शरणार्थी कालोनी से 'आत्मनिर्भर' बन चुका एक बंगाली गांव

रवींद्रनगर, मियांपुर बंगाली विस्थापितों का गांव है, जहां पर देश की आजादी (1947) और बांग्लादेश के मुक्तियुद्ध (1971) के दौरान भारत आए बंगाली विस्थापित और शरणार्थी बसे हुए हैं। इस गांव में करीब 600 बंगाली परिवार हैं।

Daya SagarDaya Sagar   30 March 2019 10:24 AM GMT

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दया सागर/रणविजय सिंह

रवींद्रनगर, मियांपुर (लखीमपुर, उत्तर प्रदेश)। "वह 6 मई, 1964 का दिन था, जब हमारे पुरखों को रूद्रपुर, उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) के ट्रांजिट कैम्प से यहां पर लाकर छोड़ा गया था। मेरे बाबा बताते हैं कि उन्हें ट्रकों में भर कर लाया गया था। तब यहां सिर्फ घना जंगल हुआ करता था। अब देखिए यहां पर एक ऐसा गांव बस चुका है, जिसे कवर करने आप 'मीडिया वाले' आ रहे हैं।" सैंंतीस साल के तपन विश्वास इतना बताकर ठिठक जाते हैं।

उनके आवाज में विस्थापन का दर्द तो झलकता ही है, साथ ही एक आत्मसंतुष्टि भी झलकती है कि उनका गांव विभाजन और विस्थापन के दर्द को झेलता हुआ एक ऐसा गांव बन चुका है, जिसे स्वच्छता और आत्मनिर्भरता के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार मिला है।

रवींद्रनगर, मियांपुर का ग्राम पंचायत भवन। इस गांव को आदर्श निर्मल गांव का राष्ट्रपति पुरस्कार मिल चुका है।

गांव कनेक्शन की टीम लखीमपुर जिले के मोहम्मदी ब्लॉक में पड़ने वाले एक गांव रवींद्रनगर, मियांपुर पहुंची थी। यह गांव बंगाली विस्थापितों का गांव है, जहां पर देश की आजादी (1947) और बांग्लादेश के मुक्तियुद्ध (1971) के दौरान भारत आए बंगाली विस्थापित और शरणार्थी बसे हुए हैं। इस गांव में करीब 600 बंगाली परिवार हैं।


इस गांव की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इस गांव में एक भी नाली नहीं है लेकिन यह पूरे क्षेत्र का सबसे स्वच्छ, निर्मल और आदर्श गांव है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान (2014) से बहुत पहले 2009 में ही इस गांव को स्वच्छता का राष्ट्रपति पुरस्कार मिल चुका है। उस समय डा. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम राष्ट्रपति हुआ करते थे।

गांव की दीवालों को स्वच्छता के संदेश के साथ पेंट किया गया है। गांव के लोग स्वच्छता के प्रति काफी जागरूक हैं। इस गांव में एक भी नाली नहीं है।

गांव के प्राथमिक विधालय के प्रधानाचार्य तपन विश्वास जब इस उपलब्धि को याद करते हैं, तो उनकी आंखें चमक उठती हैं। वह कहते हैं, 'यह सब बिना समुदाय के सहयोग से संभव नहीं हो पाता। हमारा समुदाय स्वच्छता के महत्व को समझता है। स्वच्छता और सफाई की सीख हमें हमारे पूर्वजों से मिली हुई है। जब शौचालय नहीं हुआ करता था तब भी हमारे लोग बाहर कहीं भी शौच करने नहीं जाते थे। वे तब गड्ढा खोदकर कच्चा शौचालय बनाकर शौच जाते थे। अब तो लगभग सभी घरों में शौचालय है। सरकार के सहयोग और समुदाय की जागरूकता से हम एक आदर्श और निर्मल गांव बन पाए हैं।'

जल संरक्षण के लिए वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम

इस गांव के सभी घरों में पानी को संरक्षित करने के लिए वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम बना हुआ है। सभी घरों में गढ्डा करके चार बड़े-बड़े टैंक बनाए गए हैं, जहां पर रोजमर्रा का उपयोग होने वाला पानी इकट्ठा होता है।

यह अशुद्ध पानी छन-छन कर एक-एक टैंक में जाता है और फिर अंतिम में उस टैंक में जाता है, जिसमें 'सोख्ता' लगा हुआ है। इस तरह धरती का पानी धरती में पुनः शोधित होकर चला जाता है। पानी को शोधित करने के लिए इन टैंकों में ईट के रोड़े, गिट्टी, मोरम, बालू, राख, घास-फूस और नीम के पत्ते डाले जाते हैं। इससे अलग-अलग टैंकों से पानी छन-छन कर के शुद्ध रूप में धरती में जाता है।

गांव के सभी घरों, रास्तों और स्कूलों में है वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम। इससे जल संरक्षण भी होता है और रास्तों पर पानी भी नहीं जमा होता।

गांव के एक युवा विक्रम सिंह (22) बताते हैं, 'वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम में अधिक खर्चा नहीं आता है। इसमें अधिकतम दो से तीन हजार का खर्चा आता है। जो इस खर्चे का वहन नहीं कर सकते, वे पक्के की जगह कच्चा गढ्डा बनवाते हैं और पानी को संरक्षित करते हैं। इस गांव में कोई भी घर नहीं है, जहां पर वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम नहीं है। इसे बनवाने के लिए सरकार और ग्राम पंचायत का भी सहयोग मिलता है।'

तपन विश्वास बताते हैं कि वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम अपनाने से गांव में अब कहीं भी कीचड़ नहीं लगता, पानी नहीं जमा होता। नाली के बगैर भी गांव के सभी रास्ते पूरी तरह से स्वच्छ और साफ रहते हैं।

स्वस्थ रहने के लिए 'किचन गॉर्डन'

रवींद्रनगर, मियांपुर के लोग जैविक खेती करते हैं। वह घर की रोजमर्रा की शाक-सब्जियों को अपने घर के ही आंगन में उगाते हैं। इसमें आलू, प्याज, टमाटर, मटर, गोभी, साग, अदरक, धनिया आदि शामिल हैं। गांव के लोग इसे 'किचन गॉर्डन' कहते हैं। इस किचन गॉर्डन में उसी पानी का प्रयोग होता है जो रोजमर्रा की जरूरतों जैसे- नहाने, कपड़ा धोने और बरतन मांजने के दौरान अवशेष बचता है। कुल मिलाकर पानी को बचाने के लिए हर संभव कोशिश की जाती है। रवींद्रनगर के लोग इसमें सफल भी हैं।

गांव के सरकारी स्कूल में बना किचन गार्डन। इस किचन गार्डन में आलू, गोभी, प्याज, टमाटर से लेकर कई तरह की सब्जियां, फल, फूल, पौधे और औषधियां उगाई जाती हैं।


ऊर्जा संरक्षण के लिए सोलर प्लांट, गोबर गैस और एलईडी बल्ब का प्रयोग

इस गांव के लोग प्रकृति के प्रति काफी संजीदा हैं। ऊर्जा की बचत के लिए गोबर गैस, सोलर प्लांट और एलईडी बल्ब का प्रयोग किया जाता है। गांव के सभी स्ट्रीट लैंप में सोलर प्लांट लगा हुआ है जो सूर्य से रोशनी लेकर रात में रोशनी देते हैं। इसके अलावा सभी घरों में ऊर्जा की बचत के लिए एलईडी बल्ब का प्रयोग किया जाता है।

खाना बनाने के लिए गोबर के कंडों और देशी चूल्हों का उपयोग पूरे गांव में होता है।

पूरे गांव में दिखती है बंगाली संस्कृति की छवि

जब आप इस गांव में पहुंचेंगे तो आपको लगेगा ही नहीं कि आप उत्तर प्रदेश के किसी गांव में हैं। पूरे गांव में आपको बंगाली संस्कृति की झलक मिल जाएगी। इस गांव में अधिकतर घर मिट्टी के हैं जिस पर खपरैल की छत है। लोग मिट्टी और गोबर से ही घर की लिपाई-पोताई करते हैं। सभी घरों में पूजा-घर, तुलसी का पौधा, छोटी सी बागवानी, किचन गॉर्डन आदि है, जिसे सलीके से सजाया गया है।

रवींद्रनगर, मियांपुर की महिलाएं। इन्होंने बंगाली संस्कृति को जिंदा रखा हुआ है।

बारहवीं में पढ़ने वाली अनामिका मंडल बताती हैं कि घरों की दीवालों पर मिट्टी से पेंटिंग कर उसे फूल-पत्तियों और विभिन्न प्रतीकों से सजाया जाता है। इसके लिए वह पास बहने वाली गोमती नदी से मिट्टी लाती हैं। अनामिका की बहन अनीशा बताती हैं कि वह यह कलाकारी अपनी दादी और नानी से सीखी हैं। यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आ रहा है। पास में खड़ी अनामिका की दादी मुस्कुराते हुए बंगाली में कुछ कहती हैं। वह एक चादर भी दिखाती हैं, जो उन्होंने खराब हो चुके पुराने कपड़ों से बनाया हुआ है।

खराब और बेकार हो चुके कपड़ों से बनी चादर को दिखाती अनामिका। अनामिका ने यह कला अपनी दादी से सीखी है, जो पीछे खड़े होकर मुस्कुरा रही हैं।

गांव के प्रधान प्रतिनिधि प्रशांत ढाली बताते हैं, 'हमारा गांव पूरी तरह से आत्मनिर्भर गांव हैं। हमारे गांव का मुख्य पेशा खेती-किसानी है। सरकार के पुनर्वास नियम के तहत प्रत्येक परिवार को पौने पांच एकड़ की खेत दी गई थी, जिस पर लोग खेती करते हैं। इसके अलावा कुछ लोग बीड़ी और नमकीन उद्योग का भी कार्य करते हैं। पलायन ना हो इसलिए ये उद्योग हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण है। कुल मिलाकर अगर हमारा संपर्क शहर से टूट जाए तब भी हम कुछ सप्ताह तक गुजर-बसर कर सकते हैं।'

'गोमती नदी जीवनदायिनी'

रवींद्रनगर, मियांपुर गांव गोमती नदी के किनारे बसा हुआ है। प्रशांत ढाली बताते हैं, 'जब हमारे पूर्वज बंगाल से यहां आए तो गोमती नदी ने जीवनदायिनी का काम किया। इस नदी की वजह से ही हमारे पुरखे यहां पर ठहर पाए। हम लोग बांग्लादेश के जिस खुलना क्षेत्र से आते हैं, वह सुंदरवन का इलाका है और वहां पर गंगा, ब्रह्मपुत्र, हुगली, मेघना और बालेश्वर जैसी कई नदियां बहती हैं। हमारे लिए नदियों के बिना जीवन सोचना भी संभव नहीं है।'

रवींद्रनगर, गोमती नदी के किनारे बसा हुआ है। गांव के किनारे यह नदी साफ-सुथरा है। नदी में बच्चे नहाते दिखे। जबकि नदी के किनारे बने मंदिरों में गांव के लोग पूजा कर रहे थे।


वह आगे बताते हैं, 'गोमती नदी ने हमें आत्मनिर्भर बनाने में काफी मदद की। सरकार ने पुनर्वास के तहत जो हमें खेत, गाय और बैल दिए थे, सब गोमती की वजह से ही जिंदा रह सके। हमारा समुदाय इस नदी की वजह से ही यहां टिकने में सफल रहा। इस नदी के किनारे ही हमारे सभी संस्कार और पूजा-पाठ होते हैं।'

विभाजन को अब नहीं करना चाहते याद

इस गांव में अब बहुत कम लोग ही बचे हैं जो विभाजन और विस्थापन की यादों को समेटे हुए हो। अस्सी साल के सुखलाल मंडल उन्हीं कुछेक लोगों में से हैं। वह विभाजन के समय ही भारत आए थे। लेकिन वह उस समय की विभिषिका को याद नहीं करना चाहते। पूछने पर उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं और बंगाली में कहते हैं, 'लोगों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारा जा रहा था। किसी को चाकू मारा जा रहा था, तो किसी को बंदूक से उड़ा दिया जा रहा था। कोई अगर वहां से छिपकर भागना चाहते था, उन्हें भी खोजकर कर मार दिया जाता था। छोटे-छोटे बच्चों को ऊपर उछाल कर उन्हें चाकू की नोक पर गिराया जाता था। माओं के दूध पीते बच्चों को छीनकर उनके स्तन काट दिए जाते थे।'

सुखलाल मंडल जब विस्थापन की यादों को साझा करते हैं, तो उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं।

बांग्लादेश के खुलना के रामपाल थाना को अपना मूल गांव बताने वाले सुखलाल मंडल आगे बताते हैं, 'हमारा वहां पर 8 बीघा जमीन था। इसके अलावा कई तालाब और सुपाड़ी-इलायची के बगीचे थे। यह सब छोड़ कर कौन आना चाहता है? लेकिन हमें आना पड़ा। हम खुशकिस्मत थे कि हमारे परिवार के सभी सात के सात सदस्य बच गए और वापस चले आए। पहले हमें पश्चिम बंगाल में ही एक शरणार्थी कैम्प में रखा गया और उसके बाद हमें रूद्रपुर लाया गया। रुद्रपुर के ट्रांजिट कैम्प से हमें यहां लाया गया। अब हम यहां (भारत में) पर खुश हैं और वहां (बांग्लादेश) कभी भी वापस नहीं जाना चाहते।'

सुखलाल मंडल के घर के सामने अपने छोटे से खपरैल के मकान में रहने वाली पैंसठ साल की तारामती मंडल हमें आंगन बुहारती हुई मिली। वह सत्तर के दशक में भारत आई थीं जब बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) में 'मुक्ति युद्ध' चल रहा था।

'जिसे बचा कर लाई, वही चला गया'

उस समय की परिस्थितियों के बारे में पूछने पर तारामती बताती हैं, 'पहले जेठ चला गया, फिर देवर चला गया और फिर एक बेटा था, वह भी हमें छोड़कर चला गया। जिसको जहां जान बचाने का मौका मिला, वह भाग निकला। कुछ रिश्तेदार बाद में ढूंढ़ने पर मिले, कुछ लोग अभी भी नहीं मिले हैं। हमारे कुछ रिश्तेदार अभी वर्धमान और चौबीस परगना (पश्चिम बंगाल) में हैं। उस समय भागते वक्त सब छूट गए थे।'

तारामती सत्तर के दशक में पूर्वी बंगाल से भारत आईं थी। पलायन करते वक्त उनके दुधमुंहे बच्चे को बुखार हो गया था। इलाज के अभाव में कैम्प में उस बच्चे की मृत्यु हो गई।

तारामती बताती हैं कि वह नाव के सहारे पहले पूर्वी पाकिस्तान से भारत आईं। फिर उन्हें ट्रांजिट कैम्प में रखा गया। बुखार की वजह से कैम्प में ही उनके बेटे की मौत हो गई। भावुक होकर वह बताती हैं, 'जिसे हम उतनी दूर से बचा कर लाए थे, वह बेटा ही मर गया। हमें बहुत कष्ट हुआ था। लेकिन, क्या करते। हमारे बस में कुछ भी नहीं था। अभी तीन बेटे हैं, जो इस गांव में आने के बाद हुए।'

'रवींद्रनगर ही अब हमारी कर्मभूमि'

बासठ साल के प्रधान प्रतिनिधि प्रशांत ढाली बताते हैं कि 1971 में जब वह भारत आए तो उनकी उम्र महज बारह साल थी। वह अपने माता-पिता और भाई के साथ आए थे, लेकिन उनके बाबा और बाबा के पांच भाई वहीं छूट गए थे। ढाली कहते हैं, 'वह सब याद करके अभी भी मेरे रोंगठे खड़े हो जाते हैं। मैं तब केवल बारह वर्ष का था।' प्रशांत बताते हैं कि उन्हें अब 'उधर' वापस भी नहीं जाना। वह रवींद्रनगर को अपनी कर्म भूमि और भविष्य की पीढ़ी की जन्म भूमि बताते हैं।

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