माहवारी : आखिर उन दिनों की बातें बच्चियों को कौन बताएगा ?

Neetu SinghNeetu Singh   18 Jun 2018 12:17 PM GMT

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जैसे ही पैडमैन फिल्म रिलीज होने की चर्चा शुरू हुई वैसे ही सोशल मीडिया पर सेनेटरी पैड लेकर हजारों तस्वीरें वायरल होने लगीं। माहवारी के इस जश्न और शोर शराबे से कोसों दूर उत्तर प्रदेश गांव की एक गृहणी सुमन कटियार (44 वर्ष) ने कहा, "हमारे गांव में अभी भी रिश्तों का लिहाज है, ये सब बातें (माहवारी) अपनी बेटियों से कभी नहीं की। हमारी अम्मा ने भी हमें नहीं बताया था। वो उन दिनों में कैसे रहती हैं ये हमें नहीं पता है।"

सुमन देश की पहली महिला नहीं हैं जिन्होंने अपनी बेटी को माहवारी शुरू होने से पहले ये बताया नहीं कि उसे अपनी देख-रेख कैसे करनी है। देश की एक तिहाई आबादी जो गांव में रहती है सुमन की तरह लाखों माएं अपनी बेटियों को माहवारी आने से पहले नहीं बताती हैं, क्योंकि आज भी हमारे गांव में ये संकोच और झिझक का मुद्दा माना जाता है। जिसका नतीजा ये है कि आज हमारे देश की 70 फीसदी लड़कियों को पहली माहवारी के बारे में कोई जानकारी ही नहीं है, जिससे उनकी शिक्षा और सेहत दोनों पर असर पड़ रहा है।

चित्रकूट जिले की ये बेटी माहवारी के दौरान अपनी परेशानी को बताते हुए रोने लगी।

पैडमैन फिल्म की चाहें जितनी चर्चा हो जाए, सेनेटरी पैड हाथ में लेकर तस्वीरें चाहें जितनी वायरल हो जाएं लेकिन माहवारी को लेकर ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं और किशोरियों की मुश्किलें इतने जल्दी आसान होने वाली नहीं हैं।

एक आंकड़े के मुताबिक़ देशभर में करीब 35 करोड़ महिलाएं उस उम्र में हैं, जब उन्हें माहवारी होती है। लेकिन इनमें से करोड़ों महिलाएं इस अवधि को सुविधाजनक और सम्मानजनक तरीके से नहीं गुजार पाती। एक शोध के अनुसार करीब 71 फीसदी महिलाओं को प्रथम मासिक स्राव से पहले मासिक धर्म के बारे में जानकारी ही नहीं होती। करीब 70 फ़ीसदी महिलाओं की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं होती कि सेनिटरी नेपकिन खरीद पाएं, जिसकी वजह से वे कपड़े इस्तेमाल करती हैं।

कानपुर में काम करने वाले गैर सरकारी संगठन श्रमिक भारती के वाटर ऐड परियोजना प्रबंधक विनोद दुबे बताते हैं, "150 शहरी गरीब बस्तियों में माहवारी विषय पर काम करने के दौरान जो लड़कियों के बारे में पता चला वो यह है कि-इस दौरान खुद को वो अपराधबोध महसूस करती हैं, जानकारी के अभाव में गलत तरीके अपना लेती हैं, आत्मविश्वास कम होना, उन दिनों स्कूल न जाना, एकाकीपन, मजाक के डर से घुल मिलकर न रहना, शिक्षा पर असर, लोग क्या कहेंगे इस बात का डर, जैसी तमाम बातें सामने आईं।"

ललितपुर की इस महिला ने सेनेटरी पैड का नाम ही नहीं सुना।

संयुक्त राष्ट्र के एक सर्वे के दौरान कई देशों में जब लड़कियों से बात की गई तो उनमें से एक तिहाई ने बताया कि मासिक धर्म शुरू होने से पहले उन्हें इस बारे में बताया ही नहीं गया। इसलिए जब अचानक शुरू हुआ तो समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे क्या करें? आज भी हमारे समाज में माहवारी एक ऐसा विषय बना हुआ है। जिस पर लड़कियां न तो खुलकर बात कर पाती हैं और न ही हमारे समाज में ऐसे विषयों पर बात करने की इज़ाजत है।

कानपुर देहात जिला मुख्यालय से 38 किलोमीटर दूर सिलहरा गाँव हैं। इस गाँव में रहने वाली संगीता सिंह (26 वर्ष) बताती हैं, "12 वर्ष की उम्र से मुझे माहवारी आनी शुरू हो गई थी। आज तक कभी मां ने पूछा नहीं कि तुम्हे कोई परेशानी तो नहीं है। शौच जाने के दौरान हम अपनी सहेलियों से आपस में बात कर लेते थे।"

वो आगे कहती हैं, "जब पहली बार पीरियड आया तो मैं बहुत डर गई थी। सोच रही थी मां को कैसे बताऊं। अगर बता दिया तो वो घर से बाहर ही नहीं निकलने देंगी।"

उत्तर प्रदेश के जौनपुर शहर की एक लड़की। माहवारी पर जब हमने बात किया तो सिर झुकाकर बैठ गयी।

एक सर्वे के अनुसार भारत में 70 फीसदी महिलाओं को माहवारी के दौरान साफ कपड़े, या नैपकिन उपलब्ध ही नहीं है। वहीं पश्चिमी भारत की स्थिति सबसे खराब है, यहां 83 फीसदी महिलाओं के पास सुरक्षित साधन नहीं है।

महिलाओं और किशोरियों के स्वास्थ्य के लिए काम कर रहीं एक गैर सरकारी संस्था 'वात्सल्य' लखनऊ के आठ ब्लॉक के सैकड़ों गाँव में काम करती हैं । इस संस्था ने वर्ष 2016 में लखनऊ के आठ ब्लॉक के 80 स्कूल की 450 छात्राओं (11 से 18 वर्ष) के बीच बैंक आफ़ अमेरिका के तहत वेश लाइन सर्वे किया था।

जिसमें 93 प्रतिशत छात्राओं ने कहा, माहवारी में वो मन्दिर, चर्च गुरुद्वारा नहीं जाती। 84.7 प्रतिशत ने कहा कि वो माहवारी को गंदा मानती हैं। हर तीन में से एक किशोरी यानी 33 प्रतिशत किशोरियां ही इन दिनों स्कूल जा पाती हैं।

संस्था के प्रोग्राम मैनेजर अंजनी कुमार सिंह कहते हैं, "माहवारी विषय पर अगर सही मायने में हमें जागरूकता फैलानी है तो गांव में जाना होगा, झुग्गी-झोपड़ी में जाना होगा, उनसे बात करनी होगी जिन्होंने आजतक सेनेटरी पैड का इस्तेमाल नहीं किया है।"

चित्रकूट की इन आदिवासी महिलाओं और लड़कियों ने कभी इस्तेमाल नहीं किया सेनेटरी पैड।

दिल्ली की गूंज संस्था ने पिछले 16 साल से एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन कर गरीबों की एक बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए कपड़े के महत्व पर प्रकाश डाला। सर्वे के दौरान पता चला कि शहरी बस्तियों में लोगों के पास पहनने के लिए कपड़े नहीं हैं। इस परिस्थिति में वो माहवारी के दिनों में कपड़े कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं, वहां की महिलाएं माहवारी के दिनों में राख, मच्छरदानी, पुरानी प्लास्टिक, रेत का इस्तेमाल करतीं है, जिसकी वजह से उन्हें इन्फेकशन हो जाता है।

गूंज संस्था ने इन महिलाओं को सेनेटरी नैपकीन बनाने का प्रशिक्षण दिया। तमाम महिलाओं को रोजगार के साथ-साथ सस्ते दरों में पैड मिलने लगे हैं। अभी 200 से अधिक ग्राम पंचायतों,गैर सरकारी संगठनों में काम चल रहा हैं। संस्था के लिए महिलाओं की चुप्पी तोड़ना मुश्किल था पर नामुमकिन नहीं। अथक प्रयास के बाद अभी स्थिति पहले से बेहतर हुई है।

माहवारी पर गोरखपुर की इन महिलाओं को पर्याप्त जानकारी नहीं है।

         

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