लॉकडाउन में लोगों का तकनीकी से रिश्ता हुआ गहरा, स्मार्टफोन बने एक दूसरे के सुख-दुख में साथी
देश के लाखों लोगों के लिए इस समय सोशल मीडिया जीने का एक जरिया बनी है फिर बात चाहें बड़े शहरों की हो या गांवों की। हर जगह लोग स्मार्टफोन के जरिए एक दूसरे के सुख-दुख का हिस्सा बन रहे हैं। तकनीक के जरिए घर बैठे कहीं दफ्तरों की मीटिंग्स चल रही हैं तो कहीं लोग एक दूसरे के सुख-दुःख में शरीक हो रहे हैं।
Neetu Singh 30 April 2020 4:30 AM GMT
आस्ट्रेलिया के मेलबॉर्न शहर में बैठा एक बेटा लॉकडाउन में तकनीकी के माध्यम से अपने दिवगंत पिता के शांति पाठ में शामिल अपने करीबियों को देखकर भावुक हो गया।
अनुराग वाष्णेय (58 वर्ष) के पिता का अप्रैल के पहले सप्ताह में दिल्ली में अपनी बेटी के घर निधन हो गया था। लॉकडाउन की वजह से उनका कोई भी करीबी उनके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाया।
तकनीक का इस्तेमाल करके उनका शांति पाठ 26 अप्रैल को एक एप के जरिए अलग-अलग शहरों में रहने वाले उनके शुभचिंतकों को शामिल किया गया। जिसमें विदेश में रहने वाला उनका बेटा भी शामिल था।
अनुराग की तरह इस लॉकडाउन में कई लोगों ने अपनों को खोया है पर इस देशव्यापी बंदी की वजह से कोई एक जगह से दूसरी जगह शोकाकुल परिवार को सांत्वना देने के लिए नहीं पहुंच सका। ऐसे में इन शोकाकुल परिवारों के करीबियों ने तकनीक का सहारा लेकर दाह संस्कार से लेकर शांति पाठ तक एक दूसरे को इस दुःख की घड़ी में हिम्मत दी है।
देश के लाखों लोगों के लिए इस समय सोशल मीडिया जीने का एक माध्यम बनी है फिर बात चाहें बड़े शहरों की हो या गांवों की। हर जगह लोग स्मार्टफोन के जरिए एक दूसरे के सुख-दुख का हिस्सा बन रहे हैं। तकनीक के जरिए घर बैठे कहीं दफ्तरों की मीटिंग्स चल रही हैं तो कहीं लोग एक दूसरे के सुख-दुःख में शरीक हो रहे हैं। सोशल मीडिया पर कहीं कवियों का जमावड़ा तो कहीं सुरों का सरगम मनोरंजन करते नजर आ रहा है। कहीं गम्भीर विषयों पर बातचीत हो रही है तो कहीं सरकार के जिम्मेदार अफ़सर इस कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने की रणनीति बना रहे हैं।
"कुछ दिन पहले ही वो हम सबसे मिलने आस्ट्रेलिया आये थे। मैंने उन्हें यहाँ बहुत रोका पर लॉकडाउन के दौरान ही वो भारत ज़िद करके वापस लौट गये। हमें नहीं पता था कि वो हमें बाय-बाय बोलने आये हैं। एयरपोर्ट पर 14 दिन क्वारंटाइन के बाद जिस दिन घर पहुंचे खाना खाने के बाद उन्हें अटैक आ गया," अनुराग अपने करीबियों को पिता के बारे में बताते हुए भावुक हो गये।
मूलरूप से उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के रहने वाले अनुराग के पिता रमाशंकर वाष्णेय पेशे से इंजीनियर थे। उन्होंने कृषि के क्षेत्र में इरीगेशन में काफी अच्छा काम किया। उनकी लिखी कई किताबें आने वाले समय में कृषि जगह के लिए उपयोगी साबित होंगी।
हमेशा से स्मार्टफ़ोन और सोशल मीडिया को लेकर ये चेतावनी दी जाती रही है कि जितना संभव हो इससे खुद को और अपने बच्चों को दूर रखें। पर इस कोरोना माहमारी के दौर में ये तकनीक ही एक दूसरे के हाल खबर लेने के लिए बच्चों और बड़ों दोनों के लिए अहम जरिया बनी है।
अनुराग भारत से लगभग 8,000 किलोमीटर दूर बैठकर जब अपनी भावनाएं व्यक्त कर रहे थे तब यूपी के लखनऊ में रहने वाले उनके 85 वर्षीय मामा अविनाश चन्द्र सेठ और उनकी मामी कुसुम सेठ भावुक हो गये। इन्होंने पहली बार लॉकडाउन में तकनीक की कई नई चीजें सीखीं जिससे ये शोकसभा का हिस्सा बन सकें।
"मैं जीवन में पहली बार घर बैठे शांति पाठ में शामिल हुआ हूँ। जब उनके मरने की खबर लगी तब हम लॉक डाउन की वजह से नहीं जा सके। मुझे लग रहा था कि हम शांति सभा में भी शामिल नहीं हो पायेंगे। पर मुझे नहीं पता था कि अब इतनी नई-नई चीजें चल गयी हैं जिससे घर बैठे ही हम विदेश में रहने वाले अपने भांजे को भी देख लेंगे , " अविनाश चन्द्र सेठ बोले।
स्मार्टफोन सिर्फ शहरों में ही नहीं बल्कि गाँव में भी हर हाथ में अब नजर आता है। उत्तर प्रदेश के लखनऊ जिला मुख्यालय से लगभग 40 किलोमीटर दूर बक्शी का तालाब ब्लॉक के अटेसुवा गाँव में किरन सिंह (26 वर्ष) का ढाई साल का बेटा सूरत में नौकरी करने गये अपने पापा से वीडियो काल से उन्हें वापस अपने घर बुला रहा था।
"रोज फोन लेकर दिन में दस बार अपने पापा को फोन करके बुलाता है, कभी-कभी तो इसके पापा का मुंह उतर जाता है कि वो कितनी बार इससे झूठ बोलें। अगर फोन न होता तो पता नहीं ये कैसे रहता, " किरन ने मोबाइल फोन बेटे की इस लॉकडाउन में कमजोरी बताई। किरन के ढाई साल के बेटे की तरह ऐसे हजारों बच्चे होंगे जो शहर में कमाने गये अपने पापा से वीडियो कॉल पर बात करके उनसे घर आने की मनुहार लगाते होंगे। पर शहर में फंसे मजबूर पिता बच्चों को हर बार घर आने की झूठी तसल्ली दे रहे होंगे।
यह आधुनिक तकनीक असम में रह रहे अभिषेक सिंह के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है। ये पेशे से सिविल इंजीनियर हैं, ये कहते हैं, "इस समय अगर स्मार्टफोन न होता तो घर-परिवार से दूर इस बंद कमरे की दूरी बहुत खलती। लेकिन अभी तो हर दो तीन घंटे में अपने घर पर फोन करके पत्नी और बच्चों से बात कर लेता हूँ। वीडियो में इन सबको देखकर सुकून मिल जाता है, अबतक तो बंद कमरे में अकेले रहकर इंसान पागल हो जाता।"
अभिषेक मूल रूप से कानपुर के रहने वाले हैं, ये अपनी पांच साल की बेटी और दो साल के बेटे से हर रोज वीडियो कॉल करके दिल को तसल्ली देते हैं। अभिषेक की तरह देश के लाखों युवा इस समय अलग-अलग राज्यों में फंसे हुए हैं। इस समय फोन ही इनके अपनों के करीब ले जाने का एक जरिया बना है।
आज से 15-16 साल पहले न तो तेज ब्रॉडबैंड था और न इतने सस्ते स्मार्टफोन थे जो हर कोई खरीद पाता। तब इतने टूल्स और एप्स भी नहीं थे। उस वक्त अगर ये माहमारी आती तो शायद हमारी मुश्किलें आसमान छू रही होतीं।
दिल्ली में रहने वाले चाटर्ड अकाउंटेंट शरद वाष्णेय ने इस लॉकडाउन में ज़ूम एप का 1200-1300 रुपए का एक प्लान ले लिया है। जिसमें ये एक साथ 100 लोगों को जोड़ सकते हैं और कई घंटे बात कर सकते हैं। अगर ये प्लान न लेते तो फ्री में केवल 40 मिनट ही मीटिंग कर सकते हैं।
"इस समय हर कोई जहां का तहां फंसा हुआ है। मानसिक रूप से लोग घरों में परेशान हैं। मैंने सोचा क्यों न ज़ूम एप के जरिए सप्ताह में एक बार कुछ ऐसा किया जाए जिससे 100 लोग एक साथ अच्छा महसूस करें, एक दूसरे के सुख-दुःख का हिस्सा बने। कुछ दिनों फैले ज़ूम एप के जरिये एक मनोचिकित्सक का सेशन कराकर कई लोगों को जोड़ा था। हमारे एक जानने वालों की 25 वीं शादी की सालगिरह थी उसे भी हमने ऐसे ही सिलिब्रेट किया। हमारे तीन शुभचिंतकों का देहांत हो गया था, सबका शांतिपाठ एक साथ आयोजित कर दिया," शरद तकनीक का सहारा लेते हुए सबको एक साथ जोड़ने के लिए आगे आये हैं।
शरद जिस जूम ऐप का जिक्र कर रहे थे, इस एप ने कोरोना वायरस महामारी की वजह से ट्रैफिक में कई गुना बढ़ोत्तरी की है। एक खबर के मुताबिक़ जिस ज़ूम एप के दिसंबर में करीब 10 मिलियन यानी 1 करोड़ यूजर थे, अब उनकी संख्या 300 मिलियन यानी 30 करोड़ से भी अधिक हो गई है।
एक महीने से ज्यादा घरों में बंद एक जगह से दूसरे जगह के करीबियों को मिलाने में तकनीक ने रिश्तों को एक नई मजबूती दी है। इस मुश्किल घड़ी में लोग एक दूसरे के मददगार साबित हो रहे हैं। कितने मजदूरों ने अपने वीडियो रिकॉर्ड किये जो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुए और उन्हें मदद मिली।
झारखंड के जमशेदपुर में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता तरुण कुमार (30 वर्ष) बताते हैं, "इस माहमारी से लड़ने के लिए कई गैर सरकारी संगठन घर बैठे मीटिंग करके यह प्लान करते हैं कैसे लोगों की ज्यादा से ज्यादा मदद की जाए। इससे हजारों लोगों की मदद आसानी से हो सकी। कई युवा सलाह भी लेते हैं कि घर बैठे बच्चों को फोन के माध्यम से ऑनलाइन कैसे पढ़ाया जाए जिससे उनका उत्साह बना रहे?"
"अब तो हमारे यहाँ गाँव के बच्चे भी ऑनलाइन खूब पढ़ाई कर रहे हैं। बच्चों ने, बड़ों ने, बुजुर्गों ने इस लॉकडाउन में सोशल मीडिया पर कई ऐसी नई चीजें सीखी हैं जो पहले कभी उन्हें जरूरी नहीं लगती थीं। मैं खुद भी पहले वीडियो कॉल पर बात करने का शौक़ीन नहीं था लेकिन अब तो जब ख़ास लोग फोन करते हैं तो मन करता है वीडियो कॉल से उन्हें देख लूँ," तरुण ने सोशल मीडिया के अनगिनत फायदे गिनाए।
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