कासगंज हिंसा: तो क्या राजनीतिक फायदे के लिए होते हैं जातीय दंगे ?

Mithilesh DharMithilesh Dhar   27 Jan 2018 1:18 PM GMT

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कासगंज हिंसा: तो क्या राजनीतिक फायदे के लिए होते हैं जातीय दंगे ?हिंसा का दृश्य।

उत्तर प्रदेश के कासगंज में 26 जनवरी को तिरंगा यात्रा के दौरान भड़की हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही। इस हिंसा में अब तक एक युवक की जान जा चुकी है। भारी संख्या में पुलिस बल होने के बावजूद आज सुबह फिर हिंसा भड़क उठी। ऐसे में सवाल से उठता है कि आखिर ऐसी हिसां होती क्यों है ?

महाराष्ट्र के पुणे जिले में मंगलवार को भीमा कोरेगांव युद्ध की 200वीं सालगिरह मनाने के लिए बड़ी संख्या में दलित समुदाय के लोग जुटे थे। तभी वहां हिंसा हो जाती है और देखते ही देखते पूरा माहौल हिंसाग्रस्त हो जाता है। इस हिंसा में एक व्यक्ति की मौत भी हो गयी और एक जिले से चली हिंसा पूरे महाराष्ट्र और मुंबई के कुछ हिस्सों तक पहुंच जाती है।

लपटें अन्य राज्यों में पहुंचने की भी आशंका है। ऐसा नहीं है कि भीमा कोरेगांव में युद्ध की सालगिरह पहली बार मनाई जा रही थी, ये हर साल मनाई जाती रही है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि इस बार ऐसा क्या हुआ कि भीड़ हिंसक हो गई, क्या देश में हो रहे ऐसे जातीय दंगे राजनीति से प्रेरित और सुनियोजित होते हैं ?

इस मामले में देहरादून के डॉ कुलदीप व्यास (समाजशास्त्री ) जो देश के कई विश्वविद्यालयों में बतौर अतिथि शिक्षक सेवाएं देते हैं, बताते हैं "इस बात से बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता कि ऐसी हिंसा राजनीति से प्रेरित नहीं होती। दोनों समुदाय के लोग अपनी रोटी सेंकने के लिए ऐसी हिंसाओं को बढ़ावा देते हैं। दिक्कत कहां है ये समझना होगा। एक पक्ष जो सैकड़ों वर्षों से दबा कुचला है और अब वो खुद को सर्वोपरि बताना चाह रहा है तो वहीं दूसरा पक्ष हमेशा की तरह खुद को श्रेष्ठ साबित करना चाह रहा है। ऐसे में राष्ट्रीय नेताओं के साथ-साथ स्थानीय नेता भी लोगों का भावनाएं भड़काते हैं, क्योंकि उनके पास कोई मुद्दा नहीं होता।"

भीमाकोरे गांव की ग्राम पंचायत सदस्य का कहना है, हमने अपने घर नहीं जलाएं, यहां कई जातियों के लोग एक साथ भाईचारे से रहते है.. अगर ग्राम पंचायत सदस्य की बात में दम है तो फिर कई सवाल उठते हैं ?

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कोरगांव-भीमा गांव हिंसा के मामले में जरात के नवनिर्वाचित निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी और जेएनयू देशविरोधी नारे के मामले से चर्चित हुए छात्रनेता उमर खालिद के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई है। शिकायतकर्ताओं ने आरोप लगाया है कि जिग्नेश मेवानी और उमर खालिद ने कार्यक्रम के दौरान भड़काऊ भाषण दिया था जिसके चलते दो समुदायों में हिंसा हुई। पुणे के कोरेगांव भीमा गांव से उपजे तनाव ने मंगलवार को महाराष्ट्र के अन्य इलाकों को अपने गिरफ्त में ले लिया।

मुंबई, पुणे, औरंगाबाद और धुले में कई जगहों पर तनाव फैल गया और बेकाबू हुए लोग हिंसा पर उतारू हो गए। नए साल के मौके पर पुणे के कोरेगांव भीमा गांव में शौर्य दिवस मनाया गया था जिसके बाद से दो समुदायों के बीच हुई झड़प में एक शख्स की मौत हो गई। इसके बाद गुस्साई भीड़ ने बसों एवं वाहनों को आग के हवाले कर दिया।

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अगर ये हिंसा राजनीति से प्रेरित नहीं है तो इससे पहले यहां दंगा क्यों नहीं हुआ। शिकायत में ये बताया गया है कि जिग्नेश और उमर ने भड़काऊ भाषण दिया। अगर ये कार्यक्रम सालगिरह का तो दिल्ली और गुजरात से उमर खालिद और जिग्नेश को क्यों बुलाया गया और उन्हें भड़काऊ भाषण देने ही क्यों दिया गया। ऐसे में इस बात से इनकार करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है कि ये हिंसा राजनीति से प्रेरित नहीं है। आरोप है कि जिग्नेश मेवानी ने अपने भाषण के दौरान एक खास वर्ग के लोगों को सड़क पर उतरने के लिए उकसाया था।

उमर खालिद ने भी अपने भाषण में जाति विशेष के लोगों को उकसाने वाली बातें कही थी। इन दोनों लोगों के भाषण के बाद एक खास वर्ग के लोग विरोध करने के इरादे से सड़क पर निकलने लगे, जिसने बाद में हिंसक रूप ले लिया। आरोप है कि विधायक जिग्नेश मेवानी 14 अप्रैल को नागपुर में जाकर आरएसएस मुक्त भारत अभियान की शुरुआत करने की भी बात कही थी। इस भाषण के दौरान प्रकाश आंबेडकर, पूर्व न्यायाधीश बी.जी. कोलसे पाटिल, लेखिका और कवि उल्क महाजन आदि लोग मौजूद रहे।

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इस मामले में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने इस दंगे को राजनीति से प्रेरित बताया। वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस हिंसा के लिए महाराष्ट्र सरकार को दोषी बताया है। उधर पुणे में, पीम्प्री पुलिस ने हिंसा भड़काने के आरोप में हिन्दू एकता अघादी के प्रमुख मिलिंद एकबोते तथा शिवराज प्रतिष्ठान के अध्यक्ष संभाजी भिड़े के खिलाफ मामले दर्ज किए हैं। दोनों संगठनों ने युद्ध में ‘ब्रिटेन की जीत’ का जश्न मनाने का विरोध किया था।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर आरपी पाठक कहते हैं "बिना राजनीतिक सह के जातीय हिंसा हो ही नहीं सकती। जातीय हिंसा सांप्रदायिक हिंसा से ज्यादा खतरनाक होती है। अगर जाति को बतौर वोट बैंक देखना छोड़ दिया जाये तो देश में दंगे होंगे ही नहीं। हर जाति की अपनी पार्टी है, एक जाति की कई-कई पार्टियां हैं। उन्हें वोट चाहिए। ऐसे में वे वोट बैंक को भड़काने का काम करते हैं। और फिर सभी पार्टियां अपने-अपने तरीके से उसमें फायदे देखती हैं।

उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में पांच मई 2017 को भी ऐसी ही एक जातीय हिंसा हुई। सहारनपुर से 25 किलोमीटर दूर शिमलाना गांव में पांच मई को महाराणा प्रताप जयंती का आयोजन था, जिसमें शामिल होने के लिए पास के शब्बीरपुर गांव से कुछ लोग शोभा यात्रा निकाल रहे थे। विवाद की शुरुआत इसी घटना से हुई। बाद में बसपा सुप्रीमो मायावती के दौरे के बाद हिंसा और भड़क गयी थी, जिसमें एक व्यक्ति की मौत भी हो गयी थी। हिंसा भड़काने के अरोप में भीम आर्मी के मुखिया चन्द्रशेखर आजाद उर्फ रावण को हिमाचल प्रदेश में गिरफ़्तार किया गया। बाद ऐसी भी खबरें भी आयीं कि चंद्रशेखर के राजनीतिक संबंध मायावती से थे। भाजपा ने तो यहां तक आरोप लगाये थे कि हिंसा बसपा के इशारे पर हुआ था।

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साल 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों में करीब 63 लोग मारे गए थे और 50 हजार से भी ज्यादा लोग विस्थापित हो गए थे। इस दंगे ने पूरे देश में राजनीतिक बहस शुरू कर दी थी और तत्कालीन समाजवादी पार्टी की सरकार की खूब किरकिरी हुई थी। इस मामले में दोनों पक्षों की ओर से खूब राजनीति हुई। मारे गए लोगों के लिए महापंचायत हुई। नंगला मंदौड़ में हुई महापंचायत में भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय नेताओं पर यह आरोप लगा की उन्होंने जाट समुदाय को बदला लेने को उकसाया। वहीं आजतक के स्टिंग ऑपरेशन में पता चला था कि तत्कालीन मंत्री आज़म खान के आदेश पर पुलिस अफसरों ने विशेष समुदाय के दोषी लोगों को छोड़ा था।

पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर डॉ अखिलेश ठाकुर कहते हैं "बस ये नहीं कह सकते कि जातीय हिंसा राजनीति से ही प्रेरित होते हैं। लोगों की भावनाएं किसी विशेष के खिलाफ दबी रहती हैं और नेता उसे हवा दे देते हैं। ऐसे में जितने दोषी नेता हैं, उतना ही दोषी प्रशासन भी है। और ये भी सच है कि प्रशासन की डोर सत्ताधीश के पास होती है। ऐसे में जरूरी है हम अपने विवेक का प्रयोग करें और बहकावे में न आएं।"

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वहीं टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के हैदराबाद कैंपस के प्रोफेसर डॉ बीभू प्रसाद नायक कहते हैं "ये बात बिल्कुल सही है कि जातीय हिंसा या दंगे के पीछे राजनीति ही होती है। लेकिन सरकारों को इसके प्रति सजग रहना होगा। नेताओं के साथ-साथ प्रशासन भी इसके लिए दोषी होता है। अगर सरकार और प्रशासन अपना काम बखूबी करें तो ऐसी घटनाओं पर रोक लगाई जा सकती है।"

पिछले साल जुलाई में एक सवाल के जवाब में गृह राज्य मंत्री गंगाराम अहिरवार ने सदन में राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट पेश की थी। जिसमें कहा गया था कि मोदी सरकार के 3 साल के कार्यकाल में सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में 41 प्रतिशत इजाफा हुआ है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2014 में धर्म, नस्ल या जन्मस्थान को लेकर हुए विभिन्न समुदायों में हुई हिंसा की 336 घटनाएं हुई थीं।

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साल 2016 में ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़कर 475 हो गई। आंकड़ों के मुताबिक, साल 2014 में यूपी में ऐसी 26 घटनाएं हुई थीं तो साल 2016 में ऐसी 116 घटनाएं हुईं। यूपी में 3 सालों में ऐसी घटनाएं 346 प्रतिशत बढ़ीं। उत्तराखंड में जहाँ साल 2014 में ऐसी केवल चार घटनाएं हुई थीं वहीँ साल 2016 में 22 घटनाएं हुईं। यानी उत्तराखंड में ऐसी घटनाओं में 450 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।

       

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