'काफल' को बचा लीजिए, यह उत्तराखंड का फल ही नहीं बल्कि संस्कृति भी है

Mo. AmilMo. Amil   3 July 2019 6:47 AM GMT

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काफल को बचा लीजिए, यह उत्तराखंड का फल ही नहीं बल्कि संस्कृति भी है

उत्तराखंड। "मेरो मन कहां चैन पावै। जहाज कौ पंछी जैसे उड़ी उड़ी पुन: पुनः जहाज पै आवै॥" मैं भी फिर से अपने गांव और अपने ग्वेल देवता की शरण में जा रहा हूं। ग्वेल देवता के मंदिर के पास जो काफल के पेड़ हैं, वो मुझे ललचाते हुए पुकार रहे हैं "कहां हो, काफल खाने आओ।" शायद आपके गांव के जंगल के काफल के पेड़ भी आपको पुकार रहे होंगे। जरा अपने मन को टटोलिये, काफल खाने और ठंडा पानी पीने अपने गांव जाइए और नरेंद्र सिंह नेगी जी के अमर गीत "ठंडो ठंडो पाणी" को याद करिये।"

उत्तराखण्ड़ के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के फेसबुक पेज पर पहाड़ी फल 'काफल' को लेकर पोस्ट जरूर मिलेंगी। काफल को बचाने के लिए वह जागरूक रहते भी हैं और दूसरों को भी जागरूक करते हैं। जब वह उत्तराखंड राज्य के मुख्यमंत्री रहे तब वह काफल पार्टी का आयोजन किया करते थे। हाल ही में वह अपनी एक फेसबुक पोस्ट पर काफल को लेकर लिखते हैं कि "दो-तीन दिन पहले हल्द्वानी और रुद्रपुर में और आज देहरादून में बड़ी संख्या में काफल बेचती हुई ठेली और काफल बेचने वाले को देखकर हार्दिक प्रसन्नता हुई। जब मैंने काफल चैप्टर प्रारंभ किया था और काफल पार्टियां दी थी तो लोगों को कोतुहल हुआ, लोगों ने उसमें राजनीति देखी थी। अब मैं कहना चाहता हूं कि इन काफल की ठेलियों में उत्तराखंड दिखाई दे रहा है। वन विभाग, निजी, वृक्ष पालक काफल के वृक्ष लगायेंगे तो उत्तराखंड भी हरा भरा होगा, वन्यजीवों को भी फल मिलेंगे और हमको, आपको भी सबसे सुस्वाद और अल्सर की बीमारी का इलाज करने वाला काफल का फल भी खाने को मिलेगा। थैंक्यू काफल"



यूं तो उत्तराखंड के हरे-भरे पहाड़ बहुत खूबसूरत हैं। जितने खूबसूरत यहां के पहाड़ हैं उतनी ही खूबसूरत पहाड़ की संस्कृति है। यहां इनदिनों काफल की बहार आई हुई है। कहने को यह एक जंगली फल है लेकिन अपने खट्टे-मीठे स्वाद के कारण यह पहाड़ों पर फलों के राजा के रूप में पहचाना जाता है। पहाड़ के सफर पर मई महीने से लेकर इनदिनों आपको छोटे-छोटे बच्‍चों को सड़क किनारे खड़े होकर चिल्लाते हुए दिखाई दे देंगे, 'काफल ले लो काफल'। अगर आप पहाड़ी गांवों में पहुंच गए तो आपका स्वागत काफल खिलाकर किया जाएगा। "काफल" उत्तराखंड का स्वादिष्ट और पौष्टिक फल है। यह सिर्फ फल ही नहीं बल्कि उत्तराखंड की संस्कृति का हिस्सा भी है। अगर काफल को बचाया नहीं गया तो यह फल और संस्कृति एक दिन विलुप्त हो सकती है।

उत्तराखंड में जैविक खेती को लेकर हजारों किसानों को जागरूक करने वाले नैनीताल जिले के हल्द्वानी निवासी जैविक किसान अनिल पांडे गांव कनेक्शन को बताते हैं कि "काफल एक पहाड़ों की संस्कृति को प्रदर्शित करने वाला फल है, जोकि पहाड़ों के जंगलों एवं घरों के आस-पास उगता है। काफल में बड़ी मात्रा में विटामि‍न पाए जाते हैं। जरूरत है तो इस प्रकार के फलों को संरक्षित करने की। इसमें फल आने का समय अप्रैल-मई है।

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इस फल के माध्यम से हम अपनी संस्कृति और पहाड़ों की धरोहर को प्रदर्शित कर सकते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत अपने शासन में काफल पार्टी का आयोजन कर पूरे उत्तराखंड को एक सूत्र में पिरोने का कार्य किया था जोकि अपने आप में पहाड़ों की फलों को देश-विदेश में पहचान दिलाने की एक अनूठी पहल थी। समय-समय पर इस प्रकार के कार्यक्रमों से पहाड़ की संस्कृति को संरक्षित प्रदर्शित करने से बहुत लाभ मिलेगा।"

अनिल पांडे बताते हैं कि "आजकल बाजार में काफल 400 से 500 प्रति किलो की दर से बिक रहा है और ग्राहक इस फल को हाथों हाथ खरीद रहे हैं। काफल की यह विशेषता है कि एक तो इसमें बहुत विटामिन अधिक होती है और इसके साथ-साथ इसमें फाइबर तत्व होने से यह पेट की कब्ज को भी दूर करता है। इस फल को खाने की सलाह डॉक्टर भी देते हैं।"



नैनीताल जनपद की हल्द्वानी तहसील के गांव मल्ला देवला, कुंवरपुर निवासी कृषि वैज्ञानिक नरेंद्र मेहरा गांव कनेक्शन से बात करते हुए बताते हैं कि "इतना स्वादिष्ट और पौष्टिक फल होने के बावजूद यह फल उत्तराखंड और हिमाचल के कुछ ग्रामीण इलाकों तक ही सीमित रह गया है। इससे प्रचार-प्रसार में उत्तराखंड पीछे हटता नजर आ रहा है। यह एक मौसमी फल है जो गर्मियों में पकता है, पेड़ से तोड़ने के लगभग 23-24 घंटों के बाद यह खराब होना शुरू हो जाता है। जिस कारण यह बाकी राज्यों में पहुंच नहीं पाता। अगर स्टोरेज की सही व्यवस्था की जाए तो इस औषधीय फल को बड़ी पहचान मिल सकती है।

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बहुत लोगों ने इस फल का नाम तक नहीं सुना है। काफल को बचाने के लिए नरेंद्र मेहरा बताते हैं कि "काफल एक जंगली पौधा है, यह स्वयं उगने वाला एक औषधि युक्त जंगली फल है, जिसे हम जंगली जैविक फल भी कह सकते हैं। यह फल अनेक रोगों में लाभकारी होते हैं। इसको बचाने के लिए हमारी दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। जिसमें वन विभाग, वनस्पति विभाग के साथ सरकार द्वारा इसका वृहद वृक्षारोपण किए जाने की आवश्यकता है। आज पद्धति क्षेत्रों में यह विलुप्त होने के कगार पर है और यह जंगली पशुओं पक्षियों का एक भोजन भी है। इसको बचाने के लिए सबसे उपयुक्त इसका पर्वतीय क्षेत्रों में व्यापक वृक्षारोपण होना चाहिए।"

उत्तराखंड राज्य के चम्पावत जिलें के राजकीय महाविद्यालय देवीधुरा के प्राचार्य एएस उनियाल गांव कनेक्शन को बताते हैं कि "काफल हमारा बेकार जाता है, यही काफल को यदि हम सही तरीके से उगाए, लोग इसे खेती के रूप में करें तो किसान काफी पैसा कमा सकता है, अभी तो यह केवल जंगलों में होता है।"



काफल से जुड़ी है एक मार्मिक पहाड़ी कहानी

देवभूमि उत्तराखंड के जंगलों में पेड़ो में उत्पन्न होने वाला फल "काफल" अपनी खूबियों से पर्यटकों एवम् लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। मनुष्य के शरीर को हमेशा जवान रखने वाले इस फल से जुड़ी एक पहाड़ी कहानी बहुत ही मार्मिक है। कुमाऊंनी भाषा के एक लोक गीत में तो काफल अपना दर्द बयान करते हुए कहता है, 'खाणा लायक इंद्र का, हम छियां भूलोक आई पणां।' इसका अर्थ है कि हम स्वर्ग लोक में इंद्र देवता के खाने योग्य थे और अब भू लोक में आ गए।

कहा जाता है कि उत्तराखंड के एक गांव में एक गरीब महिला रहती थी, जिसकी एक छोटी सी बेटी थी। दोनों एक दूसरे का सहारा थे। आमदनी के लिए उस महिला के पास थोड़ी-सी जमीन के अलावा कुछ नहीं था, जिससे बेमुश्किल उनका गुजारा चलता था। गर्मियों में जैसे ही काफल पक जाते, महिला बेहद खुश हो जाती थी। उसे घर चलाने के लिए एक आय का जरिया मिल जाता था। इसलिए वह जंगल से काफल तोड़कर उन्हें बाजार में बेचती।

एक बार महिला जंगल से एक टोकरी भरकर काफल तोड़ कर लाई। उस वक्त सुबह का समय था और उसे जानवरों के लिए चारा लेने जाना था। इसलिए उसने इसके बाद शाम को काफल बाजार में बेचने का मन बनाया और अपनी मासूम बेटी को बुलाकर कहा, 'मैं जंगल से चारा काट कर आ रही हूं, तब तक तू इन काफलों की पहरेदारी करना। मैं जंगल से आकर तुझे भी काफल खाने को दूंगी, पर तब तक इन्हें मत खाना।'



मां की बात मानकर मासूम बच्ची उन काफलों की पहरेदारी करती रही। इस दौरान कई बार उन रसीले काफलों को देख कर उसके मन में लालच आया, पर मां की बात मानकर वह खुद पर काबू कर बैठे रही। इसके बाद दोपहर में जब उसकी मां घर आई तो उसने देखा कि काफल की टोकरी का एक तिहाई भाग कम था। मां ने देखा कि पास में ही उसकी बेटी सो रही है। सुबह से ही काम पर लगी मां को ये देखकर बेहद गुस्सा आ गया। उसे सोचा कि मना करने के बावजूद उसकी बेटी ने काफल खा लिए हैं। इससे गुस्से में उसने घास का गट्ठर एक ओर फेंका और सोती हुई बेटी की पीठ पर मुट्ठी से जोरदार प्रहार किया। नींद में होने के कारण छोटी बच्ची अचेत अवस्था में थी और मां का प्रहार उस पर इतना तेज लगा कि वह बेसुध हो गई।

बेटी की हालत बिगड़ते देख मां ने उसे खूब हिलाया, लेकिन तब तक उसकी मौत हो चुकी थी। मां अपनी औलाद की इस तरह मौत पर वहीं बैठकर रोती रही। उधर, शाम होते-होते काफल की टोकरी फिर से पूरी भर गई जब महिला की नजर टोकरी पर पड़ी तो उसे समझ में आया कि दिन की चटक धूप और गर्मी के कारण काफल मुरझा जाते हैं और शाम को ठंडी हवा लगते ही वह फिर ताजे हो जाते हैं। अब मां को अपनी गलती पर बेहद पछतावा हुआ और वह भी उसी पल सदमे से गुजर गई।

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गरीब परिवारों के रोजी-रोटी का जरिया बना है काफल

उत्तराखंड के सफर के दौरान चम्पावत जिले में नैनीताल-देवीधुरा मार्ग पर बच्चों के झुंड गाड़ियों को रोककर कर काफल बेच रहे थे। उनसे जब पूछा तो उन्होंने बताया कि वह पहाड़ो से नीचे जंगल से काफल इकट्ठा करके लाते हैं और इन्हें यहां लाकर बेचते हैं। वह प्रतिदिन 400 से 500 रुपया कमा लेते हैं। आज भी गर्मी के मौसम में कई परिवार इसे जंगल से तोड़कर बेचने के बाद अपनी रोजी-रोटी की व्यवस्था करते हैं। खास बात है कि काफल बाहर के लोगों को खाने के लिए नहीं मिल पाता। दरअसल, काफल ज्यादा देर तक रखने पर खाने योग्य नहीं रहता। यही वजह है उत्तराखंड के अन्य फल जहां आसानी से दूसरे राज्यों में भेजे जाते हैं, वहीं काफल खाने के लिए लोगों को देवभूमि ही आना पड़ता है।

जमीन से 4 हजार से 6 हजार फीट की ऊंचाई पर उगता है काफल

छोटा गुठली युक्त बेरी जैसा फल "काफल" गुच्छों में आता है और पकने पर बेहद लाल हो जाता है, तभी इसे खाया जाता है। वहीं ये पेड़ अनेक प्राकृतिक औषधीय गुणों से भरपूर है। उत्तराखंड राज्य में कई प्राकृतिक औषधीय वनस्पतियां पाई जाती हैं, जो हमारी सेहत के लिए बहुत ही अधिक फायदेमंद होती हैं। बहुत ही कम लोग खासकर की शहरों में बसने वाले लोगों को इस पहाड़ी फल "काफल" के बारे में जानकारी नहीं है।

काफल का फल जमीन से 4000 फीट से 6000 फीट की उंचाई में उगता है। ये फल उत्तराखंड के अलावा हिमाचल और नेपाल के कुछ हिस्सों में भी होता है। इस फल का स्वाद मीठा व खट्टा और कसैले होता है। यह एक सदाबहार वृक्ष है। इस फल का वैज्ञानिक नाम "myrica esculenta" कहा जाता है एवम् इसे बॉक्स मर्टल और बेबेरी भी कहा जाता है। काफल फल के पौधे को कही भी नहीं उगाया जा सकता है। यह स्वयं उगने वाला पौधा है। मार्च के महीने से काफल के पेड़ में फल आने शुरू हो जाते हैं और अप्रैल महीने की शुरुआत के बाद यह हरे-भरे फल लाल हो जाते हैं। आयुर्वेद में काफल को भूख की अचूक दवा माना जाता है यानी कि यह फल भूख बढाता है।



"काफल" फल एक, फायदे अनेक

जंगल में पाए जाने वाले काफल फल एंटी-ऑक्सीडेंट गुणों के कारण मनुष्य के शरीर के लिए काफी फायदेमंद होता है एवम् फल अत्यधिक रस-युक्त और पाचक होता है। काफल फल में कई तरह के प्राकृतिक तत्व पाए जाते हैं। जैसे माइरिकेटिन, मैरिकिट्रिन और ग्लाइकोसाइड्स इसके अलावा इसकी पत्तियों में फ्लावेन-4, हाइड्रोक्सी-3 पाया जाता है। इस फल को खाने से पेट से सम्बंधित कई बीमारियां दूर हो जाती हैं जैसे कि कब्ज या एसिडिटी।

फल के ऊपर मोम के प्रकार के पदार्थ की परत होती है जो कि भूरे व काले धब्बों की तरह होती है। यह परत मोर्टिल मोम कहलाता है इसे गर्म पानी में उबालकर आसानी से फल से अलग किया जा सकता है। यह मोम अल्सर की बीमारी में प्रभावी होता है। इसका उपयोग मोमबत्तियां, साबुन तथा पॉलिश बनाने में भी किया जाता है। काफल फल के पेड़ की छाल से निकलने वाले सार को दालचीनी और अदरक के साथ मिलाकर सेवन करने से पेचिस, बुखार, फेफड़ो की बीमारी, अस्थमा और डायरिया आदि रोगों से आसानी से बच सकते हैं अपितु यही नहीं इसकी छाल को सूघने से आंखों के रोग व सिर का दर्द आदि रोग भी ठीक हो जाता है।

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इसके पेड़ की छाल का पाउडर जुकाम, आंख की बीमारी तथा सरदर्द में सूघने के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। काफल के पेड़ की छाल या इसके फूल से बने तेल की कुछ मात्रा कान में डालने से कान का दर्द दूर हो जाता है। यही नहीं अगर दांत दर्द अधिक हो रहा है तो इसके तेल को दांत पर लगाने से दर्द ठीक हो जाता है। इस फल से लकवा रोग ठीक हो सकता है और फल के प्रयोग से आप नेलपॉलिश के अलावा मोमबत्तियां व साबुन आदि भी बना सकते हैं।


  

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