प्रदूषित नदियों से कम हो रही बच्चा पैदा करने की क्षमता
Ranvijay Singh 12 Dec 2019 7:13 AM GMT
अशोक (बदला हुआ नाम) की शादी पिछले साल हुई थी। शादी के बाद से ही अशोक और उनकी पत्नी अपने पहले बच्चे के लिए प्रयास कर रहे हैं, लेकिन किन्हीं कारणों से वो असफल हो जा रहे हैं। अशोक इसके पीछे काली नदी के प्रदूषण को एक वजह मानते हैं। उनका कहना है कि नदी के दूषित पानी की वजह से पहले फसलें बर्बाद हुईं, फिर गाय भैंसों ने बच्चा देना कम किया और अब इसका पुरुषों में बच्चा पैदा करने की क्षमता पर भी असर पड़ रहा है।
अशोक जिस नदी का जिक्र कर रहे हैं उसका नाम 'काली नदी' है, जो कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहती है। पश्चिमी यूपी के शामली, मुजफ्फरनगर, मेरठ और बागपत के बीच तीन नदियां - हिंडन, कृष्णा और काली बहती हैं, जो बहुत ज्यादा प्रदूषित हैं। ऐसे में इस प्रदूषण का असर नदियों के किनारे बसे गांव के लोगों पर भी पड़ रहा है। पहले जहां यह असर चर्म रोग, पेट की बीमारी, सांस की बीमारी और कैंसर तक दिख रहा था, वहीं अब यह असर पुरूषों और महिलाओं में बच्चा पैदा करने की क्षमता पर भी दिखने लगा है।
मेरठ के जिंदल हॉस्पिटल के मेल फर्टिलिटी स्पेशलिस्ट डॉ. सुनील जिंदल बताते हैं, ''इन नदियों के किनारे रहने वाले लोगों में एक बड़ी दिक्कत सामने आ रही है। यह दिक्कत है बच्चा न पैदा कर पाने की। जब हम लोगों की जांच करते हैं तो पता चलता है कि पहला इनमें शुक्राणुओं की संख्या कम होती है और दूसरा इनके शुक्राणुओं के डीएनए फ्रेगमेंटेशन बहुत हाई है। मतलब जो शुक्राणु हैं भी उनका भी डीएनए खराब है।"
डॉ. सुनील जिंदल आगे बताते हैं, ''शुक्राणुओं में डीएनए सबसे सेंसेटिव चीज होती है। शुक्राणुओं के सेल में उसे बचाने वाली चीज यानी साइटोप्लाज्म (कोशिकाद्रव्य) बहुत कम होता है। किसी भी तरह के टॉक्सिन से शुक्राणु तुरंत प्रभावित हो जाते हैं। ऐसे में इन नदियों के प्रदूषण से भी शुक्राणु प्रभावित हो रहे हैं। जिन लोगों में शुक्राणुओं की मात्रा पूरी भी होती है, वो भी बच्चा पैदा नहीं कर पाते क्योंकि वो शुक्राणु उस लायक ही नहीं होते। यही वजह है कि इन नदियों के किनारे रहने वाले बहुत से लोग निःसंतान हैं। इस बेल्ट का आदमी बाकी बेल्ट के आदमी से ज्यादा इंफरटाइल है और उसके शुक्राणु खराब हैं।''
गांवों में निःसंतानी की दिक्कतों के बारे में बागपत के गांगनौली गांव के प्रधान धमेंद्र राठी (46 साल) भी बताते हैं। गांगनौली गांव के पास से ही कृष्णा नदी गुजरती है। धमेंद्र राठी कहते हैं, ''नदी के प्रदूषण का असर पहले दूसरी चीजों पर दिखता था, जैसे चर्म रोग, पेट की बीमारी, लेकिन पिछले 4-5 साल से निःसंतानी की समस्या भी बढ़ी है। ऐसे में हमें समझ आ रहा है कि नदी का पानी लोगों को बांझ भी बना रहा है।''
धमेंद्र राठी बताते हैं, ''गांव में हर साल 10 से 15 शादी होती है, इनमें से 50 प्रतिशत दंपति बच्चे को लेकर परेशान रहते हैं। बहुत से मामले तो ऐसे भी हैं, जहां महिलाओं के एक-दो महीने में ही गर्भपात हो जाता है। पहले गर्भधारण नहीं होता और बाद में अगर गर्भ में बच्चा आया भी तो वो भी खत्म हो जाता है। यह सब पानी की ही देन है।''
ऐसा नहीं कि निःसंतानी के मामले सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नदियों के किनारे रहने वालों में ही बढ़ते दिख रहे हैं। वर्तमान समय में निःसंतानी बहुत बड़ी समस्या बन कर उभरी है। शुक्राणुओं की कमी के पीछे कई कारण हैं, इनमें से एक कारण पर्यावरणीय प्रदूषण भी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नदियों सा ही एक मामला तमिलनाडु की नोय्यल नदी के किनारे रहने वाले लोगों में भी देखने को मिलता है। वहां के लोग भी निःसंतानी की दिक्कत से परेशान हैं।
अलग-अलग मीडिया रिपोर्ट्स में यह बताया गया है कि तमिलनाडु की नोय्यल नदी में डाई और ब्लिचिंग कंपनियों का वेस्ट वॉटर बहाया जाता है। इसकी वजह से यह नदी बहुत अधिक दूषित है, जिसका असर यहां की जमीन से लेकर लोगों तक पर हो रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स में साफ लिखा गया है कि नदी का पानी लोगों को बांझ बना रहा है।
तमिलनाडु की नोय्यल नदी के इस मामले पर जांच करने वाली आईवीएफ ट्रिटमेंट स्पेशलिस्ट डॉ. निर्मला सदाशिवम गांव कनेक्शन को बताती हैं, ''आज से 10 साल पहले हमने नोय्यल नदी के किनारे रहने वाले लोगों की जांच की थी। वहां बांझपन के बहुत से मामले मिले थे। 2009 में करूर के एक मेडिकल कैंप में 210 लोग मिले थे, जो फर्टिलिटी डिसऑर्डर से जूझ रहे थे। हम यह भी नोटिस कर रहे हैं कि नोय्यल नदी के किनारे रहने वाले ज्यादातर लोग बांझपन का इलाज करा रहे हैं, इनमें महिलाएं और पुरुष दोनों शामिल हैं।''
डॉ. निर्मला सदाशिवम कहती हैं, ''बांझपन के लिए पर्यावरणीय प्रदूषण एक बड़ा कारक है। ऐसे में इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि नदियों का प्रदूषण का असर लोगों पर भी पड़ रहा है।''
सहयोग- कम्युनिटी जर्नलिस्ट मोहित सैनी, मेरठ
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