जनसंख्या दिवस विशेष: विलुप्त होने की कगार पर हैं कई आदिम जनजातियां

Ashwani NigamAshwani Nigam   10 July 2018 11:34 AM GMT

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जनसंख्या दिवस विशेष: विलुप्त होने की कगार पर हैं कई आदिम जनजातियां

लखनऊ। देश एक तरफ जहां तेजी से जनसंख्या का बढ़ना जारी है वहीं देश की कई आदिम जनजातियां विलुप्त होने की कगार पर खड़ी हैं। स्थिति यह है कि आदिवासियों के नाम पर साल 2000 में बनने वाले झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में निवास करने वाली माल पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया, असुर, बिरहोर और बिरिजिया, बैगा और कोरबा जैसी आदिम जनजातियों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। इसको लेकर मानवशास्त्रियों ने चिंता व्यक्त की है।

स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव, गरीबी, अशिक्षा, शिशु मृत्यु दर और प्रसव के दौरान महिलाओं की मौत के कारण झारखंड में निवास करने वाली माल पहाड़िया, सौरिया पहाड़िया, असुर, बिरहोर और बिरिजिया और छत्तीसगढ़ की बैगा, कोरबा और बिरहोर जैसी आदिम जनजातियों की जनसंख्या में गिरावट आ रही है।


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आदिम जनजातियों की जनसंख्या के घटने की पुष्टि आंकड़ें भी करते हैं साल 2001 में जहां झारखंड में इनकी आबादी 20,6000 लाख थी जो 2011 में घटकर 17,2425 लाख रह गई है। झारखंड में सबसे ज्यादा खतरा आदिम जनजाति पहाड़ियां की जनसंख्या पर मंडरा रहा है। बिहार से अलग होकर जब झारखंड बना तो झारखण्ड की सरकार ने पहाड़िया जनजाति को बचाने के लिए कई प्रयास किए लेकिन वह योजनाएं धरातल पर नहीं उतर पाईं जिससे इनकी संख्या में गिरावट जारी है।

पुराने आंकड़ों को पलटे तो 1901 में इस इलाके में पहाड़िया की आबादी 3,51,264 थी। वहीं दस साल के बाद 1911 में यह 2,60,000 हुई। वहीं 1981 में 1,15,000 और 1991 में 1,00,000 तक आई। इन आंकड़ों से यह साफ़ है की दिनोदिन इनकी संख्या घटती गई। झारखंड के दुमका जिले में रहनेवाले के नलिनीकांत बताते हैं, 'आदिम जनजाति पहाड़िया में कुपोषण के सबसे अधिक मामले पाए जाते हैं। यही नहीं इनकी औसत उम्र भी आम जनजाति से कम होती है।'

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आदिवासी बाहुल्य माने जाने वलो छत्तीसगढ़ में भी आदिवासियों की संख्या में गिरावट आ रही है। यहां की सरकार ने बिरहोर, पहाड़ी, अबुझमाड़िया, बैगा, कोरवा और कमार को संरक्षित जनजातियां घोषित किया है लेकिन इसके बाद भी इनकी जनसंख्या घट रही है। साल 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ के जशपुर जिले में बसने वाली असुर जाति की जनसंख्या केवल 305 रह गई हैं। राज्य में बिरहोर आदिवासियों की संख्या भी केवल 401 बची है। ऐसे में इन जनजातियों को बचाना जरूरी है।

यूपी में आदिवासियों की स्थिति ठीक नहीं

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी आदिवासियों की स्थिति ठीक नहीं है। स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में इनकी जनसंख्या घट रही है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में 11 लाख, 34 हजार, 273 आदिवासी रहते हैं। इसमें भोतिया, बुक्सा, जन्नसारी, राजी, थारू, गोंड, धुरिया, नायक, ओझा, पाथरी, राज गोंड, खरवार, खैरवार, सहारिया, परहइया, बैगा, पंखा, अगारिया, पतारी,चेरो, भुइया और भुइन्या जैसे आदिवासी निवास करते हैं। सोनभद्र, मिर्जापुर, सिद्धार्थनगर, बस्ती, महाराजगंज, गोरखपुर, देवरिया, मऊ, आजमगढ़,जौनपुर, बलिया, गाजीपुर, वाराणसी और ललितपुर ऐसे जिले हैं जहां पर आदिवासी रहते हैं। इसके अलावा नेपाल से सटे उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र लखीमपुर-खीरी, सिद्धार्थनगर, गोरखपुर और महराजगंज जिले में थारू जनजाति के लोग भी रहते हैं।

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सिर्फ कागज़ पर चल रहीं योजनाएं

देश के बाकी राज्यों की तुलना में उत्तर प्रदेश के आदिवासियों की स्थिति भी बहुत खराब है। नौकरियों में भी आदिवासियों की संख्या बहुत कम है। आदिवासियों के लिए काम करने वाले सोनभद्र के आदिवासी कार्यकर्ता जगनारायण सिंह गोंड कहना है, 'आदिवासियों को भरपूर भोजन तक नसीब नहीं हो रहा है। बच्चें स्कूलों से दूर हैं। हमारे लिए योजनाएं सिर्फ कागजों पर ही चल रही है।'

जनजातियों के विकास और संरक्षण के लिए साल 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने केन्द्र में आदिवासियों के लिए अलग से जनजातीय कार्य मंत्रालय का गठन किया था। जुएल ओराम इस विभाग के केन्द्रीय मंत्री हैं, जो खुद आदिवासी है। इस मंत्रालय की कई आदिवासी कल्याण योजनाओं के बाद भी आदिवासियों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है।

       

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