“मैं एक झोलाछाप डॉक्टर हूं, लेकिन मुसीबत के समय में ग्रामीणों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहता हूं”

कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर ने ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की बदहाली को उजागर कर दिया है। ऐसे समय में ग्रामीण कई तरह की बीमारियों के इलाज के लिए झोलाछाप डॉक्टरों पर भरोसा जता रहे हैं। मिलिए राजेश कुमार से, जो उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में एक 'क्लीनिक' चलाते हैं।
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बाराबंकी (उत्तर प्रदेश)। गांव के लोग उन्हें ‘डॉक्टर साहब’, ‘डॉक्टर भैया’, या यहाँ तक कि ‘डॉक्टर चाचा’ भी कहकर पुकारते हैं। ग्रामीण उन्हें हमेशा से जानते हैं और वे ग्रामीणों के लिए आसानी से उपलब्ध हैं। किसी भी तरह की सामान्य बीमारी की स्थिति में ग्रामीण उनकी मदद लेते हैं।

हालांकि, वे एक नियमित, ‘एमबीबीएस’ डॉक्टर नहीं हैं। वे एक अच्छे फार्मासिस्ट हैं, या शायद एक कंपाउंडर या ऐसे व्यक्ति हैं जो सामान्य सर्दी, बुखार या खांसी के इलाज के बारे में पर्याप्त जानकारी रखते हैं। वे घरेलू नुस्खों के बारे में भी सलाह दे सकते हैं।

हम बात कर रहे हैं ऐसे ‘डॉक्टरों’ की जिनके भरोसे कई जगहों पर आज भी ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था चल रही है। राजेश कुमार एक ऐसे ही ग्रामीण चिकित्सक या ‘डॉक्टर’ हैं, जिन्हें अक्सर ‘झोलाछाप’ (क्वैक) कहा जाता है।

देश की ग्रामीण स्वास्थ्य प्रणाली की हालत ज्यादा अच्छी नहीं है और ग्रामीणों को औपचारिक स्वास्थ्य व्यवस्था में बहुत कम विश्वास है। वहीं, महामारी के दौरान ग्रामीण भारत के लोग कुमार जैसे झोलाछाप डॉक्टरों पर अधिक भरोसा जता रहे हैं।

उत्तरप्रदेश के बाराबंकी जिले के एक छोटे से शहर में एक ‘क्लीनिक’ चलाने वाले कुमार कहते हैं, “वे हमें जो चाहें बुला सकते हैं, लेकिन भगवान जानते हैं कि महामारी के दौरान हम में से कितने झोलाछापों ने बीमारों की सेवा के लिए दिन-रात काम किया है।”

उनके मुताबिक, कई डॉक्टरों ने कोरोना वायरस के डर से अपनी निजी प्रैक्टिस बंद कर दी है और बड़े-बड़े निजी अस्पताल कोविड-19 के केंद्र बन गए हैं। कुमार कहते हैं, “ऐसे समय में ग्रामीण हमारे पास आ रहे हैं और हम उनके इलाज में अपना पूरा ज़ोर लगा रहे हैं।”

कुमार करीब दस साल से अपना छोटा सा क्लीनिक चला रहे हैं। 46 वर्षीय कुमार कहते हैं, “मैंने इतने सारे लोगों को बीमार पड़ते कभी नहीं देखा। दूसरी लहर में, पूरा गांव सर्दी, खांसी और बुखार से प्रभावित था।

महामारी के दौरान ग्रामीण भारत के लोग कुमार जैसे झोलाछाप डॉक्टरों पर अधिक भरोसा जता रहे हैं।

मरीजों से परामर्श शुल्क के तौर पर 20 रुपए चार्ज करने वाले कुमार ने आगे कहा, “आमतौर पर, मैं एक दिन में दस से बीस रोगियों को देखता था, लेकिन दूसरी लहर में ऐसे दिन भी आए जब मेरे क्लीनिक में हर दिन लगभग सौ मरीज आते थे।”

ग्रामीण चिकित्सक के मुताबिक महामारी से पहले वह प्रतिदिन औसतन 200 रुपये से 400 रुपये तक कमाते थे, लेकिन अब वह आसानी से प्रतिदिन 800 रुपये तक कमा लेते हैं।

बढ़ गए हैं काम

राजेश कुमार सुबह 7 बजे अपना क्लीनिक खोलते हैं। क्लीनिक खुलते ही मरीज आने लगते हैं। उनका क्लीनिक रात 11 बजे तक दिन में 16 घंटे खुला रहता है। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “कभी-कभी लोग पहले से ही मेरा इंतजार कर रहे होते हैं।”

कुमार पैदल चलकर अपने क्लीनिक जाते हैं क्योंकि यह उनके घर से बिल्कुल पास में है। 28 मई को गाँव कनेक्शन की टीम ने जब कुमार से उनके क्लीनिक में मुलाकात की, तो दो महिलाएँ मेज के बगल में एक चौड़ी बेंच पर अपने पैर ऊपर करके बैठी हुई थीं, और डॉक्टर की प्रतीक्षा कर रही थीं।

राजेश कुमार ने कहा, “मैं देर से घर जा पाता हूं और कभी-कभी भोजन या एक कप चाय के लिए भी समय नहीं मिल पाता है।” कई बार ऐसा भी होता है कि किसी के अचानक बीमार हो जाने पर उन्हें आधी रात को जागना पड़ता है।

क्लीनिक में दो महिलाएं बैठी अपनी बारी का इंतजार कर रही थीं।

ग्रामीण चिकित्सक ने बताया कि महामारी के दौरान, लगभग हर घर में परिवार का कोई ना कोई सदस्य बुखार, खांसी या सर्दी से बीमार था। कुमार कहते हैं, “प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र केवल कोविड रोगियों पर ही ध्यान दे रहे थे। यहां तक कि जिला अस्पताल के बाह्य रोगी विभाग में भी अन्य मरीजों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा था।”

क्लीनिक छोटा होने की वजह से नहीं रख पाते शारीरिक दूरी का ध्यान

गांव से लगातार बड़े पैमाने पर मरीज आ रहे थे, उनमें से कुछ लोगों को गले में खराश की शिकायत थी, तो कोई कह रहा था कि उन्हें सिर दर्द है। इसके अलावा कई लोग मामूली जलने और फोड़े-फुंसियों का इलाज कराने के लिए वहां आ रहे थे। कुमार ने कहा कि देश में हर किसी की तरह उन्हें भी कोरोना महामारी से डर लगता है।

उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “मेरे दिमाग में हमेशा यही चिंता रहती है कि संक्रमण मेरे साथ घर ना जा पाए।” उनका कहना है कि बड़े अस्पतालों और क्लीनिकों में महामारी के चलते डॉक्टर मरीज को एक सुरक्षित दूरी बनाकर देखते हैं, लेकिन उनका क्लीनिक काफी छोटा है, इसलिए वहां इसकी कोई गुंजाइश नहीं है। उनके क्लीनिक में एक छोटा सा कमरा है जहां मेज रखा हुआ है, उसके ठीक पीछे एक संकरी जगह है, जहां वे अपने मरीजों की जांच करते हैं।

महामारी में, ग्रामीणों ने कई तरह की बीमारियों के इलाज के लिए झोलाछाप डॉक्टर पर भरोसा जताया।

राजेश कुमार की पत्नी छह माह की गर्भवती हैं। कुमार कहते हैं, “इस वजह से, मैं घर के बाहर एक अलग कमरे में, परिवार से दूर रहता हूं। टेलीविजन, रेडियो और अखबारों में कोविड रोगियों का इलाज करने वाले डॉक्टरों के मरने से संबंधित खबरों को नजरअंदाज करना मुश्किल है।”

झोलाछाप डॉक्टर पर क्यों भरोसा करते हैं ग्रामीण

कुमार ने कहा, “मुझे याद नहीं है कि आखिरी बार मैं दरवाजे पर दस्तक के बिना पूरी रात आराम से कब सोया था।” यह कहते हुए कुमार अपनी अगली मरीज राजकुमारी से उनकी तबीयत पूछने के लिए मुड़े। राजकुमारी धैर्यपूर्वक अपनी बारी का इंतजार कर रही थीं।

पास के सौरंगा गांव की रहने वाली 60 वर्षीय राजकुमारी ने डॉक्टर को बताया, “मैं बुखार के लिए अपनी दवा लेने आई हूं।” उन्होंने गांव कनेक्शन से कहा, “मेरे परिवार में जब भी कोई बीमार पड़ता है, हम हमेशा यहां आते हैं। इतने सालों से डॉक्टर ने जो भी दवा दी है, उसने हमें कभी नुकसान नहीं पहुंचाया।”

राजेश कुमार सुबह 7 बजे अपना क्लीनिक खोलते हैं और सुबह से लोग आने लगते हैं। 

डॉक्टर की दवाओं को पकड़कर क्लीनिक से निकलते हुए राजकुमारी ने गांव कनेक्शन से कहा, “हमारे पास शहर के बड़े अस्पताल या निजी क्लीनिक में जाने के लिए पैसे नहीं हैं? यहां 10 से 50 रुपए में ही मेरा काम हो गया। अगर कहीं और जाती तो वहां पहुंचने में ही मेरे काफी पैसे खर्च हो जाते।”

उसी गांव की अनु सोनी ने गांव कनेक्शन को बताया, “आधी रात को भी हमें यहां आने में संकोच नहीं करना पड़ता। हमारे पास बड़े डॉक्टर के पास जाने के लिए पैसे नहीं हैं। हम उन्हें दो से 300 रुपये देने के लिए पैसे कहाँ से लाएं।”

सोनी अपने बेटे के दस्त का इलाज करने के लिए दवा लेने आई थी। सोनी ने बताया कि आठ साल पहले जब उसके बेटे का जन्म हुआ था, तब से राजेश कुमार ही उनके परिवार का इलाज कर रहे हैं।

झोलाछाप डॉक्टरों पर ग्रामीणों का यह भरोसा केवल कुमार या उत्तरप्रदेश के अन्य ग्रामीण चिकित्सकों तक ही सीमित नहीं है। मध्यप्रदेश के झाबुआ में ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन द्वारा हाल ही में 300 उत्तरदाताओं के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 38 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने इलाज के लिए झोलाछाप डॉक्टरों को प्राथमिकता दी, जिन्हें आमतौर पर नाड़ी बाबा के नाम से जाना जाता है।

जॉर्ज इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ, इंडिया, नई दिल्ली में एक वरिष्ठ रिसर्च फेलो विकास आर केशरी ने हाल ही में गांव कनेक्शन के लिए लिखा था, “ग्रामीण चिकित्सक नियमित स्वास्थ्य देखभाल की जरूरतों या किसी भी छोटी आपात स्थिति के लिए ग्रामीणों की पहली पसंद होते हैं। शहरी क्षेत्र में औपचारिक निजी प्रदाताओं को भी अक्सर पसंद किया जाता है।”

इस बीच, दूसरी लहर के कम होने के बावजूद कुमार थोड़े चिंतित हैं। वे कहते हैं, “मैं महामारी के दिनों को कभी नहीं भूलूंगा। मैं नहीं भूल सकता कि कैसे इस महामारी ने मेरी रातों की नींद हराम कर दी है। वे कहते हैं कि मरीज आधी रात को मेरे दरवाजे पर दस्तक देते हैं, मैं ठीक से दो वक्त का खाना भी नहीं खा पाता। आत्मविश्वास से भरे हुए कुमार कहते हैं, “मैं एक झोलाछाप हो सकता हूं, लेकिन मैं अपने साथी ग्रामीणों को उनके संकट के समय में मदद के लिए हमेशा तैयार रहता हूं।”

डॉक्टरों के कहने पर खबर में सभी के नाम बदल दिए गए हैं

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