गांव या शहर, कहां होते हैं ज्यादा सड़क हादसे और क्या हैं वजहें?

हैरान करने वाली बात यह है कि देश में तेज रफ्तार से गाड़ी चलाने के मामले साल दर साल बढ़ते जा रहे हैं, जबकि इस पर सरकार की ओर से रोक लगाने की रफ्तार उतनी ही धीमी है।

Kushal MishraKushal Mishra   27 Feb 2020 7:22 AM GMT

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गांव या शहर, कहां होते हैं ज्यादा सड़क हादसे और क्या हैं वजहें?लखनऊ के ट्रॉमा सेंटर में आकस्मिक चिकित्सा कक्ष के बाहर मरीजों को लेकर आए परिजनों को इलाज कराने के लिए करना पड़ता है इंतजार। फोटो : कुशल मिश्र

"आप यह समझ लीजिए कि ट्रॉमा में हर रोज गांवों से एक्सीडेंट के करीब 45 फीसदी मामले आते हैं। अभी कल ही एक एंबुलेंस आकर रुकी थी, किसी गांव में एक लड़के का एक्सीडेंट हो गया था, उसकी टांग अलग से थैले में लाई गई थी, देखता हूं तो कलेजा धरा रह जाता है। गांवों में बहुत एक्सीडेंट होते हैं, शहरों से भी ज्यादा, ट्रॉमा सेंटर में आकर देखिए, पता चल जाएगा," शिव कुमार यादव 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं।

शिव कुमार (34 वर्ष) देश के सबसे बड़े और सड़क दुर्घटनाओं में मौतों के मामले में अव्वल राज्य उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के ट्रॉमा सेंटर के मेन गेट पर सिक्योरिटी गार्ड के तौर पर तैनात हैं।

देश के ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों से ज्यादा सड़क दुर्घटनाओं को लेकर नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट भी गवाही दे रही है। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2016 में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 55.5 % (2,62,750 मामले) सड़क दुर्घटनाएं सामने आई थीं, जबकि शहरों में यह आंकड़ा 44.50 % (2,10,300 मामले) का रहा।

इसी तरह वर्ष 2015 में ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क दुर्घटनाएं 54.9 % (2,54,878 मामले) रहीं, जबकि शहरों में 45.1 % (2,09,796 मामले) सड़क दुर्घटनाएं हुईं। जबकि वर्ष 2014 में ग्रामीण क्षेत्रों में 54.7 फीसदी (2,46,768) मामले सामने आए और शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 45.3 % (2,04,130) रहा।

शिव कुमार बताते हैं, "ट्रॉमा सेंटर में रात नौ बजे के बाद तो जैसे एंबुलेंस की लाइन लग जाती है। गांव वालों को मालूम ही नहीं रहता है कि अस्पताल में दिखाना कहां है, ट्रॉमा में इतनी भीड़ देखकर उनकी खुद सांसें फूल जाती हैं। हम लोग भी जैसे-तैसे उनकी मदद करते हैं, मगर गांव से एक्सीडेंट के हर रोज बहुत मामले आते हैं।"

लखनऊ के ट्रॉमा सेंटर के मेन गेट के बाहर टेंट में रहने को मजबूर होते हैं मरीजों के परिजन। जगह न होने पर टेंट के बाहर भी सड़क पर बनाते हैं अपना आसरा। फोटो : कुशल मिश्र

'ज्यादातर दुर्घटनाएं तेज रफ्तार से गाड़ी चलाने की'

"गांवों से हर रोज करीब 30-40 प्रतिशत मामले सड़क दुर्घटनाओं के मामले सामने आते हैं। इनमें ज्यादातर मामले ओवर स्पीडिंग (तेज रफ्तार से गाड़ी चलाना) और सड़क पर गलत दिशा में तेज गाड़ी चलाने के होते हैं। गांवों से जुड़े ऐसे मामले ज्यादातर पॉली ट्रॉमा के होते हैं यानी हेड इंजरी के साथ कई जगह फ्रैक्चर्स होते हैं। ऐसे मामले ज्यादा संवेदनशील भी होते हैं," किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के ट्रॉमा सर्जरी विभाग के प्रमुख डॉ. संदीप तिवारी 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं।

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सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय (एमओआरटीएच) की वर्ष 2018 रिपोर्ट के अनुसार देश में सड़क दुर्घटनाएं बढ़ रही हैं। वर्ष 2018 में भारत में जहां 4,67,044 सड़क दुर्घटनाएं दर्ज की गईं, वहीं वर्ष 2017 की 4,64,910 सड़क दुर्घटनाओं की तुलना में इसमें 0.5% की वृद्धि हुई।

रिपोर्ट में सामने आया कि करीब 64 प्रतिशत सड़क हादसे ओवर स्पीडिंग यानी तेज रफ्तार से गाड़ी चलाने के कारण हो रहे हैं। देश में वर्ष 2018 में 4,67,044 सड़क हादसों में तीन लाख से ज्यादा (3,10,612) मामले ओवर स्पीडिंग के रहे, जिसमें करीब एक लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई।

साल दर साल बढ़ रहे ओवर स्पीडिंग के मामले

हैरान करने वाली बात यह है कि देश में तेज रफ्तार से गाड़ी चलाने के मामले साल दर साल बढ़ते जा रहे हैं, जबकि इस पर सरकार की ओर से रोक लगाने की रफ्तार उतनी ही धीमी है।

सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार साल 2015 में देश में जहां 2.40 लाख से ज्यादा तेज गति से गाड़ी चलाने पर सड़क हादसों के मामले सामने आए, वहीं वर्ष 2016, 2017 और 2018 में यह आंकड़ा क्रमश: 2.68 लाख, 3.27 लाख और 3.10 लाख से ज्यादा रहे। यानी वर्ष 2018 में बहुत कम सुधार के साथ तेज गति से गाड़ी चलाने पर सड़क दुर्घटनाओं के मामले साल दर साल बढ़े हैं।

पिछले साल देश में सड़क दुर्घटनाओं में हुई मौतों के मामले में उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र के बाद चौथे स्थान पर मध्य प्रदेश रहा।

'ग्रामीणों को नहीं होती सड़क पर नियमों की जानकारी'

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में डीआईजी (ग्रामीण) डॉ. आशीष 'गाँव कनेक्शन' से फोन पर बताते हैं, "ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादातर एक्सीडेंट्स हाइवे पर होते हैं, मुश्किल यह है कि गांव के लोगों को हाइवे पर सड़क के नियमों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती है। शहरों में तो हम ओवर स्पीडिंग को रोकने के लिए गाड़ियों में जैसे स्कूल बसों में स्पीड राडार लगा रहे हैं, मगर गांवों में उतना प्रभावी रूप से नहीं हो पाता है।"

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"मगर हम गांवों में ओवर स्पीडिंग को रोकने के लिए लगातार कोशिश कर रहे हैं। हमने ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों में डार्क स्पार्ट्स चिन्हित कर रखे हैं और रोड इंजीनियरिंग के अनुसार उसे सही भी करा रहे हैं। इसके अलावा हाइवे पर चेतावनी के लिए साइन बोर्ड लगा रहे हैं। हमारी टीम भी समय-समय पर किसानों और ग्रामीणों को मंडी और गांवों में जाकर जागरूक कर रहे हैं," डॉ. आशीष कहते हैं।

स्पीड राडार लगे, फिर भी हाइवे पर बढ़ीं ओवर स्पीडिंग से दुर्घटनाएं

सुप्रीम कोर्ट के वकील केसी जैन की एक आरटीआई के जवाब में सामने आया कि यमुना एक्सप्रेस वे पर अगस्त 2012 से लेकर मार्च 2018 तक 4,956 सड़क दुर्घटनाएं हुईं। इन हादसों में 700 से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गंवाई और 7,671 से ज्यादा लोग गंभीर रूप से घायल हुए।

जवाब में यह भी बताया गया कि इस दौरान करीब 2.33 करोड़ वाहनों ने हाइवे पर गति सीमा का उल्लंघन किया। इस एक्सप्रेस वे पर 23.42 प्रतिशत सड़क दुर्घटनाएं तेज गति से गाड़ी चलाने के कारण हुईं जबकि यमुना एक्सप्रेस वे पर बकायदा उचित स्पीड राडार, कैमरे और सेंसर्स लगे हुए हैं। ऐसे में फिर भी ओवर स्पीडिंग पर लगाम नहीं लग पा रही है।

'ओवर स्पीडिंग की रोकथाम में शहरों की ही हालत ख़राब'

सड़क सुरक्षा और गरीबों के चिकित्सा उपचार पर लंबे समय से काम कर रही संस्था 'सेव ए लाइफ फाउंडेशन' के संस्थापक पीयूष तिवारी फोन पर 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "ओवर स्पीडिंग को रोकने के लिए गांव तो छोड़ ही दीजिए, ज्यादातर शहरों की ही हालत काफी ख़राब है। कई शहरों में अभी प्रयोगात्मक तौर पर कैमरे लगाए जा रहे हैं, वे भी शहर के मुख्य चौराहों पर, मगर ओवर स्पीडिंग पर लगाम लगाने के लिए अभी पूरी तरह से तैयारी नहीं है।"

पीयूष यह भी कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि ट्रैफिक पुलिस के पास ओवर स्पीडिंग को रोकने के लिए पर्याप्त उपकरण नहीं हैं, मगर उनका इस्तेमाल नहीं होता है और रखे-रखे धूल खाते रहते हैं।"

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की बात करें तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ओवर स्पीडिंग से बढ़ती घटनाओं को लेकर इसी साल जून माह में कैबिनेट बैठक में जिलों में स्पीड राडार लगाने के आदेश दिये थे।

इस बारे में लखनऊ में पुलिस अधीक्षक यातायात पूर्णेन्दु सिंह 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "दुर्घटनाओं में ओवर स्पीडिंग को रोकना बड़ा मुद्दा है। अभी लखनऊ में पांच प्रमुख चौराहों पर स्पीड राडार लगाने का काम प्रस्तावित है और जल्द ही ओवर स्पीडिंग के चालान इससे होने शुरू होंगे। फिलहाल अभी हम पोर्टेबल हैंड स्पीड राडार से ओवर स्पीडिंग को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे हैं। मगर अभी ज्यादातर चालान हेल्मेट न पहनने के ही होते हैं।"

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वहीं गांवों में ओवर स्पीडिंग पर लगाम लगाने के सवाल पर पूर्णेन्दु सिंह कहते हैं, "स्थानीय ग्रामीण पुलिस के पास लॉ एंड ऑर्डर से जुड़ा इतना काम होता है कि वे इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाते हैं। मगर जैसे शहर में स्पीड गन जैसे उपकरणों की सुविधा है, वैसे ग्रामीण पुलिस भी सर्किल मुख्यालय से मंगा सकती है।"

पुलिस अधीक्षक के बयान में भारत के ग्रामीण यातायात की सच्चाई छिपी है। ग्रामीण इलाकों में थानों का क्षेत्रफल तो ज्यादा होता ही है, जनता के अनुपात में पुलिसकर्मियों की संख्या अक्सर कम ही होती है। ऐसे में ज्यादातर पुलिस बल कानून व्यवस्था में ही लगा रहता है।

पीयूष तिवारी आगे बताते हैं, "यातायात के बेहतर क्रियान्वयन के लिए यह जरूरी नहीं है कि वहां पर पुलिस लगी हो, लोगों में डर होना चाहिए, अगर हमें ओवर स्पीडिंग पर रोक लगानी है तो तीन चीजें हमें माननी ही पड़ेंगी, पहली मानवों की आंखों से बेहतर कैमरे की आंखें हैं, जो हर चीज पकड़ सकती है। दूसरा, कैमरा कभी घूस नहीं लेता और तीसरा, कैमरा रात में कभी 09 बजे घर नहीं जाता और 24 घंटे काम करेगा। इसलिये यह सुविधाएं सही होंगी तो शहरों में भी स्थिति सुधर सकेगी।"

राज्यों में है ट्रैफिक पुलिस कर्मचारियों की भारी कमी

राज्यों में ट्रैफिक पुलिस कर्मचारियों की बड़ी कमी भी एक बड़ी समस्या के रूप में सामने खड़ी है। ऐसे में यह भी एक बड़ा सवाल है कि जब शहरों में ही स्थिति संभालनी मुश्किल है तो गांवों में ग्रामीणों को जागरूक करने के लिए क्या पहल की जा सकेगी?

भोपाल में डीआईजी (ग्रामीण) डॉ. आशीष बताते हैं, "हमारे विभाग में अभी भी 20 प्रतिशत से ज्यादा ही ट्रैफिक पुलिस कर्मचारियों की कमी है। ऐसे में जितना शहरों में हम कर पाते हैं, उतना गांवों में प्रभावी रूप से नहीं कर पाते। यह भी एक बड़ी समस्या रहती है।"

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लखनऊ के पुलिस अधीक्षक यातायात पूर्णेन्दु सिंह बताते हैं, "हाल में प्रशासन की ओर से एक अध्ययन किया गया, जिसमें सामने आया कि लखनऊ में यातायात विभाग में 3500 ट्रैफिक पुलिस कर्मचारी होने चाहिए, मगर आप देखिये कि हमारे पास कुल 500 कर्मचारी हैं अगर हम 300 होम गार्ड भी जोड़ लें तो सिर्फ 800 हैं।"

"मान लीजिए हमारे पास 800 भी कर्मचारी हैं तो उनमें से वीआईपी और डबल शिफ्ट ड्यूटी के बाद 350 कर्मचारी अपने-अपने क्षेत्र में होते हैं। हमारे पास ट्रैफिक पुलिस कर्मचारियों की कई सालों से कमी रही है, दिक्कत यह भी है कि चौराहों पर तकनीक उपयोग होने के बावजूद भी लोगों का ट्रैफिक नियमों की समझ ऐसी होती है कि फिर भी हमें पुलिस कर्मचारियों की जरूरत होती है," वह आगे जोड़ते हैं।

ड्राइविंग लाइसेंस के प्रशिक्षण में भी कमी


सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय की वर्ष 2018 की रिपोर्ट के अनुसार सड़क दुर्घटनाओं में शामिल रहे 26 % ड्राइवरों के पास वैध ड्राइविंग लाइसेंस नहीं था।

सेव ए लाइफ फाउंडेशन संस्था के संस्थापक पीयूष तिवारी बताते हैं, "यदि आप कुछ लोगों से पूछिये कि क्या आपको थ्री सेकेंड रूल, ब्लाइंड स्पॉट या फिर 65 यार्ड रूल के बारे में पता है तो शायद ही किसी को मालूम होगा। ड्राइविंग लाइसेंस की प्रक्रिया इतनी कमजोर है कि ज्यादातर लोग जो सड़कों पर, हाइवे पर गाड़ी चलाते हैं, उनको प्रशिक्षण ही नहीं मिलता है। अगर आपको यातायात व्यवस्था सुधारनी है तो आपको यातायात के नियमों को लेकर लोगों को बाध्य करना ही होगा।"

उनके मुताबिक हादसे रोकने हैं तो लोगों को जागरूक होने सबसे पहली जरूरत है। इसके लिए उनका खुद का आजमाया एक नुस्खा है जिसे वो चाहते हैं, हर जगह लागू किया जाए। " जागरुकता के लिए स्कूल स्तर पर बच्चों को अस्पताल ले जाया जाए, उन्हें बताया जाए कि अगर तेज गाड़ी चलाओगे तो क्या होता है, पर ऐसे जागरुकता अभियान अपने देश में नहीं होते हैं। वहीं ऐसे अभियान जर्मनी में होते हैं, जहां अगर आपको ओवर स्पीडिंग होते पकड़ा गया तो आपको पूरा एक दिन ट्रॉमा सेंटर में सड़क दुर्घटना में घायल हुए मरीजों के साथ बिताना पड़ेगा, तो जब वे देखते हैं तो उनका व्यवहार बदलता है," पीयूष बताते हैं।

बढ़े जुर्माना का दिखा असर, शराब पीकर गाड़ी चलाने में आई कमी

हाल में मोटर वाहन अधिनियम पर संशोधन कर कई राज्यों में नये जुर्माने का प्रावधान लागू किया गया। कई राज्यों ने इसे लागू किया और कई राज्यों ने जुर्माने और सजा में कोई बदलाव नहीं किया।

जिन राज्यों में नये मोटर वाहन अधिनियम को लागू किया गया, वहां जुर्माने की रकम में बढ़ोतरी, क़ानूनों का बेहतर क्रियान्वयन और ज़्यादातर मेट्रो शहरों में इस मुद्दे को अधिक मीडिया कवरेज मिलने से स्थिति में काफी सुधार देखने को मिला है। विशेषज्ञों ने माना है कि वर्ष 2017 से 2018 के बीच ड्रंक एंड ड्राइव मामले में 14 प्रतिशत तक कमी दिखी है।

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इस नये मोटन वाहन कानून के तहत शराब पीकर सड़क पर गाड़ी चलाने पर 10,000 रुपए तक का जुर्माना या छह महीने की जेल हो सकती है, या दोनों को सजा हो सकती है। जबकि इससे पहले अधिनियम में पहली बार ऐसा अपराध करने पर सिर्फ 2000 रुपए का जुर्माना या छह महीने की जेल का प्रावधान था।

उत्तर प्रदेश में यह नया नियम लागू किया गया, इस बारे में लखनऊ के एसपी ट्रैफिक पूर्णेन्दु सिंह ने बताया, "नये कानून से बहुत ज्यादा फर्क पड़ा और विभाग की ओर से लगातार जागरुकता अभियान के साथ शराब पीकर गाड़ी चलाने पर चालान किये गये। सिर्फ अक्टूबर महीने में लखनऊ में 2500 तक चालान किये गये। ऐसे में लोगों में पकड़े जाने और जुर्माने का डर बैठा और अब नवंबर में अभी तक ड्रंक एंड ड्राइव मामले में कोई भी चालान नहीं कटा है। लोग समझ रहे हैं और जागरूक हो रहे हैं।"

वहीं भोपाल में ड्रंक एंड ड्राइव के जुर्माना राशि में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई। इस पर डीआईजी (ग्रामीण) डॉ. आशीष ने बताया, "ड्रंक एंड ड्राइव अभी भी हमारे लिए चुनौती है। यहां पर नया कानून नहीं लागू हुआ, वही जुर्माना निर्धारित है। फिर भी हम ड्रंक एंड ड्राइव पर लगातार चेकिंग कर चालान कर रहे हैं और इस पर जागरुकता भी फैलाई जा रही है।"

दिल्ली : ओवर स्पीडिंग पर लगाम लगाने की एक अच्छी पहल


सड़कों पर ओवर स्पीडिंग पर लगाम लगाने के लिए देश की राजधानी दिल्ली में एक अच्छी पहल की गई। दिल्ली में नये मोटर वाहन अधिनियम को लागू किया गया और ओवर स्पीडिंग से सड़क हादसों को रोकने के लिए चौराहों, फ्लाइओवर्स पर बड़ी संख्या में स्पीड डिटेक्शन कैमरे लगाये गये। इससे ओवर स्पीडिंग और रैश ड्राइविंग (बार-बार तेज गति लेकर और ब्रेक का इस्तेमाल कर गाड़ी चलाना) पर लगाम लगाने की तैयारी की गई।

दिल्ली ट्रैफिक पुलिस की ओर से सड़कों पर ओवर स्पीड गाड़ी चलाने पर बड़ी संख्या में चालान काटे गये। इतना ही नहीं, ट्रैफिक पुलिस ने तय गति का उल्लंघन करने पर एक ही दिन में तीन-तीन बार भी एक ही व्यक्ति के चालान काटे। स्पीड डिटेक्शन कैमरों द्वारा फोटो के साथ चालान वाहन चालकों के घर पर पहुंचाए गए और उनके चालान का निस्तारण कोर्ट के द्वारा किया गया।

ऐसे में वर्ष 2018 में जहां ओवर स्पीडिंग के तहत ट्रैफिक पुलिस ने सितंबर महीने में 13,281 चालान काटे थे, वहीं वर्ष 2019 में ये चालान घटकर 3,366 हो गये।

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सेव ए लाइफ फाउंडेशन के संस्पाक पीयूष तिवारी बताते हैं, "दिल्ली में ओवर स्पीडिंग को रोकने के लिए बेहतर प्रयास किया गया। जहां दिल्ली में पहले सिर्फ 12 कैमरे लगे थे, अब 150 से ज्यादा आधुनिक कैमरे लगाये गए। कड़े नियमों का सख्ती से पालन किया गया और उसका लोगों पर असर भी दिखाई दिया।"

पीयूष कहते हैं, "मुश्किल यह है कि अभी ओवर स्पीडिंग को रोकने के लिए और शहरों के पास यह सुविधा नहीं पहुंची है, अगर पहुंची है तो काम नहीं हो रहा है। जैसे हैदराबाद, कोलकाता में प्रयोगात्मक तौर पर ही कैमरे लगाए गए हैं, मगर सड़क हादसों के बढ़ते आंकड़ों को देखते हुए शहरों में तेज गति वाहनों को रोक पाने में हम अभी बहुत कमजोर हैं। ऐसे में जब शहरों में ही व्यवस्था कमजोर है तो ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति सुधरना अभी बहुत दूर की कौड़ी है।"

ख़बर मूलरूप से दिसंबर 2019 में प्रकाशित हुई थी।

     

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