जब डिस्कवरी और नेशनल जियोग्राफिक का दौर नहीं था, तब हम इनसे सरल भाषा में साइंस समझते थे 

Shefali SrivastavaShefali Srivastava   25 July 2017 7:26 PM GMT

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जब डिस्कवरी और नेशनल जियोग्राफिक का दौर नहीं था, तब हम इनसे सरल भाषा में साइंस समझते थे प्रोफेसर यशपाल (फोटो साभार : गूगल)

लखनऊ। बच्चे जन्म से ही जिज्ञासु होते हैं, दूसरे अर्थ में वे पैदाइशी साइंटिस्ट होते हैं। वे हमेशा सवाल पूछते हैं उनके जवाब ढूंढने के लिए प्रयासरत होते हैं। उनके सवाल भी अनोखे होते हैं। वैज्ञानिकों की साइंस को आमजनों व बच्चों के लिए आसान बनाने वाले प्रोफेसर यशपाल का कुछ ऐसा ही मानना था।

सोमवार रात 90 वर्ष की उम्र में नोएडा में उनका निधन हो गया। वह अपने आखिरी दिनों में लंग कैंसर से पीड़ित थे लेकिन बीमारी की वजह से शायद ही उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई थी। पद्म विभूषण और पद्म भूषण से सम्मानित प्रोफेसर यशपाल 1983 से 1984 तक योजना आयोग के मुख्य सलाहकार रहे हैं। इसके बाद 1986 से 1991 तक वह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अध्यक्ष भी रहे।

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दूरदर्शन का ‘टर्निंग पॉइंट’

इसी दौरान दूरदर्शन में द टर्निंग पॉइंट में हम उन्हें एंकर के रूप में भी देखा था। यह एक साइंस मैगजीन प्रोग्राम था जो दूरदर्शन में 1991 में ऑनएयर होता था और इंटरनेशनल अवॉर्ड भी जीते। इस कार्यक्रम में विज्ञान के आश्चर्य और उससे जुड़े तथ्यों को रूबरू कराया जाता था। ये वो दौर था जब डिस्कवरी, नेशनल जियोग्राफिक और एपिक जैसे साइंस चैनल नहीं हुआ करते थे। उस दौर पर जब प्लेराइटर व एक्टर गिरीश कर्नाड के साथ सिर पर कम बालों वाले चश्मा लगाए इस बुजुर्ग साइंटिस्ट को हम देखते थे तो हमें साइंस बिल्कुल भी कठिन नहीं लगती थी और सरल मालूम होती थी। इसके अलावा वे साइंस प्रोग्राम भारत की छाप के सलाहकार बोर्ड में भी शामिल थे।

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दिल्ली स्थित एक संस्था से जुड़े पत्रकार संजय श्रीवास्तव बताते हैं, ‘वह जितने सरल स्वभाव से थे उतनी ही सरलता से कठिन से कठिन टर्म को भी समझा देते थे। वे बड़ी सादगी से रहा करते थे और किसी को अगर उनसे मिलना हो तो मिलने में ज्यादा वक्त नहीं लगाते थे। भारत में सेटेलाइट रिवल्यूशन लाने में भी इनका अहम योगदान रहा है। ’

हड़तालें रचनात्मक उद्देश्यों के लिए होना चाहिए न कि पब्लिसिटी के लिए

वह कहते थे कि शैक्षिक संस्थानों में हड़ताल या अभियान रचनात्मक उद्देश्यों के लिए होना चाहिए न कि पब्लिसिटी के लिए। पंजाब यूनिवर्सिटी में एक प्रोग्राम में अपनी यादें शेयर करते हुए बता रहे थे कि वो 1945 का दौर था जब वे यहां पढ़ाई करते थे। उस वक्त देश में आजादी की बातें होती थीं। वे इन बातों को ध्यान से सुनते थे और फिजिक्स ऑनर्स डिपार्टमेंट में होने वाली हड़तालों में भी हिस्सा लेते थे। उन्होंने बताया था कि देश में आजादी के बाद एक फिजिक्स लैब को सेट करने के लिए फंड करना तब मुख्य समस्या थी। तब यशपाल ने अपने प्रोफेसर के साथ मिलकर यूनिवर्सिटी में फिजिक्स लैब के लिए फंड इकट्ठा किया था।

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लिरिल कंपनी के साबुन को बेचकर इकट्ठा किया था फंड

यशपाल ने एक दिलचस्प किस्सा बताया कि एक दिन उन्होंने अपने दोस्तों के साथ लिरिल सोप कंपनी को एक पत्र लिखकर स्टूडेंट्स को कैंपस के सहकारी स्टोर्स में साबुन मंगाए थे। तब वे सभी आश्चर्यचकित रह गए थे जब कंपनी ने वाकई यूनिवर्सिटी के पते पर काफी सारे साबुन भिजवा दिए थे। स्टुडेंट्स को साबुन सप्लाई किया जाता था और बचा हुआ मटीरियल मार्केट में बेचकर स्टुडेंट्स के लिए फंड इकट्ठा किया जाता है।

यशपाल के बारे में कहा जाता था कि वे शिक्षा में जरूरत से ज्यादा पढ़ाई करने के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने इस मुद्दे की ओर केंद्र सरकार का कई बार ध्यान आकर्ष‍ित किया, जिसके बाद उनकी कोशिशों का यही नतीजा निकला कि उनकी अध्यक्षता में बनी कमेटी द्वारा ‘लर्निंग विदाउट बर्डन’ नाम की एक रिपोर्ट तैयार की गई, जो शिक्षा के क्षेत्र के लिए बेहद प्रासंगिक थी।

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प्रोफेसर यशपाल ने साल 1949 में पंजाब यूनिवर्सिटी से फिजिक्स से ग्रेजुएशन किया। इसके बाद उन्होंने 1958 में मैसेचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेकनोलॉजी से फिजिक्स में ही पीएचडी की। यशपाल ने अपने करियर की शुरुआत टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च से की थी। साल, 1973 में सरकार ने उन्हें स्पेस एप्लीकेशन सेंटर का पहला डॉयरेक्टर नियुक्त किया गया।

वे फिजिक्स के साइंटिस्ट थे, जब हिंदुस्तान आज़ाद हुआ और भाभा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च की स्थापना हुई तो यशपाल इसकी नींव रखने वाले लोगों में से थे। साल 2009 में विज्ञान को बढ़ावा देने और उसे लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाने की वजह से उन्हें यूनेस्को के कलिंग सम्मान से सम्मानित किया गया। मार्च 2007 से 2012 तक जेएनयू के कुलपति भी रहे।

       

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