गाँव की याद और बड़े शहर में छठ की परंपरा जिंदा रखने की जद्दोजहद

Mithilesh DharMithilesh Dhar   13 Nov 2018 8:15 AM GMT

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गाँव की याद और बड़े शहर में छठ की परंपरा जिंदा रखने की जद्दोजहदलखनऊ में भी छठ पर्व मनाया जा रहा है।

लखनऊ। पिछले कुछ वर्षों जो त्योहार सबसे तेजी से छठ उनमें से एक है। पूर्वी भारत से निकलकर ये दुनियाभर प्रचलित हो गया है। कहा जाता है छठ सिर्फ आस्था का पर्व नहीं ये उस विश्वास का त्योहार है, जहां कमाने के लिए परदेस गए बेटों का मां इस दिन लौट आने का भरोसा रखती है। दिल्ली-मुंबई और कोलकाता समेत कई देशभर के महानगरों से भर-भर कर आने वाले ट्रेनें इस बात की हर बात गवाही देते हैं कि ये परिवारों को पास लाने का भी त्योहार है। सूर्य उपासना का ये पर्व उपासकों के लिए बहुत खास है, इतना की वो साल भर इसका इंतजार करते हैं। इन दिनों में सोशल मीडिया में छाई गहरे पानी में खड़ी सिंदूर से रंगी महिला श्रद्धालुओं की तस्वीरें आस्था और संस्कार के इस पर्व की महानता बताती हैं।

कहते हैं कि छठ पूजा इतनी कठिन मानी जाती है कि ये किसी ग़ैर प्रदेश में पहले असंभव मानी जाती थी। इसीलिए तो छठ पूजा पर बिहार और उससे यूपी के क्षेत्रों में जाने वाले ट्रेनों में पैर रखने तक जगह नहीं होती। लेकिन अब थोड़ा बदलाव हुआ है। ऐसा माना जाता था कि बढ़ते पलायन के कारण इस पर्व की लालिमा थोड़ी घटेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वे लोग, वे युवा जो रोजी-रोजी के चक्कर में अपने घर नहीं पहुंच पाते, अपनों से दूर रहते हैं, वो लोग जहां हैं वहीं छठ पूजा कर अपनी परंपरा और धार्मिक मान्यता को जिंदा रखने का प्रयास कर रहे हैं। बड़े शहरों में अब तो इस पूजा के लिए विशेष प्रबंध भी किए जा रहे हैं।

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इस पर लेखिका गीता श्री अपने फेसबुक वाल पर लिखती हैं " हमारे बुजुर्ग इस बात को लेकर अक्सर चिंतित रहते थे कि समय के साथ-साथ हमारी परंपराएं और मान्यनाएं खत्म न हो जाए। उन्हें चिंता रहती थी कि पारंपरिक विरासतें हमारी युवा पीढ़ी कैसे संभालेगी। हम अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं, अपनी मिट्टी से दूर होते जा रहे हैं।"

इन तमाम दुश्वारियों के बावजूद कभी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का कहा जाने वाला त्योहार छठ पूजा अब क्षेत्रियता से परे हो चला है। ऐसा माना जाता था कि छठ अपने गाँव-घर में ही ढंग से मनाई जा सकती थी।

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छठ पूजा को लेकर अब तो बड़े-बड़े शहरों में बड़े आयोजन हो रहे हैं। वे लोग जो अपने घर नहीं पहुंच पा रहे वे जहां हैं, वहीं अपनी परंपराओं और मान्यताओं को जिंदा रखने का प्रयास कर रहे हैं। इस पर बिहार के मोतीहारी की मूल निवासी और अब मुंबई में रह रहीं लेखिका और रश्मि रविजा कहती हैं "छठ पर्व पर अगाध श्रद्धा है की बात है कि कई असुविधाएं होते हुए भी लोग जहां रहते हैं, वहीं छठ पूजा कर लेते हैं। कोई भी पर्व त्योहार अपनों के बीच, सामूहिकता में ही करने में आनन्द आता है पर कई मजबूरियाँ होती हैं। दफ्तर से छुट्टी नहीं मिलती। ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिलता। फ्लाइट टिकट बहुत महंगा होता है। आने-जाने का एक अतिरिक्त खर्च का बोझ पड़ जाता है। यही वजह है कि लोग चाह कर भी नहीं जा पाते। लेकिन छठ पूजा करना नहीं छोड़ते। बिल्डिंग के लॉन में, टेरेस पर एक बड़े टब में पानी रख कर उसमें खड़े हो पूजा कर लेते हैं।"

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अभी अपनी जड़ों से जुड़ा है छठ

रोजी-रोटी के लिए बड़ी संख्या में युवा हर साल अपना घर-बार छोड़कर दूसरे शहर या देश चले जाते हैं। ऐसा भी होता है कि इस पावन पर्व पर वे अपनों के बीच नहीं पहुंच पाते। लेकिन आधुनिक पीढ़ी इस संकट को खत्म जरूर कर रही है। युवा अपने माटी से जरूर दूर हुए लेकिन अपनी परंपरा और मान्यतायों की जड़ों से आज भी जुड़े हुए हैं। इस बारे में गीता श्री कहती हैं " हम लोग बिहार के दूसरे जिले में रहते थे, मगर छठ में गाँव चले जाते थे। पूरा परिवार जुटता था। एक सप्ताह रमन चमन बना रहता था। सारे लोग अक्षय नवमी के बाद ही लौटते थे अपने ठिकानों की ओर। बहुत मन लग्गू माहौल होता था। धीरे-धीरे पीढ़ियाँ जब विस्थापित हुईं तो छठ पूजा संकट में पड़ी। दूरियाँ बढ़ गईं और ट्रेन का रिजर्वेशन असंभव होता चला गया। फ़्लाइट के टिकट कई लोगों की पहुंच से बाहर।

ये फोटो गिरिंद्रनाथ झा ने अपने फेसबुक पर शेयर किया है। उनकी बेटी पंखुड़ी ने ये तस्वीर बनाई है।

ऐसे में छठ पूजा को बचाए रखना ज़रूरी महसूस हुआ। फिर जो जहाँ था, वहीं शुरू हो गया। छठ का बाज़ार उन तक पहुँच गया। चीज़ें मिलने लगीं और छठ पूजा समूचे देश में पहुँच गई। यहाँ तक कि मेरी बड़ी सासु माँ तो अमेरिका तक में छठ कर आईं। इंडियन शॉप में सारा ज़रूरी सामान मिल गया था। नई पीढ़ी में छठ पूजा को लेकर उत्साह थोड़ा कम हुआ था। उसकी कई वजहें थीं। लंबी छुट्टी का न मिलना, उपवास रखने के साहस की कमी और थोड़ी बहुत विचारों की मार। नास्तिकता ने भी विमुख किया। आधुनिकता की पहली शर्त मानी गई कि पुरानी परंपराओं से पीछा छुड़ाई जाए। समय बार बार करवट लेता है। वही पीढ़ी जो विचारों के संक्रमण से जूझ रही थी, छठ के प्रति अपनी भावुकता पर क़ाबू न पा सकी"।

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छठ पर्व सूर्य देव की उपासना के लिए प्रसिद्ध है। दिवाली के बाद सबसे बड़ा त्योहार आता है छठ पूजा। इस पर्व को कई नामों से जाना जाता है जैसे छठ. छठी, डाला छठ, डाला पूजा, सूर्य षष्ठी। ये पर्व सूर्य और उसकी शक्ति को समर्पित होता है। इस दिन लोग सूर्य को अच्छी सेहत देने, खुशियां और उनकी रक्षा करने के लिए धन्यवाद करते हैं। पटना में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार कौशलेंद्र रमण बताते हैं " छठ का भोजपुरी में अर्थ होता है छठा दिन।

कार्तिक महीने की चतुर्थी से शुरू होकर सप्तमी तक मनाया जाने वाला ये त्योहार चार दिनों तक चलता है। मुख्य पूजा कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की छठी के दिन की जाती है। छठ पूजा उत्तर भारत खासकर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। इस दौरान सूर्य भगवान को अर्घ्य देकर उपासना की जाती है। ये पर्व गागर निम्बू और सुथनी जैसे फलों को जिन्दा रखने के लिए भी जरूरी है। सूप और दौउरा को बनाने वालो के लिए ये पर्व संजीवनी जैसे है।"

छठ अब और व्यापक हुआ

पहले इसे कुछ क्षेत्रों से जोड़कर देखा जाता था। लेकिन इस क्षेत्रों वे लोग जो बाहर गए, उनके सामने इस त्योहार को मनाने की चुनौती। क्योंकि तब इसकी मान्यता कुछ क्षेत्र तक ही सीमित थी। अन्य जगहों पर लोग इसके बारे में नहीं जानते थे। इस बारे में कई साल दूसरे प्रदेशों में रहकर नौकरी करने के बाद अब घर लौटे पटना सिटी के कार्टुनिस्ट पंकज कुमार बताते हैं "हम सब दिवाली पर पटाखे जलाते थे और सुबह जले हुए पटाखों में से वो पटाखे खोजते थे जो नहीं जली। उन्हें छठ पूजा के लिए सुरक्षित रखते थे। सुबह वाले मुर्गा बम छोड़ेंगे, शाम वाले अर्घ्य में अनार और घरिया। छठ की तैयारी दिवाली से शुरू हो जाती थी। पूजा का इंतज़ार रहता था।

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पूजा की तैयारी के लिए पहले तो गेहूं और चावल आता था। धो कर सुखाया जाता था। छत पर पड़े अन्नों को चिड़िया से बचाते थे। छोटे कंकड और लकड़ी लेकर छत पर बैठते थे। सूखने के बाद गेहूं और चावल चुनते थे। अगले दिन पिसवाने जाते थे वो गेहूं। ये सब तभी संभव हो पाता है जब आप अपने घर पर हों। घर से दूर परदेश में हम त्योहार तो मना लेते हैं लेकिन फिजा की रंगत नहीं बदल पाती। हां, ये जरूर अच्छा रहा कि छठ अब प्रादेशिक नहीं, सर्वव्यापी हो गया है। आप जहां हैं, वहीं छठ पूजा कर सकते हैं"।

वहीं रश्मि रविजा कहती हैं "गाँव से बाहर छठ करने का एक लाभ और है इस पूजा में दूसरे प्रदेश के लोग भी शामिल होते हैं। वे अलग प्रांत की संस्कृति, परम्परा से परिचित होते हैं। आजकल बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग लगभग देश के हर कोने में रहते हैं और वे अपने साथ अपने प्रदेश की लोक परम्परा भी ले जाते हैं। वहां की सरकार भी उनके द्वारा पूजा करने की अच्छी व्यवस्था करती है। दिल्ली में सरकारी छुट्टी घोषित कर दी गई। मुंबई में जुहू बीच पूरी तरह साफ़ किया जाता है।

दिल्ली में छठ पर्व का मनोरम दृश्य।

क्यों जरूरी है छठ

"ये छठ जरूरी है" के शीर्षक के पटना के वरिष्ठ पत्रकार कुमार रजत ने 2014 में एक कविता लिखी थी, इसे पढ़कर आप अनुमान लगा सकते हैं कि क्यों जरूरी है छठ-

ये छठ पूजा जरूरी है

धर्म के लिए नहीं, अपितु...

ये छठ जरूरी है :

हम-आप सभी के लिए जो अपनी जड़ों से कट रहे हैं.

उन बेटों के लिए जिनके घर आने का ये बहाना है.

ये छठ जरूरी है :

उस मां के लिए जिन्हें अपनी संतान को देखे महीनों हो जाते हैं.

उस परिवार के लिए जो टुकड़ो में बंट गया है.

ये छठ जरूरी है :

उस नयी पौध के लिए जिन्हें नहीं पता कि दो कमरों से बड़ा भी घर होता है.

उनके लिए जिन्होंने नदियों को सिर्फ किताबों में ही देखा है.

ये छठ जरूरी है :

उस परंपरा को जिंदा रखने के लिए जो समानता की वकालत करता है.

जो बताता है कि बिना पुरोहित भी पूजा हो सकती है.

ये छठ जरूरी है :

जो सिर्फ उगते सूरज को ही नहीं डूबते सूरज को भी प्रणाम करना सिखाता है.

ये छठ जरूरी है :

गागर, निम्बू और सुथनी जैसे फलों को जिन्दा रखने के लिए.

ये छठ जरूरी है :

सूप और दउरा को बनाने वालों के लिए.

ये बताने के लिए कि इस समाज में उनका भी महत्व है.

ये छठ जरूरी है :

उन दंभी पुरुषों के लिए जो नारी को कमजोर समझते हैं.

ये छठ जरूरी है, बेहद जरूरी

बिहार के योगदान और बिहारियों के सम्मान के लिए.

सांस्कृतिक विरासत और आस्था को बनाये रखने के लिए.

परिवार तथा समाज में एकता एवं एकरूपता के लिए.

:: संयमित एवं संतुलित व्यवहार = सुखमय जीवन का आधार ::

.....जय हो छठी मइया.....

वहीं इस पर पत्रकार मनोरमा सिंह कहती हैं " उस सूरज और नदी को कैसे अलग कर सकते हैं खुद से ? पानी और आग बिल्कुल दो अलग-अलग, फितरत में एक दूसरे से एकदम उलट चीज़ें हैं, लेकिन जीवन इतना ही जटिल भी है, दो एकदम विरोधी प्रकृति, प्रवृति का संतुलन हो तभी मुमकिन हो पाता है ! हम अपनी जड़ों से कट कर कितने लोगों, कितने चेहरों, कितने शहरों, घरों और गलियों को अपने में लिए फिरते हैं, उन्हें भी जिनसे सदियों की उम्र का फासला होता है लेकिन बस अपनी मिट्टी छूते ही मिट जाता है, गीतों में ढल जाता है।

जैसे भूत, वर्तमान और भविष्य सारे समय को को छूते हुए अपने होने को विस्तार दे देना और इस एहसास की ऊष्मा से लगातार खुद को ऊर्जा देते रहना, लेकिन ये आग तभी बची रहती है जब हमारे भीतर हमेशा एक नदी भी बहती रहती है। छठ इसलिए भी ख़ास है कि हम कहीं भी रहें, हमारे भीतर का पानी, हमारे अंदर बहने वाली नदी को सतह पर ला ही देता है।"

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छठ हमें अपनी मिट्टी से जोड़ता है। उससे जुड़ाव की अनुभूति देता है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर की रहने वालीं और अब मारीशस में प्राइवेट सेक्टर में नौकरी कर रहीं संदना पांडेय कहती हैं "छठ अपनी लोकरंजकता और नगरीकरण के साथ गाँवों से शहर और विदेशों में पलायन के चलते न सिर्फ भारत के तमाम प्रान्तों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है बल्कि मारीशस, नेपाल, त्रिनिडाड, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, हालैण्ड, ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में भी भारतीय मूल के लोगों द्वारा अपनी छाप छोड़ रहा है। कहते हैं कि यह पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते सूर्य के साथ डूबते सूर्य की भी विधिवत आराधना की जाती है। यही नहीं इस पर्व में न तो कोई पुरोहिती, न कोई मठ-मंदिर, न कोई अवतारी पुरुष और न ही कोई शास्त्रीय कर्मकाण्ड होता है। मारीशस में इकट्ठा होकर ये पर्व मनाते हैं और अपने बच्चों को इसके बारे में बताते हैं।

          

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