कहानी गेट मैन की: 'सुना है शौचालय बहुत VIP है, लेकिन हमें पेशाब की भी फुर्सत कहां'
Ranvijay Singh 5 Feb 2019 1:16 PM GMT
रणविजय सिंह/प्रज्ञा भारती
लखनऊ। ''इस काम में मेहनत बहुत है। हमेशा चौकन्ना रहना है, हमें पेशाब जाने की भी फुर्सत नहीं मिलती।'' चेहरे पर तनाव लिए एक ट्रेन को हरी झंडी दिखाते गेट मैन अनुज कुमार मिश्रा यह बात कहते हैं। अनुज लखनऊ से बाराबंकी के रास्ते पर पड़ने वाले रेलवे फाटक 'स्पेशल गेट, 180A' पर गेट मैन के तौर पर तैनात हैं।
अनुज जिस रेलवे फाटक के कमरे में बैठे हैं वह छोटा सा है। उसी में फाटक को संचालित करने के तमाम साजो सामान लगे हैं, एक कुर्सी, एक टेबल, एक हर पल को बजता टेलीफोन और हवा न दे पाने वाला छोटा सा पंखा लगा है। अनुज बताते हैं, ''हमारी आठ घंटे की ड्यूटी है। कई बार 12-12 घंटे भी काम करना होता है, लेकिन फिलहाल उसका कोई पैसा नहीं मिलता। हां, अगर दो बार 12-12 घंटे काम कर लें तो उसके बदले एक दिन की छुट्टी जरूर मिल जाती है।''
इसी साल 31 जनवरी को मानवरहित रेलवे क्रॉसिंग को देश से पूरी तरह खत्म करने का दावा किया गया था। अंतिम मानवरहित क्रॉसिंग इलाहाबाद मंडल में बची थी, जिसे खत्म करते हुए वहां रेलवे की ओर से एक पत्थर लगाया गया है। इस पत्थर पर लिखा है, 'आज दिनांक 31-01-2019 को इलाहाबाद मंडल के चुनार-चोपन रेलखंड के मानव रहित रेलखंड सं. 28-सी को बंद किया गया। यह भारतीय रेल के ब्रॉड गेज तंत्र के उन 4605 समपारों में से अंतिम मानवरहित समपार है, जो भारतीय रेलवे ने अपने अथक प्रयासों से पिछले 15 महीनों में हटाए हैं।'' यानी देश में कोई भी मानवरहित क्रॉसिंग नहीं बची है।
संसद में बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने भी इसका ऐलान किया था। उन्होंने कहा था, ''देश की रेलवे लाइनों पर सभी मानवरहित क्रॉसिंग को खत्म कर दिया गया है, इससे इन ट्रैक्स पर होने वाली दुर्घटनाओं पर लगाम लगी है।''
हालांकि, जिन लोगों (गेट मैन) पर इन दुर्घटनाओं पर लगाम लगाने की जिम्मेदारी है उन्हें अपने कार्य स्थल पर सुविधाओं के नाम पर ज्यादा कुछ नहीं मिला है। लखनऊ-बाराबंकी रोड पर स्थित 'स्पेशल गेट, 180A' पर न तो ढंग का पंखा है न ही बैठने पीने के पानी की ठीक व्यवस्था। स्वच्छ भारत अभियान के तहत एक शौचालय लाकर रखा गया है, लेकिन उसपर भी ताला लगा हुआ है। शौचालय पर लगी टंकी तक पानी पहुंचाने की भी कोई सुविधा नहीं है।
इस नए मिले शौचालय को देखते हुए गेट मैन अनुज कहते हैं, ''यह तो अभी आया है। इसकी चाभी पता नहीं किसके पास है।'' अनुज मिश्रा कहते हैं, ''यह ऐसी नौकरी है कि आठ घंटे में आप कहीं जा नहीं सकते। अगर शौच जाने की बहुत दिक्कत हुई तो पहले स्टेशन मास्टर को बताना होता है तब जाकर यहां से कहीं जा सकते हैं।'' अनुज बताते हैं, ''अभी तक तो शौचालय का इस्तेमाल नहीं किया है। सुनने में आता है कि बहुत वीआईपी शौचालय है।''
अनुज जिस कमरे में बैठते हैं उसका हाल बहुत खराब है। टीन की छप्पर से बरसात में पानी गिरता है तो गर्मियों में तपन की वजह से हालत खराब हो जाती है। ऊपर से काम ऐसा कि आठ घंटे में करीब 44 से 45 ट्रेनों को सिग्नल देना होता है। ऐसे में खुद के लिए वक्त तो मिल ही नहीं पाता। अनुज कुमार बताते हैं, ''इस काम में आप मोबाइल की ओर भी नहीं देख सकते। हमेशा चौकन्ना रहना होता है।''
अभी कुछ रोज पहले अनुज को कुछ लोग मारने भी चले आए थे। अनुज बताते हैं, ''वैसे तो फाटक गिरे होने पर किसी को रेल पटरी को पार नहीं करना चाहिए, लेकिन लोग मानते नहीं हैं। साथ ही अगर फाटक कुछ देर के लिए गिरा रहा गया तो लोग नाराज होते हैं वो अलग।'' अनुज बताते हैं, ''अभी कुछ दिनों पहले कुछ लोग मुझे मारने चले आए थे। वो फाटक गिरने की वजह से नाराज थे। मैंने कहा, ट्रेन आ रही है और नियम के तहत फाटक गिरा रहेगा, अब आपको जो करना है कर लीजिए। इसपर वो लोग समझ गए, लेकिन और लोग समझे तो बात बने। लोगों को समझना होगा कि यह हम उनकी सुरक्षा के लिए ही कर रहे हैं।''
रेल मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 2014-2015 में मानवरहित फाटकों पर विभिन्न घटनाओं में 130 लोगों की जान चली गई थी। 2015-16 में ऐसे फाटकों पर 58 लोगों और 2016-17 में 40 लोगों की मौतें हुईं। 2017-2018 में 26 लोग ऐसे फाटकों पर अपनी जान गंवा बैठे, जबकि पहली अप्रैल, 2018 से 15 दिसंबर, 2018 तक 16 लोग मारे गए थे।
अनुज कहते हैं, ''अब फाटक गिर रहा होता है और लोग उसी बीच में गाड़ी पार करते हैं। नीयम के तहत अगर कोई ट्रैक के बीच में है तो हम फाटक बंद नहीं करते, ऐसे में फाटक गिराने में दिक्कत होती है। पहले यहां इलेक्ट्रॉनिक मशीन से फाटक गिरता था, लेकिन इसके इस्तेमाल से तुरंत फाटक गिर जाता था, ऐसे में कई लोग घायल हो जाते हैं। इसलिए अब पुराने तरीके से ही फाटक गिराते हैं हम लोग।''
अनुज की तरह ही दिनेश कुमार भी इसी रेलवे क्रॉसिंग पर तैनात हैं। दिनेश बताते हैं, ''इस काम में दिक्कतें तो हैं। यह दिक्कतें तब और बढ़ जाती हैं जब आपके पास कोई सुविधा नहीं हो। अब आप ही देख लीजिए कि हमारे पास शुद्ध पीने के पानी की व्यवस्था तक नहीं है। इन सब हाल में कई बार 12-12 घंटे तक काम करना होता है। छुट्टी के लिए भी संघर्ष करना होता है। अभी तो ठंडी है तो काम चल जा रहा है, लेकिन गर्मियों में तो यहां बैठना मुश्किल होता है।''
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