सीवर में मरने वालों को मुआवजा तो दूर, सही गिनती नहीं जानती सरकार
सरकार के पास सीवर में हुई मौतों का कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं है।
Ranvijay Singh 25 Feb 2019 9:07 AM GMT

लखनऊ। सोचिए जरा कि बजबजाते और बदबू देते नालों से रिस रहा काला पानी अगर आपके पैरों को छू जाए या किसी कारण वश आपको इन नालों से निकल रहे गार में उतरना पड़े तो क्या हो? आप कहेंगे ये पहली लाइन कितनी गंदी या घिनही है। शायद ये बात सोचकर ही आपको उबकाई आ जाए। लेकिन ये रिपोर्ट जिन लोगों पर है उनकी दशा बताने और आपके जेहन को उस काबिल बनाने के लिए ये लाइन लिखी गई है। हम बात उन सीवर कर्मचारियों की करेंगे जो रोजाना अपनी जान पर खेलते हुए गैस चेंबर से भी बदतर सीवर लाइनों में उतरते हैं।
साल 2016 में लखनऊ के इंदिरा नगर सी ब्लॉक में ऐसी ही एक सीवर लाइन चोक हो गई। चोक होने पर इसकी जानकारी सीवर कर्मचारियों की दी गई। सीवर कर्मचारी अनिल अपने बेटे अंकित के साथ मौके पर पहुंचे। अंकित ने जैसे ही सीवर का ढक्कन खोला उसमें से निकली जहरीली गैस की चेपट में आकर मेन होल में जा गिरा। उसे बचाने के लिए अनिल और उनके एक साथी भी मेन होल में उतरे लेकिन जहरीली गैस की वजह से वो लोग भी बेहोश हो गए। इसके बाद जैसे तैसे इन लोगों को सीवर से निकाला गया, लेकिन तब तक अनिल के एकलौते बेटे अंकित की मौत हो गई थी।
इसी तरह साल 2017 के अगस्त महीने में दिल्ली में एक के बाद एक कई सीवर कर्मचारियों की मौत हुई थी। अलग-अलग खबरों के मुताबिक, अगस्त में दिल्ली के लोक नायक जयप्रकाश अस्पताल में सीवर टैंक की सफाई करने उतरे एक सीवर कर्मचारी की मौत हुई। इससे पहले 12 अगस्त को पूर्वी दिल्ली के शाहदरा इलाके में स्थित एक मॉल के सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए दो भाइयों की मौत हो गई थी। 6 अगस्त को दक्षिणी दिल्ली के लाजपत नगर इलाके में सीवर सफाई के दौरान तीन लोगों की मौत हो गई थी। एक के बाद एक हुई मौतों के बाद दिल्ली में मजदूरों से सीवर की सफाई पर बैन लगा दिया गया था।
आप गूगल पर 'जहरीली गैस से सीवर कर्मचारी की मौत' लिखकर सर्च करेंगे तो देश भर से कई खबरें मिला जाएंगी, लेकिन ज्यादातर में कर्मचारियों या मजदूरों के नाम और पते दर्ज नहीं होंगे। यानी कि ये सभी मौतें हमारे और आपके लिए गुमनाम हैं। क्योंकि इन मौतों का असर सिर्फ और सिर्फ इनके परिवार तक सिमित रहता है।
इन सीवर कर्मचारियों और मजदूरों की जान की कीमत कितनी सस्ती है इस बात का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि सरकार के पास भी स्पष्ट आंकड़ा नहीं है कि सीवर सफाई के दौरान कितने कर्मचारियों या मजदूरों की जान गई है। सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधीन आने वाले राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की वेबसाइट पर मिले आंकड़ों के मुताबिक 1993 से लेकर 2018 तक कुल 676 सफाईकर्मियों की सीवर में उतरने से मौत हुई है। इसमें सबसे ज्यादा 194 मौतें तमिलनाडु में हुई हैं। वहीं, गुजरात में 122, दिल्ली में 33, हरियाणा में 56 और उत्तर प्रदेश में 64 मौतें हुई हैं।
16 मार्च 2017 को राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के अध्यक्ष बने मनहर वालजीभाई जाला गांव कनेक्शन से बताते हैं, ''दो साल पहले जब मैं अध्यक्ष बना था तो उससे पहले आयोग ने ऐसा कोई आंकड़ा नहीं जुटाया था कि कितने सफाई कर्मचारियों की सीवर में जाने से मौत हुई है। मैंने आते ही इसे लेकर काम किया और जिले वार रिव्यू कराया। रिव्यू मीटिंग में 709 सफाईकर्मियों को हमने चिन्हित किया है, जिनकी मौत सीवर में उतरने से हुई है। ये आंकड़ा ज्यादा भी हो सकता है।'' जब अयोग के अध्यक्ष से इन 709 सफाईकर्मियों का नाम व पता पूछा गया तो उन्होंने कहा, ''हमारे पास सिर्फ आंकड़ा है। हम उनकी जानकारी जुटाने में लगे हैं। अभी बहुत काम बाकी है।''
वहीं, तीन जनवरी 2019 को सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत ने राज्यसभा में बताया कि उच्चतम न्यायालय के 1993 के फैसले के मद्देनजर सफाईकर्मियों को 10 लाख रुपए का मुआवजा दिया जाता है। अब तक 331 लोगों की मौत हुई है और उनमें से 210 लोगों के परिवारों को मुआवजा दिया जा चुका है। गहलोत ने कहा कि ''इस संबंध में 2013 में एक सर्वेक्षण किया गया था। 17 राज्यों के करीब 160 जिलों में इस संबंध में फिर से सर्वेक्षण किया जा रहा है।''
अब आप राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग की वेबसाइट, अयोग के अध्यक्ष और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री के राज्यसभा में बताए गए आंकड़ों में आए अंतर से समझ सकते हैं कि सफाईकर्मियों की जान की कीमत क्या है। बता दें, 27 मार्च 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि 1993 से लेकर अब तक सीवर में दम घुटने की वजह से मरे लोगों और उनके परिवारों की पहचान की जाए। साथ ही हर पीड़ित परिवार को मुआवजे के रूप में 10 लाख रुपये दिए जाएं। इसके बाद से ही सरकार की ओर से आंकड़े जुटाने की कवायद शुरू हुई है। हालांकि, करीब 4 साल बीतने के बाद भी सरकार के पास कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं है।
इनता ही नहीं देश भर में नियमित और कॉन्ट्रैक्ट बेस के आधार पर कितने सफाईकर्मी काम कर रहे हैं इसकी भी जानकारी राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के पास नहीं है। आयोग के अध्यक्ष बताते हैं, ''अभी इसके आंकड़े जुटाए जा रहे हैं।'' यानी मुर्दा तो गुमनाम हैं ही, जिन्दा लोगों का भी नाम कहीं दर्ज नहीं है।
इस संबंध में सीवर सफाई कर्मचारी संघ के अध्यक्ष विजय कुमार धानुक बताते हैं, ''सीवर कर्मचारियों की स्थिति बहुत खराब है। उनकी तनख्वाह से लेकर उनकी सुविधाओं तक में कटौती की जाती है। लखनऊ में करीब 300 सीवर कर्मचारी हैं। इनमें से 150 के करीब नियमित होंगे बाकी के कॉन्ट्रैक्ट बेस हैं। कॉन्ट्रैक्ट बेस सफाई कर्मियों को सिर्फ साढ़े सात हजार तनख्वाह मिलती है। अब आप सोचिए कि आज के समय में इतने कम तनख्वाह में कैसे काम चलेगा।'' विजय कुमार धानुक से जब लखनऊ में सीवर में उतरने से हुई मौतों के आंकड़ों के बारे में पूछा गया तो वो भी कुछ स्पष्ट नहीं बता सके। एक दो नाम तो बताए, लेकिन कोई साफ जानकारी उनके पास भी नहीं थी।
बता दें, मैनुअल स्कैवेंजिंग एक्ट 2013 के तहत किसी भी व्यक्ति को सीवर में भेजना पूरी तरह से प्रतिबंधित है। अगर किसी विषम परिस्थति में सीवर के अंदर जाना पड़ा तो इसके लिए 27 तरह के नियमों का पालन करना होता है। लेकिन इन नियमों की खुले तौर पर धज्जियां उड़ाई जाती हैं। विजय कुमार धानुक बताते हैं, ''कागजों में बताया गया है कि सफाईकर्मी को ऑक्सीजन सिलेंडर, मास्क, विशेष सूट और नजाने क्या क्या दिया जाएगा। लेकिन असल में उसे कुछ नहीं दिया जाता। सफाईकर्मी बिना किसी सुरक्षा के अब भी नाले में उतर रहे हैं।'' धानुक कहते हैं, ''आप इसी बात से समझ लीजिए कि जिस गटर के पास से आप मुंह पर कपड़ा लगाकर गुजर जाते हैं, उसमें सीवर कर्मचारी उतर जाता है। इससे सबसे ज्यादा उसकी सेहत पर असर पड़ता है। कर्मचारियों को सांस की बीमारी, चर्म रोक जैसी बीमारियां हो जाती हैं।''
फिलहाल कई अलग अलग रिपोर्टस में यह दावा किया गया है कि देश में रोज दो से तीन मजदूर की मौत मेनहोल की सफाई के दौरान होती है। द हिन्दू अख़बार में छपे पत्रकार एस आनंद के लेख 'Deaths in the drains' के मुताबिक, ''भारत में करीब 22,327 महिला और पुरषों की हर साल सीवेज से जुडे किसी भी सफाई के दौरान मौत होती है।'' ऐसे में आप स्थिति का आंकलन कर सकते हैं। हालांकि, सीवर में सफाई के दौरान मौत का कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं मिलता। फिर भी खबरों को देखें तो ऐसी मौतें बड़ी संख्या में होती नजर आती हैं।
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