सिंगरौली पार्ट 2- राख खाते हैं, राख पीते हैं, राख में जीते हैं

सोनभद्र और सिंगरौली क्षेत्र को भारत की ऊर्जा राजधानी भी कहा जाता है। ये दुनिया के सबसे प्रदूषित क्षेत्रों में शुमार है। वजह है, यहां खदानों से कोयला निकालने से लेकर बिजली उत्पादन करने तक में निकलने वाली कोयले की राख। कमोबेश यही हाल झारखंड में धनबाद, बोकारो समेत दूसरे राज्यों में भी है।

Mithilesh DharMithilesh Dhar   25 Oct 2019 7:30 AM GMT

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सिंगरौली/सोनभद्र/लखनऊ। "मेरे बेटे की उम्र मात्र तीन साल है, उसे अस्थमा है। डॉक्टर कहते हैं, आप जिस जगह रह रहे हैं वहां के ज्यादातर बच्चों को ऐसी बीमारियां हैं। हम शाम होते ही घरों के दरवाजे बंद कर लेते हैं। छतों पर कपड़े नहीं सुखाते क्योंकि वे काले पड़ जाते हैं," सोनभद्र में शक्तिनगर के चिलकाटाड़ गाँव के रहने वाले हीरा लाल (35 वर्ष) , इस जगह पर रहने के नुकसान बताते हैं।

ये वही इलाका जिसे देश की ऊर्जा की राजधानी, ऊर्जांचल भी कहा जाता है।

यह गाँव जमीन से कोयला निकालने वाली कंपनी नॉर्दर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) की स्थानीय साइट से कुछ ही दूरी पर स्थित है। गाँव में कई परिवार ऐसे भी हैं जिनकी कई पीढ़ियां दिव्यांग हैं। यह क्षेत्र वैसे आता तो उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में हैं, लेकिन इसे सिंगरौली परिक्षेत्र कहा जाता है। सिंगरौली जोन के 150 वर्ग किलोमीटर के इलाके में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के 269 गाँव आते हैं।

सोनभद्र के जगत नारायण विश्वकर्मा अपनी जमीन और लोगों को बीमारियों से बचाने के लिए प्रदूषण के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे, लेकिन वे अब खुद इसकी चपेट में आ गये हैं।

वे बताते हैं, "मेरी हड्डियां गल रही हैं। अब मैं बैसाखी के सहारे ही चल पाता हूं। डॉक्टर को दिखाया तो पता चला कि मेरे पानी में फ्लोराइड की मात्रा बहुत ज्यादा है जिस कारण मुझे फ्लोरोसिस नामक रोग हो गया है। हमारे जैसे यहां हजारों लोग मिलेंगे, जो जवानी में बूढ़े हो जा रहे हैं।"

जगत नारायण सोनभद्र जिले के म्योरपुर विकास खंड के गाँव कुशमाहा में रहते हैं। कुशमाहा और चिलकाटाड़ जैसे यहां 273 गाँव अत्यधिक प्रदूषित हैं, जिसमें से 13 गाँव तो कोयला खदानों के आसपास ही हैं।

जगत नारायण विश्वकर्मा आगे बताते हैं, "हमारे यहां पीने का पानी का एक मात्र स्रोत रिहंद बांध है, जिसमें बिजली बनाने वाली कंपनियों से निकलने वाली राख (फ्लाई ऐश) को डाल दिया जा रहा है। कई रिपोर्ट में बताया गया है कि राख जानलेवा है लेकिन कंपनियां ध्यान ही नहीं देतीं।"

लाठियों सहारे चलते जगत नारायण।

हीरा लाल हों या जगत नारायण, देश में जहां भी बिजली बनाने वाली कंपनियां हैं वहां के लोगों की सेहत का हाल कुछ ऐसा ही है। बिजली बनाने में कोयले का इस्तेमाल होता है जिससे भारी मात्रा में राख निकलती है। यही राख इनके लिए जहर बनी हुई है।

इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एडवांस इंजीनियरिंग एंड रिसर्च डेवलपमेंट की अप्रैल 2018 में आई रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2016-2017 में भारत में कुल 169.25 मिलियन टन फ्लाई ऐश का उत्पादन हुआ।

वहीं 107.10 मिलियन टन का ही इस्तेमाल हो पाया। मतलब लगभग 63 मिलियन टन (37 फीसदी) राख यूं ही पड़ी रही जो हमारी मिट्टी में घुल गई, हवा में मिल गई, नदी में बह गई।

सिंगरौली पार्ट 1- बीस लाख लोगों की प्यास बुझाने वाली नदी में घुली जहरीली राख, कैंसर जैसी घातक बीमारियों का खतरा

ये इलाका एक बार फिर तब चर्चा में आया जब 6 अक्टूबर 2019 को ही सोनभद्र-सिंगरौली स्थित एनटीपीसी विंध्याचल का ऐश डैम टूट गया। मध्य प्रदेश प्रदूषण बोर्ड ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि 35 लाख मीट्रिक टन (7 करोड़ कुंतल से ज्यादा) राख रिहंद बांध में जा चुकी है जो सोनभद्र-सिंगरौली के लगभग 20 लाख लोगों के पीने के पानी का प्रमुख स्रोत है। जबकि केंद्र सरकार का आदेश है कि पावर प्लांट से निकलने वाली राख का 100 फीसदी इस्तेमाल होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हो रहा।

भारत की कुल बिजली उत्पादन का करीब 63% कोयला बिजली घरों से है। देश भर में पर्यावरण संरक्षण और वनों एवं प्राकृतिक संपदाओं के संरक्षण से संबंधित मामलों के निपटारे के लिए बने अदालत का दर्जा प्राप्त अधिकरण राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) के अधिनियम के अनुसार फ्लाई ऐश में भारी धातुएं जैसे-आर्सेनिक, सिलिका, एल्युमिनियम, पारा और आयरन होती हैं, जो दमा, फेफड़े में तकलीफ, टीबी और यहां तक कि कैंसर तक का कारण बनती हैं।

सोनभद्र पर सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की रिपोर्ट


सोनभद्र-सिंगरौली क्षेत्र में कोयले पर आधारित 10 पावर प्लांट हैं, जो 21,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन करते हैं। जो देश के कई राज्यों को सप्लाई होती है। इसी के चलते इस इलाके को ऊर्जांचल भी कहा जाता है।

सुप्रीम कोर्ट में वकील, पर्यावरणविद् और एनजीटी में याचिकाकर्ता अश्वनी कुमार दूबे कहते हैं, "21,000 मेगावॉट बिजली उत्पादित करने के लिए सालभर में यहां 10.3 करोड़ टन कोयले की जरूरत होती है। इतनी बड़ी मात्रा में कोयले की खपत से हर साल तकरीबन 3.5 करोड़ टन फ्लाई ऐश (राख) पैदा होती है, जिसका सही तरीके निस्तारण हो नहीं पा रहा।"

वे आगे बताते हैं, "एनटीपीसी के पास राख के निस्तारण के लिए कहीं जगह नहीं बची थी और उनके केस में दिए गए निर्णय के आधार पर राख को एनसीएल (नॉर्दर्न कोल फील्ड्स) की खाली पड़ी माइंस में ओबी (ओवर बर्डन) के साथ डालने की प्रक्रिया शुरू करनी थी, जो ये करना नहीं चाहते। ऐसे में जब राख की मात्रा बहुत ज्यादा हो गई तो डैम को टूटने दिया गया।" अश्वनी दुबे इलाके की लोगों की समस्या और पिछले दिनों टूटे ऐश डैम की वजह बताते हैं।

"देश के कोयला बिजलीघरों को लोगों के जीने-मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। वर्ष 2015 में सरकार बिजलीघरों से होने वाले प्रदूषण को नये मानक तय किये थे। बिजलीघरों को वर्ष 2017 तक ही इसे लागू कर लेना था लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अब तो इन्हें 2022 तक का समय मिल गया है।" वो अपनी सरकारी उदासीनता पर सवाल उठाते हैं।


हालांकि एनसीलए खड़िया परियोजना (कोयला खदान) के प्रोजेक्ट मैनेजर सैयद घोरी इस बात से इनकार करते हैं कि उनकी कंपनी कोर्ट के आदेशों का पालन नहीं करती। वे कहते हैं, "अगर मैं एनसीएल के कोल ब्लॉक की बात करूं तो हमारे पास खुली खदाने हैं। ऐसे में राख तो निकलेगी ही। राख ज्यादा निकलती है ये बात सही है लेकिन हम उसे बाहर नहीं जाने देते। हम पानी का छिड़काव करने के बाद ही खुदाई करते हैं।"

लेकिन गाड़ियों तो खुले में राख उड़ाती जाती हैं, इस सवाल के जवाब में सैयद घोरी कहते हैं, " हम इस पर भी काम कर रहे हैं। जल्द ही सड़कों पर स्प्रिंकल लगाये जाएंगे ताकि सड़कों की राख को उड़ने से रोका जाये। इसके अलावा राख के उपयोग के लिए एनटीपीसी के साथ हमारा समझौता हुआ है, हम इस ओर कारगर कदम उठाएंगे।"

पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने वर्ष 2009 में सिंगरौली-सोनभद्र को चिंताजनक रूप से प्रदूषित क्षेत्र घोषित किया था और दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में इसकी गिनती होती है।

अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान (एआईआईए) ने वर्ष 2018 में सोनभद्र-सिंगरौली के कुछ गांवों में कई तरह के नमूने लिए थे। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने बताया था कि प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के नाखून और बालों में भी मरकरी का जहर है। सर्वे के दायरे में लिए गए करीब 300 किलोमीटर के इलाके में लगे पौधों और मिट्टी में भी मरकरी प्रदूषण की मौजूदगी पाई गई।

सिंगरौली- सोनभद्र पर सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की रिपोर्ट

सिंगरौली-सोनभद्र की सड़कों पर आपको हमेशा धुंध जैसी दिखाई देगी। आंखों में जलन और शाम जल्दी ढल जाती है। पेड़ों के पत्ते काले दिखते हैं। उन पर जमा राख आपको आसानी से दिख जाएगी। स्थानीय लोगों के मुताबिक इस राख से उनकी जिंदगी तो काली हुई है, बागों में फल आना और फसल उत्पादन तक गिर गया है।

विश्व भर के प्रदूषित क्षेत्रों का डाटा तैयार करने वाली अमेरिका की संस्था ब्लैक स्मिथ ने सोनभद्र-सिंगरौली पट्टी को दुनिया के 10 सर्वाधिक प्रदूषित क्षेत्रों में शुमार किया, वहीं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण एजेंसी ने भी इसे देश के 22 अत्यधिक प्रदूषित क्षेत्रों की सूची में रखा है। धरती के छह सर्वाधिक प्रदूषण चिंताओं में शुमार पारा यहां की हवाओं में घुल गया है और घुल रहा है। इसके लिए भी उड़न राख को जिम्मेदार बताया जाता है।

सिंगरौली-सोनभद्र के बाहर भी जिंदगी में जहर

मध्य प्रदेश के खंडवा में एक और बिजली बनाने वाले बड़ी कंपनी है। संत सिंगाजी थर्मल पावर प्लांट। मध्य प्रदेश पावर जेनरेशन कंपनी लिमिटेड की स्वामित्व वाली इस परियोजना को नर्मदा नदी के किनारे बनाया गया है। इस परियोजना से खंडवा के लोगों का जीवन रोशन तो हुआ लेकिन अब उन्हें इसके बदले बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है।

खंडवा ग्राम पंचायत के रहने वाले विवेक मिश्रा किसान हैं और वे लगभग 10 एकड़ में धान और सोयाबीन की खेती करते हैं। वे बताते हैं, " बिजली कंपनी से बहुत राख निकलती है जो मेरे खेतों में ओंस की बूंदों के साथ जमा हो जाती है। मेरे कई खेत ऐसे हैं जिसमें अब कुछ भी पैदा नहीं होता। कृषि विज्ञान केंद्रों के अधिकारियों ने बताया कि इस खेत में खेती करने से कोई फायदा नहीं है। जो पैदा भी होगा तो वो बहुत ही जहरीला होगा।"

तस्वीर सोनभद्र के पॉवर संयंत्र की है

खंडवा प्लांट की कुल चार यूनिट से रोजाना 1100 मेगावॉट बिजली का उत्पादन हो रहा है। एक यूनिट बिजली उत्पादन में लगभग 27 हजार टन कोयला लगता है। इससे पांच से छह हजार टन राख निकलती है जो हवा में प्रदूषित करने वाले कारकों की मात्रा बढ़ा रही है।

"फ्लाई ऐश में खतरनाक तत्व होते हैं। इसके सीधे संपर्क में आने वाला व्यक्ति गंभीर बीमारियों की चपेट में आ सकता है। खांसी और फेफड़ों में इंफेक्शन हो सकता है। राख के कारण चर्मरोग में मामले भी बढ़ रहे हैं।" खंडवा जिला अस्पताल के सिविल सर्जन डॉ. ओपी जुगतावत बताते हैं।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की 2017 में जारी रिपोर्ट की मानें तो मध्य प्रदेश में कोयले से बिजली बनाने वाली कंपनियों से निकली राख का महज 29 फीसदी हिस्से का ही इस्तेमाल किया जाता है। आस-पास के राज्यों की भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। छत्तीसगढ़ में बिजली घरों की राख का 31 फीसदी और उत्तर प्रदेश में 43 फीसदी ही इस्तेमाल किया जाता है।

विकास की कीमत चुकाती बेतवा नदी

बुंदेलखंड का नाम सुनते ही हमारे जेहन में भीषण सूखे की तस्वीर उभरती है। उसी बुंदेलखंड में जो थोड़ा बहुत पानी उपलब्ध है भी तो वो बेतवा नदी की वजह से है। बेतवा को बुंदेलखंड की लाइफलाइन कही जाती है और इसे बुंदेलखंड की गंगा भी कहा जाता है।

झांसी जिला मुख्यालय से लगभग 25 किमी दूर बना परीछा थर्मल पॉवर प्लांट। यहां के लोग कहते हैं कि आपको 10 किमी दूर से सड़कों पर राख दिखने लगेगी। छतों पर हर रोज इतनी राख जमा हो जाती है जिस पर आप बड़ी आसानी से अपना नाम लिख सकते हैं।

बुंदेलखंड निर्माण मोर्चा के अध्यक्ष भानु सहाय इसे लेकर लंबे समय से सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ रहे हैं। वे गांव कनेक्शन को बताते हैं, " पॉवर प्लांट और बेतवा नदी के पास के दो गांव रिछौरा और परीछा की हालत बहुत खराब है। खेत बंजर हो गये हैं। बिजली संयंत्र से निकली राख को कंपनी वाले सीधे नदी में बहा रहे हैं जिस कारण आसपास का पानी इतना दूषित हो गया है उससे बीमारियां फैल रही हैं।"

परीछा थर्मल पावर प्लांट का एक दृश्य।

"इन गांवों में पिछले साल कई मवेशियों की मौत हो गई थी। डॉक्टरों ने बताया था कि दूषित पानी की वजह से इनकी मौत हुई। राख की वजह से बेतवा नदी धीरे-धीरे दम तोड़ रही है। बिजली बनाने वाली कंपनी के पास एक ही ऐश डैम है जो बहुत वर्षों से भरी पड़ी है। केंद्र सरकार का आदेश था कि इस राख का 100 फीसदी इस्तेमाल करे लेकिन वे ऐसा नहीं कर रहे हैं।" भानु कहते हैं।

प्रदेश सरकार की रिपोर्ट की मानें तो वर्ष 1984 से शुरू हुए इस पावर प्लांट में रोजाना 16,000 मीट्रिक टन कोयले की खपत होती है। जिससे लगभग 14,000 मीट्रिक टन गीली राख निकलती है।

भानु आगे बताते हैं, "यूपी सरकार ने नया ऐश डैम बनाने के लिए पैसा देने से मना कर दिया है। ऐसे में अधिकारियों से पूछना चाहिए ना कि जब उनके पास एक ही ऐश डैम है जो पहले से ही भर चुका है तो रोज निकलने वाली राख कहां जा रही है? जाहिर सी बात है उसे नदी में बहाया जा रहा होगा।"

परीछा गांव के रामजी के पास पहले कई मवेशी थे। उनमें से ज्यदातर मर गये। उनके खेत भी बंजर पड़ गये हैं। वे कहते हैं, " मेरे पास पहले गाय, भैंस और बकरियां भी थी। लेकिन एक-एक करके सब मरने लगे। बाद में पता चला कि वे बेतवा का पानी पी रहे थे। मेरे पास जो खेत हैं वे भी बंजर हो रहे हैं। उत्पादन आधे से भी कम हो गया है।"

बेतवा नदी के किनारे जमा राख निकालते मजदूर

"मेरे गांव के कई लोगों को आंख में परेशानी है। उन्हें कम दिखाई देता है। ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। कई लोगों को तो आंख की रोशनी बचाने के लिए ऑपरेशन भी कराना पड़ा। अब हम तो बेतवा का पानी छूते भी नहीं।"

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वर्ष 2018 के नवंबर महीने में बेतवा नदी को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उन्होंने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि पानी में कुल डिजॉल्वड सॉलिड (टीडीएस) की मात्रा 700 से 900 पॉइंट प्रति लीटर और टोटल हार्डनेस (टीएच) 150 मिलीग्राम प्रति लीटर से ऊपर है, जो बेहद खतरनाक है। इससे पहले इसी पर्यावरण मंत्रालय ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि बेतवा देश की 38 सबसे प्रदूषित नदियों में से एक है। मंत्रालय ने यह भी माना था कि बेतवा का पानी इतना दूषित हो चुका इसके लिए सीवेज ट्रीटमेंट लगना चाहिए।

विनाश के मुहाने पर प्रलयकारी नदी दामोदर

दामोदर नदी, जिसके बारे में कहा जाता है कि जब वो रौद्र रूप दिखाती है तो पश्चिम बंगाल में तबाही मच जाती है। लेकिन अब ये नदी खुद विनाश के मुहाने पर खड़ी हुई है। झारखंड के हजारीबाग, बोकारो और धनबाद जैसे इंडस्ट्रीयल क्षेत्रों से प्रतिदिन लाखों मीट्रिक टन औद्योगिक कचरे को इस नदी में बहाया जा रहा है।

झारखंड सरकार की मानें तो दामोदर नदी के किनारे कोयले से बिजली बनाने वाली 10 कंपनियां हैं और इनमें सालाना 65.7 लाख मीट्रिक टन कोयले की खपत होती है। इससे 8,768 मेगवॉट बिजली पैदा होती है।

जिस नदी के पानी के बारे में मान्यता थी कि इसमें नहाने से कई रोग ठीक हो जाते हैं, आज उस नदी की हालत ऐसी है कि लोग उसे छूना भी नहीं चाहते। वर्ष 2011 में जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने दामोदर नदी को लेकर एक सर्वे किया था जिसमें उन्होंने इस नदी के पानी को बेहद खतरनाक बताया था।

बोकारो के रहने वाले डॉ एसके रवि ने इस नदी पद शोध किया है। वर्ष 2017 में उनकी रिपोर्ट प्रकाशित हुई। अपने शोध के बारे में वे बताते हैं, " दामोदर बोकारो की नहीं कई अन्य जिलों की लाइफलाइन है। लेकिन इसके आसपास लगे बिजली और इस्पात संयंत्रों ने इसे बहुत दूषित कर दिया है। कोयले को वॉश करके उसके जहरीले पानी को इसी में बहा दिया जा रहा। बिजली बनाने वाली कंपनियां फ्लाई ऐश इसी में बहा रही हैं। इस पानी के उपयोग से गंभीर बीमारियां हो सकता हैं।"

बोकारो के आसपास के जिलों में पानी के स्त्राेत दूषित हो गये हैं। फोटाे- नीतीश प्रियदर्शी

डॉ एसके रवि खुद चर्म रोग विशेषज्ञ हैं। वे कहते हैं, "दामोदर नदी का पानी दूषित हो चुका है उसमें नहाना तो दूर कपड़े तक नहीं धोए जा सकते हैं। इसके पानी से त्वचा संबंधी गंभीर बामारियां हो सकती हैं।"

नदी के पानी पर लगातार शोध करते रहे डा. रवि के मुताबिक इस नदी की पानी में आर्सेनिक, फ्लोराइड, क्रोमियम, कोबाल्ट, आयरन जैसे केमिकल पाए जाते हैं। ऐसे में इसके पानी के उपयोग से शरीर में कई तरह की बीमारियां होती हैं। वो कहते हैं, "नदी में कहीं न कहीं मछलियों के मरने की तो अक्सर ख़बरें आती रहती हैं। आर्सेनिक नामक केमिकल से तो कैंसर भी हो सकता है।"

झारखंड के हजारीबाग, बोकारो और धनबाद में इस नदी के किनारे कोल वाशरी हैं जहां प्रतिदिन हजारों टन कोयले को धोया जाता है और उसका पानी नदी में बहा दिया जाता है। कोल वॉशरी से हर साल लगभग 30 लाख टन मलबा निकलता है। झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जेएसपीसीबी) के अनुसार दामोदर में गंदगी गिराने वाले 94 उद्योग हैं जिनमें ज्यादातर अधिकतर ताप-बिजली (कोयले से बिजली वाली कंपनी) घर और कोल वॉशरी हैं।

जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार दामोदर नदी के पानी में लोहा, मैगनीज, तांबा, लेड, निकल वगैरह मौजूद हैं जो स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक हैं।

खत्म होने की कगार पर दामोदर नदी। फोटो- नीतीश प्रियदर्शी

बोकारो और धनबाद में तो प्रदूषण के हालात इतने बदतर हो गये हैं कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने जुलाई 2019 में गंभीर रूप से प्रदूषित एवं बेहद प्रदूषित इलाकों में प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों को बंद करने को कह दिया। एनजीटी अन्य राज्य सरकारों को भी कहा है कि वे लोगों के स्वास्थ्य की कीमत पर आर्थिक विकास नहीं हो सकता। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के निर्देशक के आलोक ने झारखंड राज्य प्रदूषण बोर्ड से इसकी रिपोर्ट भी मांगी है।

झारखंड सरकार में खाद्य आपूर्ति मंत्री सरयू राय वर्ष 2004 से दामोदर बचाओ आंदोलन चला रहे हैं। अपने इस आंदोलन में लोगों को जागरूक करते हैं। वे बताते हैं, "दामोदर नदी की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। प्रदूषण का स्तर बहुत कम हुआ है। बिजली कंपनियों से नदी में जाने वाला कचरी 95 फीसदी तक कम हुआ है। अभी हाल ही में नूरी नगर में फ्लाई ऐश टूटने की खबर आई जो कि चिंताजनक है। यह कंपनी की लापरवाही है।"

"सरकार फ्लाई ऐश के उचित इस्तेमाल पर भी काम कर रही है। इसके लिए कंपनियां भी सहयोग कर रही हैं। कभी दुनिया की सबसे प्रदूषित नदी रही दामोदर से प्रदूषण कम तो हो रहा है लेकिन अभी भी बहुत काम है। कुछ कपनियां चोरी-छिपे फ्लाई ऐश नदी में बहा देती हैं, उन्हें भी समझाया जा रहा है। पिछले साल दिसंबर (2017) में सीपीसीबी ने तेनुघाट संयंत्र को बंद करने का निर्देश दिया था क्योंकि यह दामोदर नदी को गंभीर नुकसान पहुंचा रहा था।" सरयू राय आगे बताते हैं।

झारखंड में लंबे समय तक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के लिए काम कर चुकीं श्रेष्ठा बनर्जी कहती हैं, " झारखंड में जहां-जहां कोयला खदानें हैं और जहां बिजली बनती हैं, वहां पीने के पानी का स्तर बहुत खराब है। आप अगर दामोदर नदी की बात करेंगे तो वो बहुत ज्यादा दूषित हो चुकी है। सबसे खतरनाक तो यह है कि उससे नदी से होकर छोटी-छोटी नालियां गांवों में पहुंची है। वहां इससे और दिक्कत हो रही है। खदानों से निकली राख ने दामोदर के पानी को बहुत जहरीला बना दिया है।"

झारखंड में नदियों में प्रदूषण का स्तर

रांची विश्वविद्यालय में भू-वैज्ञानिक और पर्यावरणविद डॉ नीतिश प्रियदर्शी बताते हैं, "ऐसा नहीं है कि बस दामोदर नदी में फ्लाई ऐश बहाई जाती है। नलकारी नदी जो बेहद प्रदूषित है वो दामोदर नदी की सहायक नदी है। उसके किनारे भी एक डैम बना हुआ जिसमें जहरीली राख सीधे बहा दी जाती है। पतरातू डैम भी इसी पर बना हुआ है। कई नालों से भी दामोदर को दूषित किया जा रहा है।"

" फ्लाई ऐश रोकने के लिए किसी के पास कोई साधन नहीं है और न कोई एनजीटी या कोर्ट के आदेश का पालन करता है। जहरीली राख की वजह से दामोदर के पानी में पारा भी भारी मात्रा में पाया जाता है जो जीवों के स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। हैवी मेटल पोल्यूशन ज्यादा है। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि कोल माइन वेस्ट को नदियों के किनारे दबा दिया जाता है जिस कारण जमीन और नदी प्रदूषण मुक्त हो ही नहीं पाती। झारखंड में तो माइंस डस्ट का पहाड़ खड़ा है जिसका खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है।" नीतिश कहते हैं।

वे आगे बताते हैं, " हजारीबाग के आसपास के गांव के लोगों की आयु घट रही है। वे बीमार पड़ रहे हैं। उनको टीबी हो रहा है। हमने अमेरिकन एनजीओ ग्रीन ग्रांट फंड और अर्थ डे के साथ सर्वे किया तब ये सब बातें सामने आई थीं।"

   

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