पश्चिम बंगाल चुनाव: "लॉकडाउन के समय सरकार को लगा कि हमें भी खाने की जरूरत है, तब जाकर हमारा राशन कार्ड बना"

पश्चिम बंगाल चुनाव के लिए तैयार है, लेकिन यहां का ट्रांसजेंडर समुदाय अभी भी आवास, शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं के लिए जूझ रहा है। समुदाय अभी भी COVID-19 महामारी के प्रभाव से बाहर नहीं आ सका है। पश्चिम बंगाल चुनाव 2021 को लेकर हो रही बड़ी-बड़ी घोषणाओं में इस समुदाय की कोई झलक नहीं दिख रही।

Purnima SahPurnima Sah   24 March 2021 8:00 AM GMT

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पश्चिम बंगाल चुनाव: लॉकडाउन के समय सरकार को लगा कि हमें भी खाने की जरूरत है, तब जाकर हमारा राशन कार्ड बनायहां के किन्नरों का कहना है कि दूसरे राज्यों में किन्नर और ट्रांसजेडर्स अस्पताल, पुलिस स्टेशन, स्कूल जैसे जगहों पर काम करते हैं फिर हमारा राज्य इतना पीछे क्यों है। फोटो: पूर्णिमा शाह

कूच बिहार (पश्चिम बंगाल)। पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार का जोर पकड़ता जा रहा है। अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) जिसकी अगुवाई मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कर रही हैं और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उम्मीदवार एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप मढ़ रहे हैं। हाशिये पर खड़ा एक समुदाय सोच रहा है कि क्या यह चुनाव पिछले चुनावों से कुछ अलग होगा? किन्नर समुदाय के अधिकांश, जो कि किन्नर, तीसरे लिंग या ट्रांसजेंडर के रूप में भी जाने जाते हैं, उन्हें लगता है कि नहीं। वे प्रचारकों के कमजोर वादों को महज खाली बयानबाजी कहकर खारिज कर देते हैं।

"हर बार चुनाव से पहले राजनीतिक दल यह वादा करते हुए हमारे पास आते हैं कि वे हमारे लिए बहुत सारे काम करेंगे, लेकिन चुनाव का मौसम खत्म होने के बाद हम उन्हें फिर कभी नहीं देखते, "उत्तर बंगाल के कूच बिहार में चकीर मोर गाँव की स्वीटी ने गाँव कनेक्शन को बताया। इस गाँव में 21 किन्नर रहती हैं।

स्वीटी, फोटो: पूर्णिमा शाह

"जब हम में से अधिकांश लोग मतदाता पहचान पत्र हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तो हम कैसे वोट करेंगे।" चांदनी चक्रवर्ती शिकायत करती हैं जो चकीर मोर गाँव की ही रहने वाली हैं। समुदाय को लगता है कि सरकार उन्हें गंभीरता से नहीं लेती। वे कल्याणकारी योजनाओं के लाभ जैसे मतदाता पहचान पत्र, आधार कार्ड और राशन कार्ड के लिए भी संघर्ष करते हैं।

पश्चिम बंगाल एक महीने में आठ चरणों में होने वाले मतदान के लिए तैयार हो जो 27 मार्च से 29 अप्रैल के बीच होना है। परिणाम दो मई को घोषित किए जाएंगे। लड़ाई 294 सीटों के लिए है। कूच बिहार में 10 अप्रैल को मतदान होगा।

स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार हो या भर पेट खाना, राज्य किन्नर समुदाय के लिए यह एक कठिन काम है। भेदभाव, यौन उत्पीड़न, निरादर, समुदाय यह सब झेलता है। वे कहते हैं कि जाने के लिए उनके पास कोई और जगह भी नहीं है और वे यह भी नहीं सोचते कि चुनाव उनके जीवन में कोई बदलाव लाएंगे।

जुलाई 2015 में कोलकाता में राज्य सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग और सामाजिक कल्याण विभाग द्वारा एक पश्चिम बंगाल ट्रांसजेंडर विकास बोर्ड स्थापित किया गया था, जिसका मकसद ट्रांसजेंडर समुदाय को सरकार की कल्याणकारी योजनाओं तक पहुँचाने का था।

लेकिन, केवल कुछ किन्नर ही बोर्ड के अस्तित्व के बारे में जानते हैं, और जो जानते भी हैं, उनका कहना है कि कोर्ड असक्रिय रहता है और उनकी कोई भी समस्या का समाधान नहीं कर पाता। बोर्ड के पास राज्य में किन्नर समुदाय की आबादी के आंकड़े तक नहीं हैं।

राज्य में ट्रांसजेडर्स की संख्या कितनी है? ये सवाल पश्चिम बंगाल ट्रांसजेंडर विकास बोर्ड की उपाध्यक्ष मनबी बंधोपाध्याय से पूछने पर उन्होंने जवाब दिया, "क्या आप यह बता सकते हैं कि इस देश देश में कितने भिखारी, यौनकर्मी, भूखे और बेघर लोग हैं? फिर हमें किन्नर या ट्रांसजेडर्स की संख्या क्यों जाननी चाहिए? लोगों का पता लगाना और उनका पंजीकरण करना कठिन काम है।"

कूच बिहार जिले के बैरागी हाट गाँव में किन्नर का घर। फोटो: पूर्णिमा शाह

वहीं सोनमोनी शेख, जिन्हें उत्तर बंगाल और असम किन्नर एसोसिएशन के बोरो माँ (प्रमुख) के रूप में भी जाना जाता है, ने गाँव कनेक्शन से कहा, "हालांकि राज्य में हिजड़ों की संख्या पर कोई जनगणना नहीं है, फिर भी मुझे लगता है कि अकेले उत्तर बंगाल में ही इनकी जनसंख्या 2,000 है। " सोनमोनी उत्तर दिनापुर जिले के रायगंज से हैं और हाल ही में पश्चिम बंगाल ट्रांसजेंडर विकास बोर्ड की सदस्य बनी हैं।

"हिजड़ा समुदाय को महिला और बाल विकास और सामाजिक कल्याण विभाग के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है? चेयरपर्सन महिला क्यों होती है ट्रांसजेंडर क्यों नहीं? " पश्चिम बंगाल में ट्रांसजेंडर / किन्नर एसोसिएशन की सलाहकार और गोखले रोड बंधन की सचिव रंजीता सिन्हा गाँव कनेक्शन से कहती हैं। ये दोनों संगठन समुदाय आधारित हैं और ट्रांसजेंडर समुदाय के विकास के लिए काम कर रहे हैं।

"बोर्ड के गठन का पूरा उद्देश्य हमारी समस्याओं का पता लगाना था और समाज को और ज्यादा संयुक्त करना था, लेकिन बोर्ड के गठन के तीन साल बाद भी कुछ नहीं हुआ, "रंजिता आरोप लगाते हुए कहती हैं। उनके अनुसार 2018 तक बोर्ड के सदस्यों को हर महीने एक अच्छी सैलरी मिलती रही, जिसके बाद यह बंद हो गई। जनवरी में ही बोर्ड को फिर से शुरू किया गया था और इसके कुछ सदस्यों को बदल दिया गया था।

सिन्हा बोर्ड की असंवेदनशीलता की भी आलोचना करती हैं। "हमारे बुनियादी मुद्दों जैसे कि घर, शिक्षा, प्रतिष्ठा पर काम करने की बजाय, समझ में नहीं आता है कि हमें शादीशुदा महिलाओं के लिए दुर्गा पूजा के दौरान सिंदुर खेला में भाग लेने के लिए क्यों कहा जाता है जब हमारे पास अभी भी शादी करने या अपनाने का अधिकार नहीं है, "उन्होंने आगे कहा।

बीरपारा के दलगाँव बस्ती के मधुसूदन सरकार (62 वर्ष) ने कहा, "मैंने कभी भी किसी ट्रांसजेंडर बोर्ड के बारे में नहीं सुना।" इस गांव में 16 किन्नर रहते हैं।

यह समुदाय अभी भी COVID-19 महामारी के प्रभाव से बाहर नहीं निकल पाया है। लगभग पांच महीनों तक इनके पास आय का कोई स्रोत नहीं था। वे उन पड़ोसियों पर निर्भर थे जो बाहर से चावल और आलू लेकर पहुंचे थे। "लेकिन हमारे पास जलाऊ लकड़ी, तेल या मसाले खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, "सरकार ने कहा।

कूच बिहार जिले के बैरागी हाट गाँव के एक कमरे के घर में कई किन्नर रहते हैं। फोटो: पूर्णिमा शाह

"लॉकडाउन के समय मैंने अपना खाना कम कर दिया ताकि मैं पैसे बचाकर अपनी सांस की दवाइयां खरीद सकूं। COVID-19 लॉकडाउन के पांच महीने बाद पंचायत ने वृद्धावस्था पेंशन योजना के तहत मेरा रिजस्ट्रेशन कराया। मुझे यही एक मात्र लाभ हाल ही में मिला। "उन्होंने आगे कहा।

राज्य की राजधानी कोलकाता से लगभग 700 किलोमीटर दूर कूच बिहार जिले के बैरागी हाट गाँव में सोलह किन्नरों का समूह रहता है। सदस्यों का कहना है कि वे कोच राजबंशी हैं, जो कि प्राचीन जनजाति है। कूच बिहार पर कभी कोच राजबंशी शासन करते थे। यह समुदाय जिले के विभिन्न हिस्सों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों, मेलों और प्रदर्शनियों में बिश्रोहरा और सत्यपिर (भक्ति गीत) गाता है। बंगाल और असम के लोक रंगमंच और जात्रा भी करते हैं।

मोना बर्मन अपने ग्रुप की बेस्ट डांसर हैं। इस 30 वर्षीय डांसर को COVID-19 महामारी से पहले लोग धार्मिक और सामाजिक कार्यों में प्रदर्शन करने के लिए आमंत्रित करते थे, लेकिन लॉकडाउन के साथ सब कुछ बदल गया। लॉकडाउन हटने के बाद भी अब स्थिति में सुधार नहीं आ रहा। "हमें लोगों के घरों के गेट से जाने के लिए कहा गया, कुछ ने दो या पाँच रुपए दूर से फेंक दिए। हमने सिक्के इकट्ठे किये और वहां से निकल गये। लोग हिजड़ों के करीब आने से भी डरते हैं, जहां कभी वे अपने नवजात शिशुओं को हमें अपने हाथों में लेने देते थे और हम उनके साथ डांस करते थे।" मोना ने कहा।

कभी-कभी किस्मत अच्छी होने पर 200 से 300 रुपए भी हर दिन मिल जाते हैं। "महामारी से पहले हमें हर कार्यक्रम के कम से कम एक हजार रुपए मिलते थे, "मोना ने आगे कहा।

उत्तर बंग (उत्तर बंगाल) किन्नर एसोसिएशन की सदस्य चांदनी बिस्वास। फोटो: पूर्णिमा शाह

"लॉकडाउन के दौरान हमारा राशन खत्म हो गया और हमने कई दिनों तक पानी और मुट्ठी भर चावल के सहारे दिन काटे हैं। हम अपना किराया नहीं दे सके। एक स्थानीय संगठन ने हमें चावल, दाल और आलू दिया।" कूच बिहार से उत्तर बंग (उत्तर बंगाल) किन्नर एसोसिएशन की सदस्य चांदनी बिस्वास ने गाँव कनेक्शन को बताया।

शेख ने गाँव कनेक्शन को बताया कि पिछले महीने पश्चिम बंगाल ट्रांसजेंडर विकास बोर्ड ने एक बैठक की जिसमें उन्होंने आवास, नौकरी, पेंशन योजना, शिक्षा, स्वास्थ्य और चिकित्सा सुविधाओं के लिए किन्नर समुदाय की बात को सामने रखा, लेकिन बोर्ड के मनाबी बंद्योपाध्याय से संपर्क करने पर उन्होंने बोर्ड की भविष्य की योजनाओं के बारे में जानकारी देने से इनकार कर दिया।

जाहिर है, हिजड़े गुस्से में हैं। "2014 में ट्रांसजेंडर/हिजड़ों को थर्ड जेंडर की मान्यता दी गई थी लेकिन तब से क्या हुआ है? लॉकडाउन के दौरान सरकार जाग गई और उन्हें महसूस हुआ कि हमें भी खाने की जरूरत है और तब जाकर उन्होंने कुछ लोगों को राशन कार्ड जारी किए। बहुतों को मिलना अभी बाकी है। "माथाभांगा गाँव के तपन डे ने गाँव कनेक्शन को बताया।

तपन डे, फोटो: पूर्णिमा शाह

"अन्य राज्यों में किन्नर और ट्रांसजेडर्स को अस्पताल, पुलिस स्टेशन, स्कूल आदि जगहों पर काम करते हैं फिर हमारा राज्य इतना पीछे क्यों है?" तपन डे सवाल करती हैं।

समुदाय के लिए शिक्षा एक दूसरा बड़ा मुद्दा है। वे जहां भी जाते हैं उन्हें लगातार धमकाया जाता है और यही कारण है कि उनमें से ज्यादातर या तो स्कूलों से बाहर हो गए हैं या कभी भी जाने की जहमत नहीं उठाई।

"शैक्षिक संस्थान हमारा स्वागत नहीं कर रहे हैं। हम घर पर अपने बच्चों को केवल प्रारंभिक शिक्षा ही दे सकते हैं। हमारे जैसे हजारों लोग हैं जिनके पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है, "बिश्राम ने कहा। वे आगे कहती हैं, "सरकार से मेरा अनुरोध है कि हिजड़ा समुदाय के लिए एक नाइट स्कूल खोला जाए ताकि हम कुछ सीख सकें और अपना जीवन बदल सकें।"

इस गाँव में कई किन्नर परिवार रहते हैं। फोटो: पूर्णिमा शाह

यौन उत्पीड़न एक ऐसी चीज है जिसका समुदाय नियमित रूप से सामना करता है, लेकिन वे कहते हैं कि उनकी मदद करने वाला कोई नहीं, कोई ऐसी जगह नहीं है जहां उन्हें मदद मिल सके। "कौन सा पुलिस स्टेशन एक हिजड़े से एफआईआर स्वीकार करेगा? हममें से एक को हाल ही में पुरुषों ने इसलिए पीटा क्योंकि उसने यौनिक संबंधों के लिए मना कर दिया था। उन लोगों ने उसका फोन तोड़ दिया और उसका हाथ चोटिल कर दिया। लोगों ने देखा, किसी ने पुलिस वाले को फोन करने के लिए नहीं सोचा" ,चकिर मोर गांव के पलक ने दुखी मन से हुए।

"हम घरों का किराया देने के लिए संघर्ष करते हैं। माथाभांगा से रिया बर्मन ने कहा, "एक घर का मालिक होना एक सपना है। हिजड़े समाज की नज़र में कुछ नहीं हैं"। उसने निष्कर्ष निकाला।

एक किनारे पर छूट गये राज्य के हिजड़ा समुदाय के जीवन में क्या बंगाल चुनाव के नतीजे कोई बदलाव लाएंगे?

अनुवाद: संतोष कुमार

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