महामारी और घर में कैद हो जाने के अहसास के बीच द स्लो एप पर फारेस्टर चैनल अपने आपको बेहतर महसूस कराने का एक शानदार तरीका है। यहां खूब हरियाली है, खूब वन्य जीवन है… और बहुत कुछ जो वास्तव में हमें अपनी ओर खींचता है। वैसे अभी ये सब वर्चुअल ही है।
और जब आपके पास दुधवा टाइगर रिजर्व के फील्ड डायरेक्टर संजय पाठक जैसा कोई हो जो जंगल के खजानों के बारे में बात करे, तो आप इसकी और कद्र करना सीख जाते हैं।
स्लो एप पर फारेस्टर चैनल लेखक, स्टोरीटेलर नीलेश मिसरा का अपना चैनल है, जो देश के जंगलों में सेवा करने वाले गुमनाम नायकों पर रोशनी डालता है।
पाठक जंगल में घूमते हैं, जहां उन्हें बहुत सी हैरान करने वाली चीजें मिलती हैं। इसी तरह उनकी टीम को एक बार आर्किड की ऐसी प्रजाति मिली जिसे आखिरी बार 118 साल पहले देखा गया था। यूलोफिया ओबटुसा जिसे ग्राउंड आर्किड भी कहा जाता है, यह एक दुर्लभ प्रजाति है। मुआयने के दौरान इत्तेफाक से यह मिली।
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने यूलोफिया ओबटुसा को बांग्लादेश में “गंभीर रूप से संकटग्रस्त” प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया है। पाठक की टीम को मिलने से पहले इस प्रजाति को भारत में 1902 में आखिरी बार देखा गया था। वास्तव में, इंग्लैंड में केव हर्बेरियम में इस प्रजाति के तीन नमूने हैं जो 1902 के समय के हैं।
पाठक लकड़ियों से बने बाड़े वाले बरामदे में बैठे हैं। उनके सामने दूर तक फैला जंगल है। वह याद करते हैं कि कैसे एक आर्किड ग्रुप में पोस्ट की गई तस्वीरों को देखने के बाद बांग्लादेश के एक वैज्ञानिक ने उनसे पूछा था कि सफेद और गुलाबी आर्किड उन्हें कहां मिले। उसने बताया कि यह काफी दुर्लभ प्रजाति हैं।
उनकी टीम ने वापस जंगल में जाकर उसे तलाशा और गैंडे के क्षेत्र के आस-पास उन्हें वह प्रजाति मिली। उन्होंने ना केवल खिलते हुए फूल की, बल्कि उसके फलों की भी तस्वीरें लीं।
उन्होंने किशनपुर और साथियाना पर्वतों पर भी कुछ आर्किड देखे। इस साल टीम को उम्मीद है कि वे फिर से ऐसा करेंगे और इस पर पेपर प्रकाशित भी करेंगे।
इसके बारे में बात करते हुए पाठक कहते हैं कि भारतीय वन सेवा में शामिल होने वाला हर व्यक्ति दुधवा जैसी जगह पर काम करना चाहता है। ऐसी जगहों पर काम करने से, प्रकृति के साथ जुड़ने से उन्हें खुशी मिलती है।
वह कहते हैं ,”बहुत से लोग बाघ न मिलने पर लौटने लगते हैं।” ठीक उसी समय बैकग्राउंड में हाथी का बच्चा उछल-कूद करता दिखाई देता है।
लेकिन पाठक ऐसे लोगों से भी मिलते हैं जो सिर्फ बाघ देखने के लिए ही यहां आते हैं जैसे उनकी जिदंगी का एकमात्र मकसद यही हो।
पाठक अफसोस जताते हुए कहते हैं, “हो सकता है उनकी बुकिंग तीन दिन की हो, लेकिन पहले ही दिन बाघ दिख जाने पर वह लौटने लगते हैं।” वह पूछते है कि जंगल में आने ,घूमने का मकसद क्या है। फील्ड डायरेक्टर कहते है, “जंगल का मतलब है ताजी हवा को महसूस करना, चिड़ियों का मधुर संगीत सुनना। और जानवर दिखना तो एक बोनस है।”
उन्होंने कुछ पर्यटकों को जंगल में आने के बाद भी फोन पर झांकते और हेडफोन लगाकर संगीत सुनते देखा है। पाठक कहते हैं,”हमें आंख और कान दिए हैं, उन्हें खोलो और जंगल के मधुर संगीत को सुनो।”
चिड़ियों के मधुर गान, कीट-पतंगों के संगीत को बीच में ही रोक देने वाली, किसी भी समय आने वाली अजीब सी दहाड़ों से बेहतर कुछ नहीं हैं।
इस लघु फिल्म की सिनेमाटोग्राफी यश सचदेव और मोहम्मद सलमान ने की है। संपादन राम सागर ने किया है और ग्राफिक्स कार्तिकेय उपाध्याय के हैं।
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अनुवाद- संघप्रिया मौर्य