क्या फिर लौटेगा घरों में सबसे पहले खुशखबरी देने वाली दाइयों का दौर?

एक समय था जब घर में गूंजी पहली किलकारी का शुभ समाचार दाइयां देती थीं, लेकिन धीरे-धीरे यह पारंपरिक काम गुम होता जा रहा है। दाइयों के पास अब काम ही नहीं है, जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि उन्हें प्रशिक्षित करने की जरूरत है।

Purnima SahPurnima Sah   13 Aug 2020 1:45 AM GMT

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दाई, प्रसवकूच विहार के रबिदास गाँव की अस्सी वर्षीय दाई रुक्मिणी रबिदास। (सभी फोटो- पूर्णिमा साह)

  • प्रसव के विज्ञान और व्यापार बनने से खत्म हो गई पारम्परिक कला

कहते हैं लाख जतन के बावजूद खोया विश्वास वापस नहीं आता और यह सच भी है। विज्ञान और खासतौर से चिकित्सा विज्ञान ने की चमक जैसे-जैसे फैली वैसे-वैसे गांवों में प्रसूति कराती आ रही रही दा‌इयों का अस्तित्व खत्म होता गया। बड़े-‌बड़े अस्पतालों की चकाचौंध में दाइयों ने वर्षों से चले आ रहे पारम्परिक वजूद को ही झुठला दिया है। भारत में भी बुनियादी स्वास्थ्य ढाँचे के विकास के साथ ही दाइयों का वजूद खत्म होता गया। जबकि एक समय ऐसा होता ‌था जब‌ गुमनामी भरी ज़िन्दगी जीने वाली इन दाइयों पर लोग आँख मूँद कर भरोसा करते थे। बिना किसी दवा या औज़ार के ये घरों में खुशखबरी सुनाने वाली पहली शख्स होती थीं। पर धीरे-धीरे शिशु जन्म की कला ने विज्ञान का रूप ले लिया, जो बहुत बड़े कारोबार में बदल गया है।

गाँव कनेक्शन ने नेपथ्य में जा चुकीं दायियों के जीवन पर रोशनी डालने की कोशिश की है। इसी क्रम में हम मिले पश्चिम बंगाल के कूच विहार के रबिदास मोहल्ले की अस्सी वर्षीय सुमित्रा रबीदास से। सुमित्रा कहती हैं, "मैं अपने परिवार की आखिरी दाई हूँ। मेरी माँ भी दाई थीं। अपने समय में उनका बहुत नाम था। अपनी कला में निपुण माँ ने लगभग हर समुदाय और घरों में बिना किसी परेशानी के शिशु जन्म करवाया। लोग प्यार से उन्हें दाई माँ कहते थे। शिशु जन्म हमारे लिए कला है, जो मैंने बहुत कम उम्र में अपनी माँ से सीखी थी।"

"गर्भवती महिलाएं और उनका परिवार हमारे ऊपर विश्वास करता था। बस सरसों तेल, एक ब्लेड और हमारे कुशल हाथ स्वस्थ बच्चे के जन्म के लिए पर्याप्त थे। तब लोग हम पर भरोसा करते थे। अच्छी खुशखबरी के लिए उन्हें न तो हॉस्पिटल जाने की जरूरत होती थी और न डॉक्टर या नर्स की। पर अब हालात बदल गए हैं। दो दशक से मैंने यह काम छोड़ दिया है। उदास स्वर में सुमित्रा ने बताया कि मैंने बहुत से महिलाओं को इस कला में दक्ष किया। बच्चे के जन्म की ख़ुशी में लोग उपहार में हमें अनाज, कपड़े या कुछ दो-तीन रुपये दे‌ दिया करते थे। अगर लड़का हुआ तो फल मिठाइयाँ भी मिलती थी।"

उत्सव की तरह होता था शिशु जन्म

दो-तीन पीढ़ी पहले तक शिशु जन्म उत्सव की तरह होता था। प्रसवपीड़ा के दौरान महिलाएं दायी की छाया में खुद को महफूज़ समझती थीं। घर में आये नन्हे मेहमान की ख़ुशी में रस्म रिवाज़ धूमधाम से होते थे। पूरा गाँव इस ख़ुशी में शामिल होता था। तब दाइयों का भी सम्मान होता था, नेग मिलता था। लोग हैसियत के मुताबिक उपहार देते थे। हो भी क्यों न, बिना किसी लालच के ज़रूरतमंद के यहाँ मीलों चल के जाती थीं। तब न धूप देखती थीं न बरसात और न ठण्ड।

अपनी घर-गृहस्थी की परवाह किये बगैर दाई पूरे-पूरे दिन गर्भवती महिला के साथ रहती थीं। पर अब निःस्वार्थ भाव से की गई सेवा की कोई कदर नहीं है। अंग्रेज़ों के शासन के बाद सब बदल गया। अब दाई की जगह डॉक्टर्स, नर्सेज, दवाइओं और मशीनी उपकरणों ने ले ली है।

सुमित्रा रबिदास दो दशक पहले तक पारंपरित दाई काम करती थीं।

देश के अलग-अलग हिस्सों में दाई के चेहरे और नाम भले अलग हों लेकिन उनकी ज़िन्दगी की कहानी एक सी है। इनकी सच्चाई एक सी है। कूच विहार के देवानहाट गाँव की 65 वर्षीय रुक्मिणी रबिदास ने अपनी माँ और दादी से प्रसूति कला सीखकर केवल 11 वर्ष की उम्र में ही इस क्षेत्र में कदम रखा। समय की नज़ाकत को समझते हुए अनपढ़ रुक्मिणी ने शिशु जन्म के नए नए तरीके सीखे और निरंतर अभ्यास के साथ आगे बढ़ीं।

वह घर में कमाने वाली अकेली हैं। अब वह प्रसव के अलावा हड्टी की चोट, मोच आने या शरीर में किसी भी तहर के दर्द को मालिश से ठीक करने में भी माहिर हैं। इसके लिए वह तीन हजार रुपए और प्रसूति के लिए छह हजार रुपए लेती हैं। रुक्मिणी ने गाँव कनेक्शन को बताया, "हम बहुत आसानी से घर में घर की चीज़ों जैसे सूती चादर, मलमल के कपड़े, बोरी और पुराने तकियों की मदद से प्रसूता को भावंनात्मक सहारा देते हुए प्रसव पीड़ा के साथ शिशु का जन्म करवाने में सक्षम हैं। प्रसव पीड़ा के बारे में हम पहले से ही गर्भवती स्त्रियों को आगाह करते हैं ताकि समय आने पे घबराएं नहीं।"

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35 वर्षीया लचिया रबिदास के तीनों बच्चे घर में ही पैदा हुए हैं। उन्होंने गाँव कनेक्शन को बताया, "अस्पतालों में एक गुप्त और निजी प्रक्रिया बहुत ही बेशर्मी के साथ खुले कमरे में होती है। वहीं गाँव कनेक्शन से हुई बातचीत में 60 साल जलेश्वरी दाई बताती हैं, "लेबर रूम में एक नर्स द्वारा अपमानित होने के बाद मैंने दाई का काम छोड़ दिया था। अब पारम्परिक दाई के काम को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है। मेरे बच्चे भी नहीं चाहते कि मैं ऐसा काम करूं।"

सिलीगुडी की स्त्री रोग विशेषज्ञ, प्रसूति डॉक्टर और आईवीएफ विशेषज्ञ डॉ प्रसेनजित के रॉय के के मुताबिक, "दाई का अपना महत्व है। मैं पूर्णतः वैज्ञानिक शैक्षिक पद्धति के अनुसार ही शिशु जन्म की प्रक्रिया पर विश्वास करता हूँ, लेकिन दूर-दराज के छोटे कस्बों और गावों में डॉक्टरी सुविधा उपलब्‍ध नहीं है वहां इन दक्ष और कुशल दाइयों को वरीयता देता हूँ।"

असली हीरोज के नाम रहा 2020

कोरोना महामारी के दौर में 2020 को रियल हीरोज नर्स और पारम्परिक दाइयों का अंतरराष्ट्रीय वर्ष घोषित किया गया है। चिकित्सीय क्षेत्र में इनके सराहनीय योगदान को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने पहल की है। दुनियाभर में हुए WHO के एक सर्वे के मुताबिक पारम्परिक दाइयों ने 83 फीसदी प्रसूति पूरी कुशलता और सुरक्षित तरीके से कराई है।

सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज के अनुसार 2030 तक 90 लाख नर्सों और दाइयों की ज़रूरत पड़ेगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2018 में नई दिल्ली में एक कांफ्रेंस की थी, जिसमें भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर दाइयों के प्रशिक्षण का कार्यक्रम लागू करने की योजना की घोषणा की थी। हालांकि यह घोषणा इसलिए मूर्त रूप नहीं ले सकी क्योंकि यह भ्रम फैल गया कि प्रशिक्षण के बाद दाई भी नर्स की श्रेणी में आ जाएंगी।

न प्रशिक्षण मिलता है न संसाधन

कोयम्बटूर के विख्यात डॉ सीवी कांकी उथराज प्रसूति और स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं। वह बांझपन और फर्टिलिटी विशेषज्ञ हैं। वे कहते हैं, "विदेशों में दाई उतनी ही अनुभवी और दक्ष होती हैं जितनी वहां के डॉक्टर्स। दरअसल, उन्हें बेहद अच्छी ट्रेनिंग दी जाती है। संसाधन मुहैया कराए जाते हैं। जबकि भारत में इसका अभाव है। इसके चलते बदलते दौर में दाई पर भरोसा कम होता गया। पहले और अब की स्थिति में अंतर आ गया है। पहले मूलभूत चिकित्सा सुविधाओं की कमी होने से लोगों को इन पर आश्रित होना पड़ता था।

एक महिला को गर्भधारण के बाद प्रसव तक हर पल नई समस्या से गुज़रना पड़ता है। शारीरिक बदलाव के साथ-साथ मानसिक और भावनात्मक बदलाव को समझना भी मुश्किल होता है। ऐसे में उसकी देखभाल केवल प्रसव के बाद नहीं बल्कि गर्भधारण के बाद से ही शुरू होनी चाहिए। प्रसूति दाई की अवधारणा का जन्म यहीं से हुआ।

दाई जलेश्वरी रबिदास

दाइयां गर्भवती महिलाओं को भावनात्मक आश्वासन देती हैं। गर्भावस्था में कौन से पौष्टिक आहार और कसरत करने चाहिए, ऐसी अनेक बातें जो गर्भावस्था से जुडी होती हैं, उसकी जानकारी समय-समय पर दाई महिला को देती है। गर्भगृह प्राकृतिक जन्म केंद्र की सह संस्थापक व निदेशक डॉ विजया कृष्णन के अनुसार, "भारत में जन्म केंद्र की अभी शुरुआत ही नहीं हुई है। यह एक ऐसी जगह है जहां माँ और पिता को अपने आने वाले बच्चे के लिए मानसिक तौर पर तैयार किया जाता है। अनुभवी और दक्ष दाई कदम-कदम पर उनके साथ रहती हैं। आवश्यकता पड़ने पर हम उनके घर पर ही प्रसूति और स्त्री रोग विशेषज्ञ की सुविधा मुहैया कराते हैं।"

डॉ. कृष्णन प्राकृतिक जन्म प्रक्रिया पे ज़ोर देते हुए कहती हैं, "93 फीसदी महिलाएं बिना ऑपरेशन प्राकृतिक तौर पर जन्म देने की क्षमता रखती हैं। सिजेरियन तो बिलकुल अंतिम उपाय है।

दक्ष प्रसूति दाई और डॉक्टर रूथ मालिक का भी यही मानना है। वे कहती हैं, "95 से 98 फीसदी भारतीय महिलाएं बिना ऑपरेशन प्रसव में सक्षम हैं। पर यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि 50 फीसदी प्रसूताओं को ऑपरेशन से गुजरना पड़ता है।"

केरल के कोचीन के प्राकृतिक जन्म केंद्र की निदेशक और ट्रस्टी के अनुसार अंतराष्ट्रीय कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ़ मिडवाइव्स के नियमानुसार प्रसव पीड़ा के वक़्त दाई अवश्य होनी चाहिए। पर भारत में ऐसा नियम ही नहीं है। यहां तो हज़ारों पेशेंट के लिए एक डॉक्टर होता है। अस्पतालों में नार्मल डिलीवरी भी नार्मल नहीं लगती।

वर्ष 2008-09 से ही भारत के निजी और सार्वजनिक अस्पतालों में सिजेरियन पद्धति खूब फल फूल रही है। स्वास्‍थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के 2018-19 की रिपोर्ट के बताती है कि 14 फीसदी से ज्यादा बच्चे सिजेरियन से हुए। सार्वजनिक अस्पतालों में एक करोड़ में करीब 19 लाख बच्चों का जन्म सिजेरियन हुआ। इस मामले में तेलंगाना सबसे आगे है जहां 74.9 फीसदी बच्चों का जन्म सिजेरियन से हुआ। WHO के मुताबिक किसी भी राज्य या देश में 10 से 15 फीसदी तक सिजेरियन पद्धति से बच्चों का जन्म सामान्य बात है। ऐसे में अगर भारत के आंकडों को देखें तो आश्चर्य होता है कि देश कहां जा रहा है।

अनुवाद- इंदु सिंह

  

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