है तो बाहर जाना ही पड़ेगा, गाँव में रोजगार नहीं है, जो शिक्षित हैं वो भी बेरोजगार हैं, और जो श्रमिक हैं वो भी बेरोजगार हैं।"

वर्ष 2004 में मनरेगा योजना की सरकारी वेबसाइट की एमआईएस रिपोर्ट को ट्रैक करने के लिए बनाए गए कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों और अन्य नागरिक समाज के सदस्यों का एक समूह पीपुल्स एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी (पीएईजी) ने हाल में मनरेगा पर कुछ निष्कर्ष जारी किये हैं।

इसमें सामने आया कि देश में अप्रैल के बाद से सात जुलाई तक मनरेगा में रिकॉर्ड स्तर पर ग्रामीणों को रोजगार उपलब्ध कराये गए, फिर भी मनरेगा में काम की मांग कर रहे 1.7 करोड़ लोगों को काम नहीं दिया जा सका। इसमें उत्तर प्रदेश सबसे आगे रहा जहाँ 35 लाख से ज्यादा यानी करीब 30.64 प्रतिशत को मनरेगा में काम की मांग करने के बावजूद रोजगार नहीं मिल सका। उत्तर प्रदेश के बाद बिहार में यह आंकड़ा 10.48 लाख रहा यानी 24.24 % लोगों को मनरेगा में काम नहीं दिया जा सका।

बिहार के वैशाली जिले में राघोपुर नर्संदा ग्राम पंचायत के आसमां गाँव में रहने वाले अजय सहानी लम्बे समय से मनरेगा में मजदूरी करते आ रहे हैं मगर इस बार उन्हें भी मनरेगा में काम नहीं मिल सका।

अजय 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "हमने काम माँगा था, मगर यहाँ जिनको काम मिलना चाहिए, उनको नहीं मिलता, जिसको ज्यादा जरूरत नहीं है उनको मिल जाता है, इस बार हमें तो एक भी दिन का काम नहीं मिला, पूरे लॉकडाउन में गाँव में छह दिन का काम मनरेगा में लगा जिसमें सिर्फ पांच-छह मजदूरों को नहर का काम मिला, उसके बाद कोई काम नहीं।"

अजय बताते हैं, "लॉकडाउन में हमारी पंचायत में 100 से ज्यादा प्रवासी मजदूर लौटे थे तो बाकी तो खाली ही बैठे रहे, जिन पांच-छह लोगों ने छह दिन किया भी तो उसका पैसा भी अभी तक उन्हें नहीं मिला है, कई लोगों ने काम माँगा था।"

गाँव कनेक्शन सर्वे में सामने आया कि राजस्थान में 59 प्रतिशत लोगों को काम मिला यानी काम की मांग कर रहे आधे से ज्यादा लोगों को मनरेगा में काम मिला। इसी तरह छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में भी क्रमश : 70 और 65 प्रतिशत ग्रामीणों को लॉकडाउन के दौरान मनरेगा में काम मिल सका।

राजस्थान की आशा देवी मनरेगा में काम मिलने को लेकर काफी खुश हैं। उन्हें और लॉकडाउन में गाँव लौटे उनके पति को भी मनरेगा में काम मिला। अब वह मनरेगा में साल में 100 दिन काम मिलने की बजाए 200 दिन काम देने की मांग कर रही हैं।

राजस्थान के पाली जिले में रायपुर तहसील के कलालिया गाँव की रहने वाली आशा देवी 'गाँव कनेक्शन' से बताती हैं, "लॉकडाउन में हमारे पास पहले से ही जॉब कार्ड था, पति भी शहर से लौट आये थे तो उनको भी मनरेगा में काम मिला, हम दोनों ने 30-30 दिन पूरे कर लिए हैं, हम चाहते हैं कि सरकार हमें कम से कम साल में 200 दिन रोजगार दे।"

आशा देवी के मुताबिक उनकी पंचायत में अभी मनरेगा का तीन जगह तालाब और सड़क का काम चल रहा है। दो जगह पर 150-150 मजदूर काम कर रहे हैं तो एक जगह पर 40 लोग काम कर रहे हैं। ऐसे में उनके गाँव में लॉकडाउन के दौरान लौटे प्रवासी मजदूरों को भी मनरेगा में काम मिल पाया।

आशा कहती हैं, "अभी अच्छा चल रहा है, लॉकडाउन में पहले दो महीने मैंने तालाब में चौकड़ी वाला काम किया, फिर अभी सड़क का काम भी चल रहा है, तो काम मिल रहा है यहाँ, पैसे हफ्ता-आठ दिन में आ जाते हैं, तो अच्छा है बस सरकार 200 दिन काम का कर दे तो और अच्छा हो जाएगा।"

गाँव कनेक्शन सर्वे में यह भी सामने आया कि देश में लगे लॉकडाउन के कारण इलाकों में बनाए गए रेड, ऑरेंज और ग्रीन जोन के कारण भी ग्रामीणों को मनरेगा में काम मिलना प्रभावित हुआ। उम्मीद के मुताबिक रेड जोन वाले जिलों में मनरेगा में कम लोगों को ही काम मिला


सर्वे के मुताबिक लॉकडाउन के दौरान ग्रीन जोन वाले जिलों में ग्रामीणों को मनरेगा में काम मिलने का प्रतिशत 24 रहा, जबकि ऑरेंज जोन के जिलों में 19 प्रतिशत लोगों को काम मिला। उम्मीद के मुताबिक रेड जोन के जिलों में स्थिति ज्यादा प्रभावित रही, इन जिलों में सिर्फ 13 प्रतिशत लोगों को ही मनरेगा में काम मिल सका। ऐसे में कुल 20 प्रतिशत लोगों को लॉकडाउन के दौरान मनरेगा में काम मिल सका यानी काम की मांग करने वाले पांच परिवारों में से सिर्फ एक परिवार को।

कर्नाटक में रायचूर जिले के नगप्पा सगमकुंता सालों से गाँव में रहकर मनरेगा में मजदूरी करते आ रहे हैं। लॉकडाउन के दौरान उनको अब तक सिर्फ 15 दिनों का ही काम मिल सका है।

रायचूर जिले के कोटकुंदे पोस्ट के मामुरेट्टी गाँव में रहने वाले नगप्पा 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "गाँव में सिर्फ 25 दिन लॉकडाउन के दौरान मनरेगा का काम चला, उसमें 15 दिन हमको भी मिला, मगर जो प्रवासी लोग गाँव में आये तो जिनके पास जॉब कार्ड था, उन्हें काम मिला और जिनके पास नहीं था वो जॉब कार्ड बनवाने के लिए पंचायत के चक्कर लगाते रहे, उन्हें कोई काम नहीं मिला।"

क्या लॉकडाउन में रेड जोन होने का भी असर पड़ा, के सवाल पर नगप्पा कहते हैं, "हमारे इधर तो कोरोना का कोई नहीं मिला मगर हमारे गाँव से 25 किलोमीटर दूर कोरोना का मामला आया था, उस इलाके में महीना भर मनरेगा का कोई काम नहीं चला।"

नगप्पा सरकार से मनरेगा में लोगों को काम देने और मजदूरी बढ़ाने के साथ साल में कम से कम 200 दिन रोजगार देने की मांग करते हैं। नगप्पा खुशनसीब थे कि उनके पास पहले से जॉब कार्ड था और उन्हें काम मिल सका, मगर गाँव को लौटे कई लोगों को रोजगार की मांग करने के बावजूद लॉकडाउन के दौरान एक भी दिन काम नहीं मिल सका।

मनरेगा से जुड़े पीपुल्स एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी के सदस्य और अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी से जुड़े राजेंद्र नारायण मजदूरों के मुद्दों पर सालों से करते आये हैं। राजेंद्र बताते हैं, "हमने मनरेगा की सरकारी वेबसाइट में एमआईएस के आंकड़ों का अध्ययन किया है, उसमें सामने आया है कि मनरेगा में रोजगार देने और काम की मांग करने वालों में बड़ा अंतर है, देश में बड़ी संख्या में लोग हैं जिन्होंने लॉकडाउन के दौरान मनरेगा में काम माँगा, फिर भी उन्हें काम नहीं मिला।"

इसके पीछे छिपे कारणों को लेकर राजेंद्र कहते हैं, "पहला मुख्य कारण है कि कौन सी योजना में किस पंचायत में क्या काम होना चाहिए ताकि सभी लोगों को काम मिले, यह पहले से तय नहीं किया गया, इसके अलावा मनरेगा में श्रम बजट को लेकर भी समस्याएं हैं, ऐसे में जहाँ 100 लोगों की काम की मांग है वहां 70 लोगों को ही काम मिला, ये सब कारण हैं जिस वजह से लॉकडाउन में बड़ी संख्या में लोगों को काम नहीं मिल सका।"

ऐसे में भले ही देश में लॉकडाउन के दौरान मनरेगा में रोजगार को लेकर रिकॉर्ड आंकड़े सामने आये हैं, मगर जमीनी हकीकत यह भी है कि लॉकडाउन के दौरान अपना रोजगार खो चुके और काम बंद होने से मनरेगा में ग्रामीणों की काम की मांग कहीं ज्यादा थी। बड़ी संख्या में ग्रामीणों को गाँव में मनरेगा के तहत एक भी दिन काम नहीं मिल सका।

सर्वेक्षण की पद्धति

भारत के सबसे बड़े ग्रामीण मीडिया संस्थान गांव कनेक्शन ने लॉकडाउन का ग्रामीण जीवन पर प्रभाव के लिए कराए गए इस राष्ट्रीय सर्वे को दिल्ली स्थित देश की प्रमुख शोध संस्था सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के लोकनीति कार्यक्रम के परामर्श से पूरे भारत में कराया गया।

देश के 20 राज्यों, 3 केंद्रीय शासित राज्यों के 179 जिलों में 30 मई से लेकर 16 जुलाई 2020 के बीच 25,371 लोगों के बीच ये सर्वे किया गया।

ये पूरा सर्वे गांव कनेक्शन के सर्वेयर द्वारा गांव में जाकर फेस टू फेस एप्प के जरिए मोबाइल पर डाटा लिया गया। इस दौरान कोविड गाइडलाइंस (मास्क, उचित दूरी, हैंड सैनेटाइजर) आदि का पूरा ध्यान रखा।

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