झारखंड: सारंडा जंगल की ये गर्भवती महिलाएं नमक, भात खाकर पहाड़ चढ़ती हैं, कुल्हाड़ी चलाती हैं

आपको यकीन करना शायद मुश्किल हो जाए, लेकिन सच यही है सारंडा के जंगल में रहने वाले आदिवासी गरीबों के लिए उनके खाने में नमक तक का होना लग्जरी है। नमक और भात खाकर महिलाएं बच्चों को जन्म दे रही हैं, आजादी के 74साल बाद भी इनकी जिंदगी नहीं बदली। सारंडा के दुर्गम जंगल से गांव कनेक्शन के लिए आनंद दत्त की खास रिपोर्ट

Anand DuttaAnand Dutta   21 Aug 2020 12:53 PM GMT

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नक्सल प्रभावित रहे सारंडा के जंगलों के बीचोबीच भरी दोपहरी में आठ महीने की गर्भवती मुक्ता लोमगा रात का चावल पकाने के लिए कुल्हाड़ी से लकड़ी काट रही थी। मुक्ता हफ्ते में दो दिन 16 किलोमीटर पैदल रास्ता नापकर इस लकड़ी को बेचने जाती है ताकि हफ्ते पर घर में नमक और तेल की किल्लत न हो।

घने जंगलों और पहाड़ों के उबड़-खाबड़ रास्तों से होकर 16 किलोमीटर दूर सर पर लकड़ी रखकर पैदल बाजार जाकर बेचना इन महिलाओं के लिए आम बात है। इन रास्तों से पर कभी गिर गईं तो? हंसते हुए मुक्ता बोली, "नहीं गिरेंगे, आदत है चलने की।"

घर के नाम पर इनके पास प्लास्टिक की पन्नी से बनी छत है जो लकड़ियों के सहारे लगाई गयी है। गृहस्थी के नाम पर इनके पास गिनती के दो चार बर्तन, राशन के नाम पर पन्नियों में रखा थोड़ा बहुत नमक, हल्दी, मिर्चा और चावल, सोने के लिए फटे-पुराने बिछौने। इनकी रोजी-रोटी का जरिया जंगल की लकड़ी और तेंदू पत्ता। सड़क के नाम पर जंगलों के रास्ते 16 किलोमीटर दूर तक पैरों के बने निशान इनके घर का पता बताने के लिए काफी हैं।

राजधानी दिल्ली से लगभग 1500 किलोमीटर दूर झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 275 किलोमीटर दूर सारंडा के घने जंगलों के बीच बसे नुइयागड़ा गांव में मुक्ता देवी के फूस के बने घर में कई जगह छेद हो चुके थे। इस अँधेरे घर में छेदों से थोड़ी-थोड़ी रोशनी आ रही थी। मुक्ता का एक साल का बेटा जमीन पर फटे कपड़े के ऊपर सो रहा था, आंगन में बरसात के पानी का भरा कीचड़ जमा था जिसमें आठ दस चूजे चोंच मार रहे थे।

आज मुक्ता के घर में खाने के नाम पर खेत से लाया हरा साग और भात था। घर में नमक जैसा जरूरी सामान भी नहीं था। पूछने पर मुक्ता ने जवाब दिया, "मंगलवार को बाजार जायेंगे, लकड़ी बिका तो खरीदकर लायेंगे, नहीं तो ऐसे ही खाएंगे।"

दाल- सब्जी कबसे नहीं बना आपके घर? मुक्ता बोली, "महीने में एक दो बार बन जाता है।"

आज भी ये महिलाएं झरने का पानी पीने को मजबूर हैं.

मुक्ता जैसी इन जंगलों में रहने वाली दर्जनों महिलाओं के लिए प्रसव पूर्व होने वाली जांचें और टीकाकरण होना आज भी किसी सपने जैसा है। मुक्ता देश की उन महिलाओं में से एक है जिन्होंने आज तक पोषण, कुपोषण, मातृत्व सुरक्षा जैसे शब्द सुने ही नहीं हैं। आजादी के 74वें साल गुजरने के बावजूद ये आज भी झरने से बहने वाला पानी पीने को मजबूर हैं।

"जंगल से लकड़ी काटना मेरा हर दिन का काम है। हफ्ते में दो दिन मंगलवार और शनिवार 16 किलोमीटर दूर किरीबुरू बाजार में बेचने जाते हैं। ये लकड़ी मुश्किल से 50-60 रूपये की बिकती है। अगर बिक गयी तो उसी पैसे से नमक मिर्चा और चावल खरीदते हैं," कुल्हाड़ी चलाने में मशगूल मुक्ता ने ये बातें 'हो' भाषा में बताईं जिसे यहाँ समझने के लिए हिन्दी में लिखा गया है।


मुक्ता के खानपान की ये स्थिति तब है जब वो आठ महीने की गर्भवती है। झारखंड की ये वो महिलाएं हैं जिन्होंने आजतक पोषण, कुपोषण, मातृत्व सुरक्षा जैसे शब्द सुने भी नहीं हैं। साल 2011 में एक गैर सरकारी संस्था नानदी फाउंडेशन की ओर से देशभर के 112 रूरल डिस्ट्रिक्ट में हुए सर्वे में 80 प्रतिशत महिलाओं ने इन शब्दों के बारे में सुना ही नहीं था।

मुक्ता का एक बच्चा दो साल पहले इलाज के अभाव में मर गया था। उन्हें पता भी नहीं चला कि बच्चे को क्या बीमारी थी? सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (एसआरएस) की रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड में होने वाले प्रत्येक 100 मौत में 14 मौत 0-4 साल के बच्चे की होती है। इस आयु वर्ग में होने वाले मौत के आंकड़ों में झारखंड देशभर में छठे नंबर पर है।

कुल 69,000 करोड़ हेल्थ बजट वाले भारत सरकार की ओऱ से गर्भवती महिलाओं के लिए प्रधानमंत्री सुरक्षित मातृत्व अभियान चलाई जा रही है। आशा वर्कर या एएनएम की मदद से इनका रजिस्ट्रेशन होता है. इनके हिमोग्लोबिन, मलेरिया, सुगर, यूरिन एब्लोमिन, एचआईवी, बल्ड ग्रुप आदि की जांच होती है। रिपोर्ट के मुताबिक इन महिलाओं को उचित दवाई और स्वास्थ्य सलाह दी जाती है। कैल्शियम और आयरन की गोली देनी होती है। इन्हें हर महीने पुष्टाहार मिलता है, नियमित जांचे और टीकाकरण हर गर्भवती महिला के लिए जरूरी है। डिलीवरी के समय गर्भवती महिलाओं को एंबुलेंस की सुविधा भी मुहैया कराई जाती है।

बरसात के महीने में जमीन पर सोता मुक्ता का बच्चा.

दुर्गम क्षेत्र में रहने वाली ये महिलाएं सरकार की इन तमाम सुविधाओं से वंचित हैं। रांगरिंग गांव की गीता गगराई (38) सरकार की योजनाओं की पोल खोलती हैं, "आज तक यहाँ किसी भी महिला ने गर्भ के दौरान न तो कभी डॉक्टर को दिखाया और न कभी आशा ने सुध ली।"

इन गांवों में महिलाओं, बच्चों, पुरुषों को कपड़े की भारी किल्लत है। किसी के शरीर पर साफ या बिना फटा कपड़ा नहीं दिखा। अधिकतर बच्चों का पेट निकला हुआ है।

देश की आजादी के 74वीं वर्षगांठ पर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा किये विकास के तमाम कामों को गिना रहे थे, राफेल डील की उपलब्धियां बता रहे थे, इसी के साथ देश 75वें स्वतंत्रता दिवस की तैयारी को लेकर आगे बढ़ चुका था। इस भाषण के दो दिन बाद 17 अगस्त को धरातल पर विकास के मायनों को समझने के लिए गाँव कनेक्शन संवाददाता ने सारंडा के जंगलों की तरफ रुख किया और मुक्ता के गाँव पहुंच गये।

मुक्ता के घर से लगभग 300 मीटर की दूरी पर पार्वती मारला (20) अपने पति का खेत से आने का इंतजार कर रही थी। आठ महीने से अधिक की गर्भवती इस महिला के गोद में 13 महीने की एक बच्ची थी। एक बर्तन भात और कढ़ाई में साग का बहुत छोटा हिस्सा चिपका था। पार्वती ने थोड़ी देर बाद बच्चे को जमीन पर बिठाया और सर पर बर्तन रखकर झरने से पानी लाने चली गई।


जहाँ वो पानी भरने गयी थी वहां एक गड्ढे में जमा पानी के ऊपर गंदगी की परत जमी थी, उसने पहले उसे हटाया और फिर छक कर पानी पिया। इसके बाद बर्तन में पानी भरकर भारी कदमों से धीरे-धीरे घर आने लगी। मूलभूत जरूरतों से कोसों दूर पार्वती को रोज ये गंदा पानी पीना पड़ता है। इनकी जिंदगी का हर दिन जद्दोजहद में गुजरता है पर इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है।

इस गाँव से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी में फैले चार गांव नुइयांगरा, बोरदाबाटी, होंजोरदिरी और रांगरिंग में मुक्ता और पार्वती की तरह 16 महिलाएं गर्भवती मिलीं। जिसमें माधुरी अंगरिया (5 महीना की गर्भवती), सपनी अंगरिया (7 महीना), रौशनी गोप (6 महीना), सोमबारी बिरुआ (8 महीना), गीता लोहार (8 महीना), पुतली सुंडी (3 महीना), पालो मुंडू (3 महीना), सुषमा मारला (6 महीना), होंजोरदिरी- कुरिन सुंडी (4 महीना), कुली चतर (8 महीना), सुमी पुर्ती (4 महीना), सोमबारी दोराईबुरू (5 महीना), फुलमती सिरका (1.6 महीना), सोमबारी हस्सा (8 महीना), अभाई बोदरा (8 महीना), नानिका सुरीन महीने की गर्भवती हैं।आबादी के लिहाज से देखें तो रांगरिंग में 42 घर, नुइयागड़ा में 26 घर, बोड़दाबाटी में 24 घर और होंजोरदिरी में भी लगभग इतने ही घर हैं।

ये वो गर्भवती महिलाएं हैं जिनका न तो कभी टीकाकरण हुआ और न प्रसव पूर्व जांचें.

इन तीन गांवों में से एक रांगरिंग में 11 अगस्त को पहली बार कोई सरकारी अधिकारी पहुंचे थे। ये लोग इसी देश के नागरिक हैं लेकिन अबतक सरकार के दीदार से मरहूम हैं। गांव में पहुंचने के लिए रास्ता के नाम पर इन आदिवासियों के पैरों के निशान मात्र हैं।

नुइयागड़ा से पहाड़ी चढ़ते - तरते लगभग चार किलोमीटर दूर बोरदाबाटी गांव के प्रधान गोनो चंपिया ने कपड़े से छानकर लाया पानी पिलाया और फिर बातें करने लगे। उन्होंने बताया, "किरिबुरु टाउनशिप के नजदीक कुछ पहचान वाले लोग रहते हैं. कई बार गर्भवती महिलाओं को खाट पर लिटाकर गांव के पुरुष गांव से वहां ले जाते हैं. फिर वहां जब तक बच्चा होता है, वह रखते हैं। हमलोग गांव से राशन पहुंचा देते हैं। जब बच्चे की डिलिवरी हो जाती है। परिवार गांव लौट आता है।"

वो आगे बताते हैं, "ये उपाय भी वही लोग कर पाते हैं जो हर दिन मजदूरी करते हैं। जिनको काम नहीं मिलता, ऐसे परिवारों के बच्चे तो गांव में या फिर जंगल में काम करने के दौरान ही हो जाते हैं।"

इस 16 गर्भवती महिलाओं में शामिल पुतली सुंडी का एक बच्चा ऐसे ही पैदा हुआ था। बीते साल नवंबर माह में वह अपने पति राजा सुंडी के साथ लकड़ी बेचने बाजार जा रही थी. पहाड़ी के चढ़ान पर ही उसे अचानक दर्द शुरू हुआ। आनन-फानन में राजा सुंडी ने अपना कपड़ा उतार, जंगल में बिछाया और पत्नी को लिटा दिया। वहीं बच्चा हुआ और फिर थोड़ी देर आराम करने के बाद दोनों लौटकर घर आ गए।


चाईबासा को देश का सबसे अधिक कुपोषित जिला भी माना जाता है। हालांकि बीते कुछ वर्षों में इस दाग को मिटाने के लिए अच्छे-खासे प्रयास भी किए गए हैं। आंकडों के लिहाज से झारखंड में इस वक्त प्रति हजार 30 बच्चों की मौत हो जा रही है। रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया की ओर से जारी सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम ने यह आंकड़ा साल 2018 के आधार पर जारी किया है। इसी आंकड़े के मुताबिक राज्य में मातृत्व मृत्यु दर प्रति लाख 71 है, जबकि इस मामले में राष्ट्रीय औसत 113 दर्ज किया गया है।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर अब तक इन गांवों में सरकार क्यों नहीं पहुंची है? विकास का एक छींटा तक इन गांवों में क्यों नहीं पड़ा?

इसका जवाब वनाधिकार कानून विशेषज्ञ सुधीर पाल देते हैं, "ये अन नोटिफाइड विलेज हैं। इसे वनग्राम कहा जाता है। चाईबासा जिले में ऐसे गांवों की संख्या 24 है। इसे अंग्रेजों ने बसाया था। इन गांवों को रेवेन्यू विलेज का दर्जा नहीं दिया गया है। वन विभाग के जिम्मे होने के कारण रेवेन्यू डिपार्टमेंट इसमें दखल नहीं देती। फिलहाल दोनों विभागों के लिए यह सौतेला बेटा की तरह है।"

सुधीर आगे कहते हैं, "वनाधिकार कानून आने के बाद ऐसे गांव के लोगों को वनाधिकार पट्टा देकर उन्हें नोटिफाइड किया जा रहा है। इसके बाद विकास संबंधी सभी योजनाएं इन इलाकों में भी लागू की जा सकती हैं। वहीं राज्य में लगभग 1,000 अनमैंड विलेज यानी बेचिरागी गांव हैं। ये राजस्व ग्राम तो हैं, लेकिन इनमें लोग नहीं रहते हैं। केवल नाम के लिए सरकारी खातों में दर्ज हैं।"

आंकड़ों, समस्याओं, तकनीकी दिक्कतों से इतर इन महिलाओं को अभी चार जोड़ी साड़ी, हेल्थ चेकअप, पौष्टिक आहार, बच्चों को कपड़े, दवाई और साफ पानी की सबसे ज्यादा तत्काल में जरूरत है। समाज और सरकार की जिम्मेवारी है कि इसे पूरा करें।


    

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