'विभाजन को अब नहीं करना चाहते याद'

गांव कनेक्शन की टीम लखीमपुर जिले के मोहम्मदी ब्लॉक में पड़ने वाले एक गांव रवींद्रनगर, मियांपुर पहुंची थी। यह गांव बंगाली विस्थापितों का गांव है।

Daya SagarDaya Sagar   3 April 2019 12:48 PM GMT

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दया सागर/ रणविजय सिंह

लखीमपुर (उत्तर प्रदेश)। "जिसे हम उतनी दूर से बचा कर लाए थे, वह बेटा ही मर गया। हमें बहुत कष्ट हुआ था। लेकिन, क्या करते। हमारे बस में कुछ भी नहीं था।" पैंसठ साल की तारामती मंडल अपना आंगन बुहारती हुई बताती हैं।

तारामती मंडल बंगाली विस्थापित हैं जो उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले के रवींद्रनगर, मियांपुर गांव में रहती हैं। वह सत्तर के दशक में बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) से भारत आई थीं जब वहां पर 'मुक्ति युद्ध' चल रहा था। उस समय के बारे में पूछने पर उन्हें सबसे पहले अपने दुधमुंहे बेटे की याद आती है, जिसकी मृत्यु बुखार की वजह से ट्रांजिट कैंप में हो गई थी।

गांव कनेक्शन की टीम लखीमपुर जिले के मोहम्मदी ब्लॉक में पड़ने वाले एक गांव रवींद्रनगर, मियांपुर पहुंची थी। यह गांव बंगाली विस्थापितों का गांव है, जहां पर देश की आजादी (1947) और बांग्लादेश के मुक्तियुद्ध (1971) के दौरान भारत आए बंगाली विस्थापित और शरणार्थी बसे हुए हैं। इस गांव में करीब 600 बंगाली परिवार हैं। बंगाल से आए हुए इन शरणार्थियों को पहले बंगाल और फिर उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) के ट्रांजिट कैम्पों में रखा गया था और फिर पुनर्वास के तहत उन्हें अलग-अलग स्थानों पर बसाया गया।

खपरैल के एक छोटे मकान में रहने वाली तारामती सत्तर के दशक में भारत आई थीं। उस समय के स्मृतियों को साझा करते हुए बताती हैं, "पहले जेठ चला गया, फिर देवर चला गया और फिर एक बेटा था, वह भी हमें छोड़कर चला गया। जिसको जहां जान बचाने का मौका मिला, वह भाग निकला। कुछ रिश्तेदार बाद में ढूंढ़ने पर मिले, कुछ लोग अभी भी नहीं मिले हैं। जो मिले वे अभी वर्धमान और चौबीस परगना (पश्चिम बंगाल) में हैं। उस समय भागते वक्त सब छूट गए थे।"

तारामती सत्तर के दशक में पूर्वी बंगाल से भारत आईं थी। पलायन करते वक्त उनके दुधमुंहे बच्चे को बुखार हो गया था। इलाज के अभाव में कैम्प में उस बच्चे की मृत्यु हो गई।

इस गांव के लोग भले ही विस्थापित हैं लेकिन वे कभी भी अपने पुराने गांव वापस नहीं जाना चाहते। वह गांव जहां पर उन्होंने अपनी बचपन और जवानी बिताई थी। हालांकि इस गांव में अब बहुत कम लोग ही बचे हैं जो विभाजन और विस्थापन की यादों को समेटे हुए हो। अस्सी साल के सुखलाल मंडल उन्हीं कुछेक लोगों में से हैं।

सुखलाल पचास के दशक में भारत आए थे। वह उस समय के 'बुरे सपने' को याद नहीं करना चाहते। पूछने पर उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं और बंगाली में कहते हैं, "लोगों को ढूंढ़-ढूंढ़ कर मारा जा रहा था। किसी को चाकू मारा जा रहा था, तो किसी को बंदूक से उड़ा दिया जा रहा था। कोई अगर वहां से छिपकर भागना चाहते था, उन्हें भी खोजकर कर मार दिया जाता था। छोटे-छोटे बच्चों को ऊपर उछाल कर उन्हें चाकू की नोक पर गिराया जाता था। माओं के दूध पीते बच्चों को छीनकर उनके स्तन काट दिए जाते थे।"

सुखलाल मंडल जब विस्थापन की यादों को साझा करते हैं, तो उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं।

बांग्लादेश के खुलना के रामपाल थाना के मूल निवासी सुखलाल मंडल आगे बताते हैं, "हमारा वहां पर 8 बीघा जमीन था। इसके अलावा कई तालाब और सुपाड़ी-इलायची के बगीचे थे। यह सब छोड़ कर कौन आना चाहता है? लेकिन हमें आना पड़ा। हम खुशकिस्मत थे कि हमारे परिवार के सभी सात के सात सदस्य बच गए और वापस चले आए। पहले हमें पश्चिम बंगाल में ही एक शरणार्थी कैम्प में रखा गया और उसके बाद हमें रूद्रपुर लाया गया। रुद्रपुर के ट्रांजिट कैम्प से हमें यहां लाया गया। अब हम यहां (भारत में) पर खुश हैं और वहां (बांग्लादेश) कभी भी वापस नहीं जाना चाहते।"

'रवींद्रनगर ही अब हमारी कर्मभूमि'

रवींद्रनगर के प्रधान प्रतिनिधी प्रशांत ढाली सत्तर के दशक में भारत आए थे। बासठ साल के प्रधान प्रतिनिधि प्रशांत ढाली बताते हैं कि 1971 में जब वह भारत आए तो उनकी उम्र महज बारह साल थी। वह अपने माता-पिता और भाई के साथ आए थे, लेकिन उनके बाबा और बाबा के पांच भाई वहीं छूट गए थे। ढाली कहते हैं, "वह सब याद करके अभी भी मेरे रोंगठे खड़े हो जाते हैं। मैं तब केवल बारह वर्ष का था।" प्रशांत बताते हैं कि उन्हें अब 'उधर' वापस भी नहीं जाना। वह रवींद्रनगर को अपनी कर्म भूमि और भविष्य की पीढ़ी की जन्म भूमि बताते हैं।

पढ़िए रवींद्रनगर-मियांपुर गांव की पूरी कहानी

रवींद्रनगर के सरकारी स्कूल के बारे में यहां पढ़ें


    

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