खेती को एक ही चश्मे से देखने का नजरिया है खतरनाक
गाँव कनेक्शन 2 Feb 2018 5:30 PM GMT
अश्विनी कुलकर्णी
विविधताओं से भरे हमारे देश के किसान भी विविध परिस्थितियों में फसल उगाते हैं। वे देश के किस भाग में खेती करते हैं, क्या फसल उगाते हैं, किस तरह की कृषि करते हैं ये तमाम बातें उनकी चुनौतियों का भी निर्धारण करती हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि किसानों की इन चुनौतियों के समाधान भी उनकी समस्याओं के तरह विविधता वाले होने चाहिए। लेकिन इसी मुद्दे पर आकर हम नाकाम हो जाते हैं खासकर वर्षापोषित किसानों के मामले में।
वर्षापोषित या वर्षासिंचित कृषि वह होती है जहाँ किसान सिंचाई के लिए पूरी तरह से वर्षा पर निर्भर रहते हैं। भारत की पाँच मुख्य फसलों जिनमें गेहूँ, धान, दलहन, तिलहन और कपास आते हैं, उनमें से गेहूँ इकलौती फसल है जो लगभग पूरी तरह से सिंचित है जबकि बाकी की चार फसलें या तो असिंचित हैं या सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भर हैं। भारत के सम्पूर्ण फसली क्षेत्र का लगभग 55% भाग वर्षापोषित कृषि से बनता है जोकि देश के कृषि क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा है।
वर्षापोषित सीमांत किसान या छोटे किसान हैं जिनके पास कृषिभूमि के नाम पर ज़मीन के छोटे टुकड़े (पाँच एकड़ से कम) भर हैं और जो सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर हैं। वर्षापोषित किसानों की आय का मुख्य स्रोत खेती और दूसरे बड़े किसानों के खेतों में मजदूरी करना है। सोशियो इकॉनॉमिक कॉस्ट सेन्सस (एसईसीसी) 2011 के अनुसार, ग्रामीण भारत की आय का मुख्य स्रोत अनौपचारिक मजदूरी (51.18%) और फिर उसके बाद खेती (30.10%) है।
बारिश पर निर्भर रहने वाले वर्षापोषित किसान अपनी आजीविका के मामले में नीचे से के लिए मुर्गीपालन, मछलीपालन और पशुपालन जैसे विविध क्षेत्रों में भी काम करते रहते हैं जोकि उनके आयवर्ग का एक ज़रूरी हिस्सा है।
वर्षापोषित क्षेत्र बड़े स्तर पर गरीबी की मार झेल रहे हैं। रिवाइटलाइजिंग रेनफेड एग्रीकल्चर नेटवर्क (आर.आर.ए.एन.) नामकी संस्था के रेनफेड एटलस के अनुसार 100 गरीब जिलों में 60 जिले बारिश पर आधारित खेती करते हैं। इसके बहुत से कारण हैं। वर्षापोषित किसानों के पास अपनी रोजीरोटी चलाने के लिए बहुत अधिक संसाधन नहीं हैं। इन किसानों के मॉनसून पर आश्रित रहने का केवल यह मतलब नहीं है कि ये किसान बस एक मौसम में ही खेती करते हें बल्कि इनका उत्पादन भी वर्षा वितरण में बदलाव से काफी प्रभावित होता है।
एकल मौसम और वर्षा आधारित कृषि कम उपज वाली होती है जिसकी वजह से किसानों के सामने विविध फसलों को अपनाने के विकल्प कम रह जाते हैं। एक फसली मौसम और वर्षापोषित खेती की उपज में ज़्यादातर मोटे अनाज आते हैं जिनका बाज़ार मूल्य बहुत ही कम होता है।
इन सबसे यह निश्चित हो जाता है कि वर्षापोषित किसान कृषि उत्पादकता में हमेशा ही निचले पायदान पर रहेगा। इसलिए देश के वे इलाके जहां खेती बारिश पर आधारित है सबसे ज्यादा गरीब हैं तो इसमें हैरान होने वाले कोई बात नहीं है।
विडम्बना ही कहेंगे कि इस क्षेत्र पर सरकार का सबसे कम ध्यान गया है, साथ ही मदद भी कम ही मिली है। दूसरी तरफ, सिंचित क्षेत्रों पर सरकार हर तरह से मेहरबान है। ये कुछ उदाहरण हैं जो स्पष्ट करते हैं कि किस तरह वर्षापोषित क्षेत्रों की विपरीत दिशा में सार्वजनिक निवेश किया जा रहा है:
एकल मौसम और वर्षा आधारित कृषि कम उपज वाली होती है जिसकी वजह से किसानों के सामने विविध फसलों को अपनाने का विकल्प खुल जाता है। एक फसली मौसम और वर्षापोषित खेती की उपज में ज़्यादातर मोटे अनाज आते हैं जिनका बाज़ार मूल्य बहुत ही कम होता है।
सब्सिडी : बीजों और खाद का सीधा संबंध सिंचाई के साथ है इसलिए सिंचाई बाहुल्य इलाकों में ये दोनों ही सरकार से अच्छी सब्सिडी पा रहे हैं। एक स्टडी के मुताबिक, सिंचित क्षेत्रों में उर्वरकों का प्रयोग (किग्रा. प्रति हेक्टेयर) वर्षापोषित क्षेत्रों की तुलना में तीन गुना ज़्यादा है। सिंचित क्षेत्रों में 81.3% किसान अच्छी किस्म का बीज और खाद इस्तेमाल करते हैं, जबकि वर्षापोषित क्षेत्रों में यह आँकड़ा केवल 44.9% है। इस तरह सब्सिडी का बड़ा हिस्सा सिंचित क्षेत्रों में ही जाता है।
बाज़ार : न्यूनतम समर्थन मूल्य से सुनिश्चित होता है कि किसानों को उनकी उपज का न्यूनतम मल्य मिले। किसानों की सहायता करने की दिशा में यह सरकार का अहम उपाय है। वर्षापोषित क्षेत्रों को यहाँ भी अच्छा हिस्सा नहीं मिल पाता है।
इस हाल में यह जाहिर सी बात है कि वर्षापोषित क्षेत्रों को अविलम्ब सहायता और ध्यान देने की ज़रूरत है। इस स्थिति को बदलने के लिए ये कुछ कदम उठाये जाने चाहिए:
पानी की समस्या से निपटने के लिए देसी उपाय : छोटे और सीमांत किसानों को किफायती सिंचाई की ज़रूरत होती है जिसके लिए उनको स्थानीय संसाधनों और देशी तरीकों से से पानी को संग्रह करने की व्यवस्था करनी चाहिए।
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आय के वैकल्पिक स्रोत : देसी तरीकों से मुर्गीपालन, मछलीपालन और पशुपालन वर्षापोषित किसानों के परिवार की बहुत प्रकार से मदद करता है। उनको पौष्टिक भोजन, अतिरिक्त आय मिलती है और इसके साथ ही उनकी सम्पत्ति बढ़ जाती है जिसको वे सूखे और दूसरी आपदाओं के समय बेच सकते हैं।
वैकल्पिक फसलें : ज्वार-बाजरा जैसे मोटे अनाज कम लागत में पैदा किए जा सकते हैं। यह पौष्टिक भी होते हैं।
आर.आर.ए.एन. ने मुर्गीपालन, मछलीपालन और पशुपालन, भूजल का एकत्रीकरण जैसे इन तमाम तरीकों को ओडिशा, तेलंगाना, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में जमीनी स्तर पर लाने का प्रयास किया और पाया कि आजीविका कमाने और आय बढ़ाने में इनकी बहुत उपयोगिता है।
जब हम वर्षापोषित कृषि के विशेष स्वभाव और उससे जुड़ी चुनौतियों को पहचानेंगे तभी उसके समाधान और संसाधनों को जुटाने का प्रयास करेंगे। वरना हम पूरे कृषि क्षेत्र को एक ईकाई मानकर उसके लिए एक जैसे समाधान देने का जोखिम उठाते रहेंगे।
(लेखिका ग्राम विकास और ग्रामीण आजीविका से जुड़े मुद्दों पर लंबे समय से काम करती रही हैं। ये उनके अपने विचार हैं)
यह लेख मूल रूप में India Development Review में प्रकाशित हो चुका है।
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