दिल्ली के झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले दलितों का आशियाना एक बार नहीं, कई बार टूट चूका है

झुग्गीवासी क्या हमेशा ही एक डर के साथ जीते रहेंगे या फिर एक अच्छी उम्मीद और खुशियों से भरी सुबह उन्हें भी नसीब होगी। क्या उनका डर ख़त्म हो जाएगा? अब दिल्ली के झुग्गीवासियों की किस्मत सुप्रीम कोर्ट, केंद्र, भारतीय रेलवे और नागरिक अधिकारियों के फ़ैसले पर निर्भर है।

SuchitraSuchitra   23 Nov 2020 7:39 AM GMT

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दिल्ली के झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले दलितों का आशियाना एक बार नहीं, कई बार टूट चूका हैदिल्ली के लालबाग में झुग्गीवासियों को एक उचित पुनर्वास योजना और सरकार द्वारा अनुमोदित एक सुरक्षित जगह पर पुनर्वास की उम्मीद है। फोटो: सुचित्रा

हम कभी भी यह नहीं चाहेंगे कि कोई दुखद अनुभूति हमारे जीवन में बार-बार दस्तक दे। पर जब नियति बार-बार उसी तरफ रुख़ करे तो ऐसे में इंसान या तो टूट जाता है या फिर चट्टान बन जाता है।

दिल्ली की झुग्गी-झोपडी में रहने वाले दलितों का कुछ यही हाल हुआ है। परेशानियाँ अब इनकी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा बन गई हैं। 31 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार 2 लाख 50 हज़ार झुग्गीवासी को बेदख़ल करने की तैयारी है।

इनमें से लगभग 1200 दलित कपाड़िया समुदाय और महावत विमुक्त जनजाति के लोग हैं, जिनमें से अधिकांश अतीत में विस्थापित हुए हैं। पर अब पुनर्वास योजना की कोई गुंजाइश दिखाई नहीं दे रही।

दिल्ली के शाहदरा इलाके के मानसरोवर पार्क के निकट लाल बाग झुग्गी-झोपड़ी के निवासी चिंता मूर्त हैं। लगभग 1500 की आबादी में 700 दलित और 500 विमुक्त जनजाति के लोग हैं। बीते 31 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद अब इनका आशियाना न चाहते हुए भी तबाही की राह तक रहा है।

इनमें से अधिकांश झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों के अतीत में इसी तरह की बेदखली देखी गई है। फोटो: सुचित्रा

आदेश के अनुसार शहर में 140 कि.मी. लम्बी रेलवे लाइन के साथ बसी 48,000 झुग्गी-झोपड़ी को हटाने का मतलब 2 लाख 50 हज़ार से भी अधिक लोग बेघर हो जाएंगे। इनमें से कम से कम 1500 लोग लालबाग के हैं, जिन्होंने पहले भी बेघर होने की कठिन परिस्थिति का सामना किया है।

31 अगस्त के कोर्ट के आदेश के अनुसार सुरक्षा क्षेत्रों में अतिक्रमण को तीन महीने के अंदर हटा देने के निर्देश का पालन होना चाहिए। अतिक्रमण हटाने के काम में किसी भी तरह के राजनैतिक दबाव और दख़लअंदाज़ी को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। और ना ही अतिक्रमण पर किसी भी कोर्ट को स्टे या रोक लगाने की अनुमति प्रदान की जायेगी।

कुछ चुनिंदा दिनों के लिए ही सही, झुग्गीवासियों को कुछ राहत मिली

निष्कासन की समयसीमा जो कि 30 नवंबर है, नज़दीक है। पर अब झुग्गीवासियों को थोड़ी राहत है। 14 सितंबर को कांग्रेस नेता अजय माकन ने झुग्गीवासियों के हित में याचिका दायर की है। और कई लोगों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ़ आवाज़ उठाई है।

इनको मद्देनज़र रखते हुए केंद्र ने पीठ को सूचित किया है कि जब तक अंतिम निर्णय नहीं आ जाता, विध्वंस की कोई कार्रवाई नहीं होगी। यह अंतिम निर्णय उत्तर रेलवे, दिल्ली सरकार, दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड और शहरी विकास मंत्रालय के साथ विचार-विमर्श कर लिया जाएगा। तब तक के लिए सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया है।

बेघर होने का ख़ौफ़ हर वक़्त सताता रहता है

पिछले हफ़्ते 10 नवंबर को गृह सचिवालय और रेलवे ने दलितों के पुनर्वास और पुनः स्थापन के संबंध में एक मीटिंग की। पर इस सम्बन्ध में फ़ैसले सुरक्षित हैं। किसी को कोई जानकारी नहीं है।

दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड से जुड़े बिपिन राय ने 'गाँव कनेक्शन' को बताया, "रेलवे की अनुमति के बिना हम कुछ नहीं कर सकते क्योंकि ज़मीन उनकी है। फिर भी हमने कई प्रार्थना पत्र भेजा है, पर कोई जवाब अब तक नहीं मिला है।"

दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड एक ऐसी संस्था है, जो दिल्ली शहरी पुनः स्थापन सुधार बोर्ड अधिनियम, 2015 से दिल्ली सरकार के अधीन कार्यरत है। यह बोर्ड झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों की नागरिक सुविधाओं, पुनः स्थापन नीतियों और पुनर्वास योजना समबन्धी मामले देखने का काम करता है।

इस साल 31 अगस्त को, सुप्रीम कोर्ट ने शहर में 140 किमी रेलवे पटरियों के किनारे स्थित 48,000 झुग्गियों को ध्वस्त करने का निर्देश दिया। फोटो: सुचित्रा

राय बताते हैं, "पुनः स्थापन के लिए हमारे पास उत्तर-पश्चिम दिल्ली के भलस्वा में ज़मीन और घर हैं। यह लाल बाग़ से 25 किलोमीटर, दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के द्वारका से 36 किलोमीटर और उत्तरी दिल्ली के बवाना से 38 किलोमीटर की दूरी पर है।"

हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क के कानूनी क्षेत्र के शोधकर्ता देव पाल 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "सरकार को पहले एक सर्वे के माध्यम से मुआयना कराना चाहिए कि अतिक्रमण से कितने लोगों की ज़िन्दगी पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। इसके बाद पुनर्वास से सम्बंधित एक सुनियोजित नीति तय करनी चाहिए। फिर झुग्गीवासियों के हित में फैसला लेना चाहिए। पर अफ़सोस कि अभी तक इस मामले में पारदर्शिता की बेहद कमी है। झुग्गीवासी हर रोज़ इस दहशत में जी रहे हैं कि पता नहीं कब उन्हें बेघर कर दिया जाएगा।"

65 वर्षीया वृद्धा बिंदु, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी झुग्गी-झोपड़ी में निकाल दी, कहती हैं, "खानाबदोश वाली ज़िन्दगी हम सालों से जीते आ रहे हैं। शुरुआत में सीलमपुर में रहे। इसके बाद लाल बाग़ में। अब अगला पड़ाव कहाँ होगा, नहीं पता। दु:खों का जाल गहराता ही जा रहा है।" बेटा कई वर्ष पहले ही घर छोड़ कर चला गया। मछलियाँ बेच कर जीविका चलाने वाली वृद्धा बिंदु के ऊपर अपनी पोती की भी ज़िम्मेदारी है।

महामारी के इस दौर में जहाँ एक तरफ़ घर में रहने की हिदायतें दी जा रही हैं, दूसरी तरफ़ यहाँ घर ही तोड़ने की बात की है। 11 वर्षीया बबली कहती हैं, "प्रशासन कह रही है झुग्गी हटाओ, झुग्गी हटाओ। प्रशासन यह क्यों नहीं बताता कि हम कहाँ जाएँ?" बबली जानना चाहती है कि महामारी कोविड -19 के इस हालात में प्रशासन क्या हमें कोई और आसरा देगी?

कई सालों से ठन्डे बस्ते में पड़ा एक और केस शहर में अपशिष्ट प्रबंधन को भी सुप्रीम कोर्ट ने 31 अगस्त को पास कर दिया। सन 1985 में वकील एम.सी. मेहता ने दिल्ली में बढ़ रहे वायु प्रदूषण के खिलाफ़ एक रिट याचिका दायर किया था। इस याचिका में अपशिष्ट प्रबंधन और प्रदूषण जैसे मामलों का ज़िक्र किया गया था। उदाहरणार्थ रेल की पटरियों पर जो कूड़ा डंप किया जाता है, उससे प्रदूषण फैलता है। प्रदूषण नियंत्रण को ध्यान में रखते हुए 140 किलोमीटर रेल की पटरियों से लगे झुग्गी-झोपड़ी भी साफ़ करना नितांत आवश्यक है।

फोटो : सुचित्रा

अपशिष्ट प्रबंधन को अस्तित्व में लाने का मतलब दलित और उनकी झुग्गी-झोपड़ी का सफ़ाया

दिल्ली शहर की मेट्रो लाइन के ऊपर मानसरोवर लाल बाग़ झुग्गी है, जिसमें 1500 लोग निवास करते हैं। इनमें से 1200 लोग दलित कपाड़िया समुदाय के हैं या फिर महावत विमुक्त जनजाति के हैं। मूल रूप से उत्तर प्रदेश से सरोकार रखने वाले ये दलित वर्ग या तो सड़कों पर नुक्कड़ कर या शादी-ब्याह जैसे समारोह में ढोल नगाड़े बजा कर या फिर कूड़ा बीनने वाले के रूप में अपना गुज़र बसर करते हैं।

दलित कपाड़िया समुदाय लोगों के घरों से पुराने कपड़े के बदले नए बर्तन देकर इन कपड़ों को फुटपाथों पर बेचते हैं। पर अब जब सर्वोच्च न्यायालय ने अपशिष्ट प्रबंधन को लागू करने का फ़ैसला ले लिया है तो फिर ना सिर्फ़ उनके घर बल्कि रोज़ी-रोटी भी छिनने वाली है।

सोनिया और उसका पति दोनों ही दिव्यांग हैं। पति भीख माँगता है और बच्चे कबाड़ी वाले हैं। सात बच्चों के साथ ज़िन्दगी की गाड़ी किसी तरह घसीट कर चल रही है। इस महामारी ने तो ऐसे ही जीना मुश्किल कर रखा है। और अब जब तब होने वाले अतिक्रमण से वे डरे हुए हैं। झुग्गी में रहने वाले सोनिया जैसे सभी दलितों की लगभग एक ही गाथा है। इस मुश्किल घड़ी में भी उन्हें अपने बच्चों के भविष्य की चिंता सता रही है।

झुग्गी वासियों के लिए बेघर होना कोई नई बात नहीं है

झुग्गी-झोपड़ी में जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए ऐसा पहली दफ़ा नहीं हुआ है। परिस्थितियां उनकी ज़िन्दगी को बार-बार बेघर होने के दुःख से अवगत कराती रहती हैं। अधिकांश झुग्गीवासी पहले दिल्ली के सीलमपुर में रहते थे, जो लाल बाग़ से पांच से छह किमी. की दूरी पर था।

प्रशासन ने उन्हें बिना किसी पुनर्वास या पुनः स्थापन योजना के उनकी झोपड़ियों से 15 वर्ष पूर्व बेदख़ल कर दिया था। इसके बाद वे खुद अपने बलबूते लाल बाग़ की झुग्गी में बस पाए। चालीस साल पुरानी लाल बाग़ झुग्गी में कई लोगों ने अपनी पूरी ज़िंदगी गुज़ार दी। यह किसी विडंबना से कम नहीं है।

झुग्गीवासी उचित पुनर्वास की मांग करते हैं। फोटो: सुचित्रा

'जहाँ झुग्गी वहीं मकान' का नारा गूँज रहा है

भारतीय रेलवे, जिनकी भूमि पर झुग्गियां बनी हुई हैं, ने निवासियों को पहले 2013 की ठिठुरती ठंडी में निकालने की कोशिश की और उसके बाद वर्ष 2017 में भी यही कोशिश की। हालाँकि उनके मंसूबे सफ़ल नहीं हो पाए। झुग्गीवासी, चुनाव के दौरान किये गए राजनेताओं के खोखले वादों से दु:खी हैं, जो चुनाव के तुरंत बाद भुला दिए जाते हैं। अब वे पुनर्वास की मांग कर रहे हैं।

जहाँ झुग्गी वहीं मकान अभियान की गूँज अब धीरे-धीरे सबको सुनाई दे रही है। लाल बाग़ के निवासी और प्रधान रामू ने निराश स्वर में 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "यह अभियान भी तब चलाया गया, जब हमारी झुग्गियाँ टूटने के कगार पर हैं। हमारी ज़िंदगी की कोई कीमत नहीं है। जब चाहें, जैसे चाहें और जहाँ चाहें, उखाड़ कर फेंक देते हैं। बच्चों की पढ़ाई और उनसे सम्बंधित अधिकार खेल बन कर रह गया है। बिना किसी विकल्प की व्यवस्था किये बिना हमें झुग्गी खाली करने को कहा जा रहा है।"

पुनर्वास की नकली योजनाओं से भी झुग्गीवासी भली-भाँति वाकिफ़ हैं। समस्याओं का कोई निश्चित समाधान नहीं है। बवाना के विस्थापित कॉलोनी के मिनातुल्लाह, वर्ष 2004 में दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश के बाद यमुना नदी के किनारे बसे झुग्गी के टूटने के बाद बवाना आ गये थे। मायूस मिनातुल्लाह कहते हैं कि बच्चों का भविष्य ताक पर लग गया है।

सिर्फ़ पुनर्वास ही एकमात्र समस्या नहीं

दिल्ली के इन झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों की बस एक पुनर्वास ही एकमात्र समस्या नहीं है। एक घर के साथ-साथ रोज़मर्रा की ज़रूरतें भी होती हैं। और सबसे महत्वपूर्ण नौकरी होती है।

झुग्गी निवासी आलम 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "बवाना में विस्थापित होने के बाद हमारे सामने अनेक समस्याएं खड़ी हो गईं। यमुना के आस-पास के अतिक्रमण में हमें झुग्गी खाली करनी पड़ी। और इसके बाद पुनः स्थापन का अर्थ था - पानी, बिजली, सड़क, नागरिक सुविधाएं, सुरक्षा और जीविका चलाने के लिए नौकरी जैसी समस्याओं से जूझना।"

आलम के अनुसार बवाना में विस्थापित होने के बाद पानी की बहुत भयंकर दिक्कत हुई। थोड़ा बहुत जो पानी मिलता, नमकीन और खारा मिलता।

झुग्गी के बच्चों पर शिक्षा पर पहली बड़ी चोट है। फोटो: सुचित्रा

अतिक्रमण के खिलाफ उठने वाली आवाज़ और उससे होने वाले नुकसान को ध्यान में रखते हुए दिल्ली हाउसिंग राइट टास्क फ़ोर्स ने डीयूएसआईबी और केंद्र के साथ गठबंधन किया। हाउसिंग राइट्स विशेषज्ञों ने मानवाधिकार की रक्षा और उन्हें बढ़ावा देने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया। पुनर्वास की उचित व्यवस्था के tतहत पर्याप्त हाउसिंग की व्यवस्था पहला महत्वपूर्ण कदम है।

पांच अक्टूबर, 2020 को गठबंधन की तय योजना का नाम दिल्ली में रेलवे भूमि पर पुनर्वास की व्यापक योजना रखा गया। इस योजना के तहत पुनर्वास के लिए सबसे पहले एक उचित पारदर्शी सर्वे की आवश्यकता है। आवश्यकतानुसार घर की वयवस्था के साथ-साथ रोज़मर्रा की आवश्यकताएं जैसे बिजली, पानी और साफ़-सफ़ाई का भी उचित प्रावधान होना चाहिए।

आवास और भूमि अधिकार नेटवर्क से जुड़े पाल ने 'गाँव कनेक्शन' को जानकारी देते हुए कहा, "संयुक्त राष्ट्र के अनुसार समुचित आवास हर मनुष्य का अधिकार है और दिल्ली में जो अतिक्रमण चल रहा है, वह न सिर्फ़ झुग्गी-झोपड़ियों का बल्कि मानवाधिकार का भी अतिक्रमण है। पाल गठबंधन का प्रमुख हिस्सा हैं।"

पुनर्वास एक महँगी प्रक्रिया है

झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले रोज़ाना के खर्चे चलाने में अक्षम रहते हैं तो ऐसे में उनके लिए पुनर्वास बहुत ही महँगा प्रावधान है। वज़ीरपुर स्थित संगठन ग्राम रोला मज़दूर एकता समिति में अनौपचारिक श्रम बल के अधिकारों की रक्षा के लिए कार्यरत रघुराज सिंह 'गाँव कनेक्शन' से बताते हैं, "पुनर्वास एक बड़ी व्यक्तिगत और किफ़ायती लागत पर आता है, जिसे अधिकांश लोग वहन नहीं कर सकते।"

भ्रष्टाचार, दस्तावेजों की कमी और पैसों की कमी की वजह से भी बहुत से लोग पुनर्वास का लाभ लेने से चूक जाते हैं। रघुराज आगे कहते हैं, "सर्वेक्षण की पारदर्शिता अत्यंत आवश्यक है। एक वैध प्राधिकारी द्वारा सर्वे कराने से ही इसके महत्व को समझा जा सकता है क्योंकि सर्वे के आंकड़ों के आधार पर ही झुग्गी-झोपड़ी वालों को न्याय दिलाया जा सकता है।"

पुनर्वास की सुविधा से वंचित रहने में कुछ अन्य कारण भी ज़िम्मेदार हैं

गरीब कहीं भी रहें, परेशानियाँ साये की तरह उनके साथ रहती हैं। जहाँ अभी रह रहे हैं और जहाँ दोबारा रहने की व्यवस्था होगी, दोनों का परिदृश्य एक समान होगा। सामाजिक विज्ञान के टाटा इंस्टिट्यूट की संस्था कोशिश में समाज सेविका के तौर पर भावना यादव पिछले कुछ वर्षों से लाल बाग़ झुग्गी के विमुक्त जनजातियों के उत्थान के लिए कार्यरत हैं।

भावना यादव 'गाँव कनेक्शन' से बताती हैं, "दस्तावेजों की कमी या फिर दस्तावेजों में फ़ेरबदल भी एक मुख्य कारण हैं। इसके अलावा पीडीएस, पेंशन और अन्य कल्याणकारी योजनाओं तक पहुँचने के लिए बहुत अधिक संघर्ष करना पड़ता है और इसके बाद भी निराशा ही हाथ लगती है।"

अब तक उन हजारों परिवारों के पुनर्वास पर कोई स्पष्टता नहीं है जो बेदखली के खतरे का सामना करते हैं। फोटो: सुचित्रा

मानव अधिकार क़ानून नेटवर्क में कार्यरत चौधरी अली ज़िआ कबीर ने 2017 में एक रिट याचिका दायर की थी। चौधरी अली ज़िआ कबीर बताते हैं, "इस मुद्दे को कानूनन उतनी प्रधानता नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए थी। झुग्गी वासियों को अपनी बात रखने का मौका ही नहीं दिया गया। बहुत ही बुनियादी कानून ऑडी अल्टेरम पार्टम नियम का पूर्ण उल्लंघन किया गया, जिसमें किसी भी व्यक्ति को अनसुना नहीं किया जा सकता। अदालतों द्वारा भी इस क़ानून की अनदेखी की जा रही है।"

समाज सेविका भावना यादव कहती हैं, "निष्कासन का स्वरुप इतना सघन है कि दिल्ली शहर के गरीबों को एक गहरा आघात लगेगा और वे इसमें इस कदर झुलस जाएंगे कि इससे उबर पाना बहुत ही मुश्किल होगा या शायद उबर ही नहीं पाएंगे।"

बेदख़ली या निष्कासन क्षेत्रीय और वैश्विक कानूनों का उल्लंघन करता है, जिसमें भारत बंधा हुआ है। और हम एक दूसरे के प्रति जो भी वचन देते हैं, एक दूसरे के साथ विश्वासघात करते हैं।

'गाँव कनेक्शन' ने इस सम्बन्ध में उत्तर रेलवे को कई फ़ोन कॉल और ईमेल किये पर उनकी तरफ से उदासीनता ही हाथ लगी। मतलब कोई जवाब नहीं मिला। मतलब साफ़ है। झुग्गीवासियों की किस्मत सुप्रीम कोर्ट, केंद्र, भारतीय रेलवे और नागरिक अधिकारियों के फ़ैसले पर निर्भर है।

उनका गौरव, बच्चों की पढ़ाई, उनका भविष्य सब एक फैसले पर टिका हुआ है। झुग्गीवासी क्या हमेशा ही एक डर के साथ जीते रहेंगे या फिर एक अच्छी उम्मीद और खुशियों से भरी सुबह उन्हें भी नसीब होगी। क्या उनका डर ख़त्म हो जाएगा? यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा।

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