ग्लोबल वॉर्मिंग का असर: क्या हिमालयी प्रजातियों पर मंडरा रहा है ख़तरा ?

Hridayesh JoshiHridayesh Joshi   12 Nov 2018 5:50 AM GMT

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ग्लोबल वॉर्मिंग का असर: क्या हिमालयी प्रजातियों पर मंडरा रहा है ख़तरा ?

51 साल के शिवराज पिछले करीब 20 सालों से लगातार उत्तराखंड का दौरा करते रहे हैं। उन्हें हिमालय से विशेष लगाव है और वह यहां के पर्यावरण और पेड़ पौंधों पर बारीक नज़र रखते हैं। पिछले साल शिवराज ने देखा कि पहाड़ में हिमालयन चेरी यानी पद्म के फूल वक्त से पहले ही खिल गये हैं। अमूमन पद्म के फूल नवंबर के पहले हफ्ते में आते हैं लेकिन शिवराज को यह फूल अक्टूबर के तीसरे हफ्ते में दिखे। शिवराज ने यह बात जब पहाड़ में अपने दोस्तों को बताई तो उन्हें पता चला कि इस के फूल जल्दी खिलने का सिलसिला पिछले कुछ सालों से चल रहा है।

पद्म यानी हिमालय चेरी का वैज्ञानिक नाम प्रूनससेरासॉइड्स (Prunus cerasoides) है। यह हिमालयी क्षेत्र में 1200 मीटर की ऊंचाई पर उगना शुरू होता है और करीब 2400 मीटर तक पाया जाता है। इस पेड़ की लकड़ी फर्नीचर बनाने के साथ-साथ शादी-ब्याह और पूजा पाठ में इस्तेमाल होती है। पद्म का फूल अपनी खूबसूरती के लिये तो मशहूर है ही इसके पेड़ से निकलने वाले दृव्य का इस्तेमाल कई दवाओं और डाइ (रंग) को बनाने में भी होता है। इसके अलावा हिमालयन चेरी का वृक्षकई परिंदों का मनपसंद बसेरा है और इसका फूल और फल उनका भोजन है जिसकी वजह से जैव विविधता के लिये पद्म काफी महत्वपूर्ण हो जाता है।

"15 से 20 ऐसी प्रजातियों की पहचान की गई है जिन पर बढ़ते तापमान के असर का अध्ययन किया जा रहा है"। मदन बिष्ट, प्रभारी रेंजर, ज्योलीकोट वन अनुसंधान केंद्र

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लेकिन अब जलवायु परिवर्तन की वजह से हिमालय चेरी और कई प्रजातियों में फूल वक्त से पहले आने का सिलसिला शुरू हो गया है। इनमें ढाक, तिमूर, हिसालू, काफल और बुरांस समेत दर्जनों प्रजातियां शामिल हैं। शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों का कहना है यह बदलती आबोहवा और ग्लोबलवॉर्मिंग का असर है। यह शोध किया जा रहा है कि क्या इस बदलाव से प्रजातियों के अस्तित्व पर कोई संकट छासकता है?

उत्तराखंड में वन अनुसंधान केंद्र में कार्यरत मदन बिष्ट कहते हैं कि करीब डेढ़ दर्जन प्रजातियों का अध्ययन किया जा रहा है।

उत्तराखंड में हल्द्वानी और ज्योलीकोट में वन अनुसंधान केंद्र के प्रभारी रेंजर मदन बिष्ट जंगल में इन वनस्पतियों का अध्ययन कर रहे हैं। उनका कहना है कि राज्य 15 से 20 ऐसी प्रजातियों की पहचान की गई है जिन पर बढ़ते तापमान के असर का अध्ययन किया जा रहा है। बिष्ट के मुताबिक शोध में इन बदलावों को देखते हुये अभिनव प्रयोग किये जा रहे हैं। "हम हिमालयन चेरी की कटिंगपौंध तैयार कर रहे हैं और हमारा इरादा इसे सड़क के किनारे उगाने का है। इस तरीके को वानस्पतिक पुनरोत्पादन कहा जाता है। इससे प्रजाति को बचाने के साथ-साथ इसके प्रति लोगों में आकर्षण और जागरूकता पैदा हो सकेगी।"

तिमूर, हिसालू और बुरांश में भी वक्त से पहले फूल आ रहे हैं।

असल में हिमालय में इन सभी प्रजातियों में ऐसा बदलाव जलवायु परिवर्तन का पहला सूचक माना जाता है। यहां बदलती आबोहवा का असर इसी के ज़रिये पहचाना जाता है। बीजों के अंकुरण और बदलते जलवायु के साथ उसकी प्रवृत्ति को समझना भी ज़रूरी है। वनस्पति शास्त्री और हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ एस पी सिंह कहते हैं, "प्रजातियों में फूल समय से पहले आने का मतलब साफ है कि गर्म होते वातावरण का असर उन पर पड़ रहा है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इससे उस प्रजाति के वजूद को कोई खतरा है।" डॉ सिंह के मुताबिक हिमालयी क्षेत्र काफी विशाल और विविधताओं से भरा हुआ है और इसकी प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन के असर के लिये लम्बे वक्त तक अध्ययन की ज़रूरत है।

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अब उत्तराखंड सरकार ने जानकारों की एक टीम को अगले 5 साल के लिये विभिन्न हिमालयी प्रजातियों पर शोध करने को कहा है जिससे जलवायु परिवर्तन के असर का पता चल सके। उत्तराखंड में वन संरक्षक (अनुसंधान) के पद पर कार्यरत वन सेवा के अधिकारी संजीवचतुर्वेदीने गांव कनेक्शन को बताया कि जलवायु परिवर्तन को लेकरकिसी नतीजे पर पहुंचने से पहले ठोस आंकड़े और वैज्ञानिक अध्ययन की ज़रूरत है।

"प्रजातियों में फूल समय से पहले आने का मतलब साफ है कि गर्म होते वातावरण का असर उन पर पड़ रहा है लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इससे उस प्रजाति के वजूद को कोई खतरा है।"
डॉ एस पी सिंह, वनस्पति शास्त्री और हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति

चतुर्वेदी के मुताबिक ये ख़बरें पिछले कुछ साल से लगातार आ रही हैं कि प्रजातियों में फल, फूल और अंकुरण का समय बदल रहा है। "हमने उत्तराखंड के 7 अलग अलग हिस्सों में काम शुरू किया। हर रेंज से कम से कम 2 प्रजातियों का चुनाव करने को कहा। इन प्रजातियों में बीज, फूल खिलने, नई पत्तियों के आने और गिरने से लेकर उस क्षेत्र में बारिश, गरमी और नमी का अगले कम से कम 5 साल तक बारीक अध्ययन होगा और सभी आंकड़े इकट्ठा किये जायेंगे"

वैज्ञानिकों का मानना है कि ये आंकड़े हिमालयी क्षेत्र में वनस्पतियों पर जलवायु परिवर्तन के असर को समझने में मदद करेंगे। चतुर्वेदी कहते हैं "जलवायु परिवर्तन एक जटिल विज्ञान है और इसमें कही-सुनी बातों का कोई मतलब नहीं। ठोस अध्ययन और डाटा बैंक ही एकमात्र रास्ता है जिनके विश्लेषण से ही सही निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है।"


         

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