सफलता की ओर करवट लेती किसान राजनीति

Arvind Kumar SinghArvind Kumar Singh   14 March 2018 3:17 PM GMT

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सफलता की ओर करवट लेती किसान राजनीतिमहाराष्ट्र में किसान आंदोलन के सामने झुकी सरकार।

महाराष्ट्र के किसानों के अनूठे पैदल मार्च ने देवेंद्र फड़नवीस सरकार को इतना हिला कर रख दिया कि उनकी मांगों को आनन-फानन में मान लिया गया। बेहद अनूठे अंदाज में नासिक से 180 किमी की पैदल यात्रा करते हुए किसान धरनास्थल पर रात में पहुंचे ताकि वहां के नागरिकों और बोर्ड परीक्षार्थियों को कोई परेशानी न हो। मुंबईवासियों ने भी उनका अनूठा स्वागत सत्कार किया और उनके खाने पीने तक का ख्याल रखा।

किसानों के तेवर को देख कर सरकार पहले ही हरकत में आ गयी। किसान अपनी पूर्व योजना के तहत विधान सभा के घेऱाव करें इससे पहले ही आल इंडिया किसान सभा के प्रतिनिधियों से बात कर उनकी खास मांगों को लिखित तौर पर स्वीकार लिया गया। पांवों में छाले भले पड़ गए हों लेकिन करवट लेती किसान राजनीति की यह अनूठी सफलता है। इसके पहले तमिलनाडु के किसानों ने दिल्ली में अनूठे करतबों के सहारे किसानों की बेहाली को लेकर देश भर का ध्यान खींचा था।

लेकिन महाराष्ट्र के किसान अपने घरों तक भी नहीं पहुंचे होंगे कि दिल्ली में बड़ी संख्या में किसानों ने भारतीय किसान यूनियन के बैनर तले स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने और पूर्ण कर्ज माफी की मांगों को लेकर संसद मार्ग पर अपनी एकता दिखायी। उनकी यह मांग भी है कि मौजूदा बजट सत्र में उनकी मांगों पर चर्चा हो। बिजली के बिलों की माफी और राष्ट्रीय किसान आयोग बनाने की मांग भी उनके एजेंडे पर रही।

महाराष्ट्र किसानों का आंदोलन कई मायनों में महत्वपूर्ण है।

वैसे तो इसमें नौ राज्यों के किसान थे लेकिन बड़ी संख्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब की थी। किसान नेताओं को कहना था कि अभी खेतों में गन्ना खड़ा है और मिलें लेने को तैयार नहीं हैं और न किसानों को बकाया भुगतान दे रही हैं। इसी तरह वाजिब दाम न मिलने के कारण किसानों को आलू सड़क पर फेंकना पड़ा है। किसान नेताओं ने उप राष्ट्रपति एम. वैंकेया नायडू से मुलाकात कर उनको 15 सूत्रीय मांगों पर अपना ज्ञापन भी दिया, जिसमें किसानों से जुड़े मुद्दों पर संसद का एक विशेष सत्र बुलाने की भी मांग की गयी है।

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ज्ञापन में देश में कृषि का संकट औऱ बढ़ती आत्महत्याओं का हवाला देते हुए कहा गया है कि सरकार खेती किसानी के मुद्दों पर गंभीर नहीं है, जबकि किसानों ने एनडीए सरकार को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनकी यह प्रमुख मांग है कि देश में सभी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर खरीद की गारंटी दी जाये। अभी कृषि उपज समर्थन तमाम इलाकों में एमएसपी से कम पर बिक रही है।

उप राष्ट्रपति वैंकेया नायडू को ज्ञापन सौंपते किसान नेता

इसी तरह कृषि क्षेत्र के संकट को देखते हुए किसानों को क्रेडिट कार्ड, फसली ऋण व मशीनरी हेतु पांच वर्ष के लिए शून्य ब्याज दर पर कर्ज मिले। इन मांगों में एक खास मांग यह है कि सरकार किसान परिवार की भी न्यूनतम आमदनी तय करे और इसके लिए किसान आय आयोग का गठन हो, जो यह तय करे कि किसी किसान परिवार की आमदनी सरकार के चपरासी से कम न हो। संसद मार्ग पर हुई किसानों की विशाल पंचायत में भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी नरेश टिकैत ने किसानों की प्रति सरकारी रवैये को बहुत असंवेदनशील करार दिया।

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भारतीय किसान यूनियन के बैनर तले हुई इस पंचायत में किसानों का गुस्सा साफ तौर पर दिखा। बीते साल 1 जून को महाराष्ट्र में अहमदनगर और नासिक के किसानों ने जो आंदोलन आरंभ किया था उसका दायरा बढ़ता जा रहा है। कर्ज माफी और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की व्यवस्था और फसलों का वाजिब दाम करीब सबकी मांग है। मंदसौर कांड के बाद किसानों में राष्ट्रीय स्तर पर एक नयी एकजुटता का दौर देखने को मिला। 1989 के दौरान किसानों की जो एकता बनी थी वह जल्दी ही खंडित हो गयी थी। लेकिन इस दफा आंदोलन का दायरा विस्तारित हो गया है और किसान नेतृत्व भी पहले की तुलना मे अधिक सुलझा हुआ दिख रहा है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस बार बजट में सरकार ने कई कदम उठाए हैं। बहुत सी योजनाएं चार सालों में बनी हैं लेकिन न तो कृषि संकट कम हुआ न ही किसानों की आत्महत्याएं रूकी हैं। खेती की बढ़ती लागत और घटती आय इस पूरे संकट की खास वजह है। खाद, बीज और कीटनाशकों की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। किसानों की यह आम शिकायत है कि बिचौलिया पूरे कृषि उपज खरीद तंत्र पर काबिज हैं और असली मुनाफा वे कमा रहे हैं और किसान लगातार बेहाल होता जा रहा है। किसान के बेचे उत्पाद और उपभोक्ता के खरीदे उसी उत्पाद के बीच 50 से 300 फीसदी तक का अंतर दिख रहा है।

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बीते दो दशकों में खेती बाड़ी में संपन्न पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में मालवा के साथ महाराष्ट्र जैसे इलाकों में खेती संकट आ चुका है। ऐसे में बाकी इलाकों की दशा का आकलन सहज किया जा सकता है। किसानों के इस संकट और आंदोलन का असर राज्य सरकारों पर पड़ रहा है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और पंजाब में किसानों की कर्जमाफी के साथ कई कदम उठे हैं। कर्नाटक में भी किसानों को कर्जमाफी का तोहफा मिला है। लेकिन कर्जमाफी से सबका संकट हल नहीं होगा। अगर देश भर में राज्य सरकारें कृषि ऋण माफ कर दें तो भी सेठ साहूकारों से कर्ज लेने वाले देश के दो करोड़ 21 लाख छोटे और सीमांत किसानों को कोई फायदा नहीं पहुंचेगा।

आज खेती बाड़ी के कई संकट हैं। गांवों में प्रति व्यक्ति भूमि स्वामित्व में लगातार कमी आती जा रही है। छोटे-छोटे खेतों की उत्पादकता कम है और घाटे की खेती करना लाखों छोटे किसानों की नियति बन गयी है।

कृषि को विश्व व्यापार संगठन के दायरे से बाहर करने का मसला भी तेजी से उठ रहा है। आज कृषि आयातों को नियंत्रित करने की जरूरत है। भारत में आयात बढ़ रहा है जबकि निर्यात घट रहा है। भारी सब्सिडी से तैयार आस्ट्रलिया का गेहूं, न्यूजीलैंड का डेयरी उत्पाद और कनाडा का खाद्य तेलों और दालें अगर आयातित होकर हमारे बाजारों पर छाएंगी तो हमारे किसानों की आजीविका प्रभावित होगी। ये तीनों देश इन फसलों के मुख्य निर्यातक हैं।

हाल में राजधानी में एग्रीकल्चर 2022 के नाम से हुए सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ कहा कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए सभी प्रयास किये जाएंगे। 2022 में भारत की आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मनायी जाएगी तो नए भारत में अधिक ताकतवर किसान खड़ा मिलेगा। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि अभी उसकी दशा बहुत खराब है और राज्यों की प्राथमिकताओं के आधार पर बहुत कायाकल्प होगा, ऐसी परिकल्पना दूर की कौड़ी दिखती है।

योजनाकार तमाम क्षेत्रों के जीडीपी में योगदान के आधार पर आकलन करते हैं। खेती का जीडीपी में योगदान घट कर 14 फीसदी तक पहुंच गया है लेकिन इस हकीकत से हम मुंह नहीं मोड़ सकते कि 65 फीसदी आबादी कृषि पर आधारित है। हमारे देश में दुनिया के 17.6 फीसदी लोग रहते हैं, जबकि 15 फीसदी पशुधन भी खास तौर पर देहाती अंचल में ही है। हमारी 142 मिलियन हेक्टेयर कृषि भूमि ही इतने विशाल आबादी औऱ पशुधन को जीवन दे रही है। केंद्र की योजनाएं बहुत हैं लेकिन जमीन पर पहुंचाने की मशीनरी बहुत कमजोर है। अधिकतर राज्यों की चिंता किसानों से कहीं अधिक रीयल एस्टेट बन गया है।

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यह सही है कि अभी तक सरकारी योजनाएं उत्पादन बढ़ाने पर केंद्रित थी लेकिन पहली बार किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य सरकार ने तय किया है। इस पर कई काम चल रहे हैं। खेती के साथ सहायक गतिविधियों से किसानों की आय बढ़ सकती है, लेकिन उनमें भारी निवेश की दरकार है। साथ ही हमें अनाज उत्पादन की गति को भी बनाए रखना होगा क्योंकि 2030 तक हमें 150 करोड़ आबादी के लिए अनाज जुटाना होगा।

इसमें संदेह नहीं है कि उत्पादन के नए कीर्तिमान बन रहे हैं। 2017-18 में 275 मिलियन टन खाद्यान्‍न और 300 मिलियन टन से अधिक फलों का उत्‍पादन हुआ है। लेकिन यह हकीकत भी है कि कृषि क्षेत्र भारी संकटों से जूझता दिखा है और हरियाणा तथा पंजाब जैसे संपन्न राज्यों तक में भी किसान असंतोष दिख रहा है।

आज सवाल केवल अन्न उत्पादक किसानों का ही नहीं है। जो किसान पशुपालन में आर्थिक आधार खोज रहे हैं, उनकी दशा भी कोई बेहतर नहीं है। पशु आहार और चारे की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी के बावजूद डेयरी उत्पादों को अच्छी कीमत नहीं मिल रही है। सरकार खुद मानती है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, असम और झारखंड के पास खरीद के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचा नहीं है। सरकारी खरीद मुख्यतया धान और गेहूं तक ही सीमित है।

2016-17 को सरकारी हस्तक्षेप का सबसे बेहतरीन साल माना गया जिसमें धान और गेहू उत्पादन का 33 फीसदी और दालों का 8 फीसदी सरकारी खरीद हुई। तिलहन उत्पादन की महज एक फीसदी सरकारी खरीद होती है और मोटे अनाजों की तो खरीद ही नहीं हो पाती है। असिंचित इलाकों पर सरकारी योजनाओं का ध्यान ही नहीं है, जबकि हमारा करीब 60 फीसदी इलाका मानसून पर निर्भर रहने के बावजूद कुल खाद्य उत्पादन में 40 फीसदी योगदान देता है।

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इसी इलाके से 88 फीसदी मोटा अनाज, 87 फीसदी दलहन, 48 फीसदी चावल और 28 फीसदी कपास पैदा हो रहा है। लेकिन असली सब्सिडी सिंचित इलाकों को मिल रही है। इसी नाते गैर सिंचित इन इलाको में ही सबसे अधिक आत्महत्याएं हो रही हैं क्योंकि वे घाटे की खेती से उबर नहीं पा रहे है। अगर गंगा यमुना के उपजाऊ मैदानों के संपन्न किसान गुस्से में हैं तो बारानी खेती करने वाले किसानों का गुस्सा समझ में आ सकता है।

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