सेटेलाइट मॉनिटरिंग से कम कर सकते हैं हिमालय क्षेत्र में जान-माल का नुकसान

ग्लोबल वार्मिग से जहां एक तरफ पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है तो दूसरी तरफ बढ़ते तापमान के कारण हिम ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। ऐसे में वैज्ञानिकों का कहना है कि सेटेलाइट से मॉनिटरिंग करके अचानक आने वाली बाढ़ के खतरों से बचा जा सकता है।
Himalaya

हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर झील की वजह से आने वाली बाढ़ और उससे होने वाले नुकसान को लेकर भारतीय वैज्ञानिकों ने चिंता जताई है। दरअसल आज धरती के वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा अपने अधिकतम स्तर पर पहुंच गई है। जिसके कारण संपूर्ण विश्व के सामने ग्लोबल वार्मिंग एक प्रमुख चुनौती बनकर उभर रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सेटेलाइट से मॉनिटरिंग करके अचानक आने वाली बाढ़ के खतरों से बचा जा सकता है।

ग्लोबल वार्मिग से जहां एक तरफ पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है तो दूसरी तरफ बढ़ते तापमान के कारण हिम ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। ग्लोबल वार्मिग के कारण हो रहे जलवायु परिवर्तन का खतरनाक असर हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों पर भी पड़ रहा है। इसी साल फरवरी में हुई उत्तराखंड आपदा इसका एक उदाहरण है।

इस दिशा में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) कानपुर ने भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के सहयोग से एक अध्ययन किया है, जिसके नतीजे ग्लेशियर पिघलने के कारण आने वाली बाढ़ के दौरान होने वाली मानव जीवन की क्षति को कम करने की दिशा में उपयोगी हो सकते हैं।

आईआईटी कानपुर के इस अध्ययन में यह कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से तापमान बढ़ने के साथ ही अत्यधिक वर्षा में भी बढ़ोतरी हुई है। ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद हिमालयी क्षेत्रों में सबसे ज्यादा हिमपात हुए हैं। इसके साथ ही हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघलकर नई झीलें भी बना रहे हैं। तापमान बढ़ने और अत्यधिक वर्षा से हिमालयी क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक खतरों का डर बना रहता है।

इसी अध्ययन में कहा गया है कि ग्लेशियर झील से बाढ़ का प्रकोप तब होता है जब या तो हिमाच्छादित झील के साथ प्राकृतिक बांध फट जाता है या जब झील का जल-स्तर अचानक बढ़ जाता है। जैसे 2013 में हिमस्खलन के कारण उत्तर भारत की चोराबाड़ी झील से अचानक आई बाढ़ की घटना में हुआ, जिसमे 5 हजार से अधिक लोग मारे गए थे। जलवायु परिवर्तन के साथ हिमालय क्षेत्र में इस तरह की घटनाओं के बार-बार होने की संभावना जताई गई है।

वैज्ञानिकों का कहना है कि कि मानसून के मौसम यानि जून, जुलाई और अगस्त के महीनों के दौरान पर्वतीय जल धाराओं में पिघले पानी का बहाव सबसे अधिक होता है। इसके साथ ही फरवरी में उत्तराखंड के चमोली जिले हुए हिमस्खलन के बाद गंगा, धौली गंगा की सहायक नदी में ग्लेशियर के पिघले पानी का अचानक उछाल यह बताता है कि मानसून के मौसम की समय सीमा का विस्तार करने की आवश्यकता है।

आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिकों ने इस शोध के बाद यह सुझाव दिया है कि भविष्य में ग्लेशियर झील में बाढ़ के खतरा को कम करने के प्रयासों में सेटेलाइट आधारित निगरानी स्टेशनों के नेटवर्क का निर्माण शामिल होना चहिए। जो समय रहते जोखिम और वास्तविक समय की जानकारी दे सकें। वैज्ञानिकों का कहना है कि उपग्रह नेटवर्क के साथ निगरानी उपकरणों से न केवल दूरस्थ स्थानों बल्कि घाटियों, चट्टानों और ढलानों जैसे उन दुर्गम इलाकों के बारे में भी जानकारी मिल सकेगी जहां अभी संचार कनेक्टिविटी का अभाव है।

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