गरीब आदिवासी किसान के बेटे की कहानी, जो जेएनयू का सबसे कम उम्र का एसोशिएट प्रोफेसर है
Basant Kumar 4 April 2017 7:10 PM GMT
लखनऊ। राजस्थान के एक छोटे से गाँव में गरीब परिवार में जन्म लेनेवाले गंगा सहाय मीणा जिस जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से पढ़ाई किए आज वहीं पर सबसे कम उम्र के एसोशिएट प्रोफेसर हैं। जेएनयू में अपने अध्यापन के 10 साल पूरा होने पर गंगा सहाय मीणा ने अपने संघर्ष की कहानी फेसबुक पर साझा किया पढ़िए मीणा की कहानी उन्हीं की जुबानी....
आपसे साझा करते हुए खुशी हो रही है कि आज मुझे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ( जेएनयू ) में काम करते हुए 10 साल पूरे हो गए। दिल्ली विश्वविद्यालय और पांडिचेरी विश्वविद्यालय में काम करने के बाद 2 अप्रैल 2007 को दिल्ली के जेएनयू में मैंने असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में जॉइन किया था। उसी निरंतरता में नई पोस्ट पर अक्टूबर 2015 में एसोशिएट प्रोफेसर का पद ग्रहण किया। आपको यह बताते हुए और आनंदित हूं कि इस वक्त आपका यह दोस्त जेएनयू का संभवतः सबसे युवा एसोशिएट प्रोफेसर है। एसोशिएट प्रोफेसर बनने के लिए यूजीसी के नियमानुसार 300 API चाहिए और उस वक्त (अप्रैल 2015 तक) मेरा 1000 से ज्यादा स्कोर था।
इस मौके पर मुझे अनायास ही अपना बचपन और पृष्ठभूमि याद आ रही है। यह पोस्ट इसीलिए लिख रहा हूं कि यहां इसे पढ़ने वाले छोटे भाई-बहनों, दोस्तों को दिलचस्प लगे। खासतौर पर इस उम्मीद के साथ कि मेरी जैसी पृष्ठभूमि वाले साथियों को शायद कुछ अपना सा लगे, कि हमारा बचपन कितना मिलता-जुलता था!
गेहूं की रोटी और सब्जी घर में रिश्तेदार आने पर ही मिलती थी
राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले के सेवा गाँव के एक गरीब किसान परिवार में पैदा हुआ। मां-पिता अनपढ़ मेहनती किसान। आसपास के अधिकांश बच्चों की तरह मेरे भी जन्म की तारीख कहीं दर्ज नहीं की गई। बाद में पूछने पर थोड़ी याद, थोड़े तुक्के से बस इतना बताया गया कि बाजरा बोने जा रहे थे और उस दिन शायद दोज थी। दूसरा तुक्का फलां से एक महीने बाद में पैदा हुआ और फलां से 6 महीने बड़े हो। सब जोड़ घटाकर तुक्का इस तरह बना कि मेरा जन्म 1982 की जुलाई में हुआ होगा। बाद में जब 10 जुलाई 87 को पिताजी स्कूल में नाम लिखाने गए, उन्होंने कहा कि 'छोरा पांच साल को होगो'। इस तरह मास्टर जी द्वारा मेरी जन्मतिथि 10 जुलाई 1982 दर्ज की गई।
शुरू से मैं एक सामान्य लड़का रहा हूं। मैं किसी चीज में कभी अव्वल नहीं रहा। किसी भी चीज में नहीं. न पढ़ने में और न खेलने में। बोलने में तो बिल्कुल नहीं। बल्कि मैं इतना संकोची रहा हूं कि गांव और स्कूल में भी बोलने से डरता था। मैं उस परिवेश से हूं जहां बच्चों की परवरिश को बहुत तवज्जो नहीं दी जाती. ज्यादातर लोग दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में दिनभर खेतों में खटते रहते हैं इसलिए उनके पास अपने बच्चों के लिए पर्याप्त समय ही नहीं होता। फिर धीरे-धीरे इसकी आदत हो जाती है और समय होने पर भी यह प्राथमिकता में नहीं होता। मैंने तमाम बच्चों को ऐसे ही पलते देखा है। पहले मां के फटे-पुराने लहंगे में खाट पर गंदगी में लिपटे हुए। थोड़ा बड़ा होने पर खेत की डौड़ (मेड़) पर नीम या बबूल के पेड़ के नीचे मिट्टी में लेटे हुए।
वहां छोटे बच्चों को खाना खिलाने के लिए उनके पीछे नहीं भागना पड़ता बल्कि वे बच्चे खाने के पीछे भागते थे। खाना क्या? बाजरे की रोटी या राबड़ी. घर की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण हम ज्यादातर दूध बेच देते थे। उससे मेरी व भैया की पढाई का और घर का खर्च चलता था। बड़े होने पर पता चला कि देश के दूसरे हिस्सों के ज्यादातर आदिवासी दूध नहीं बेचते और न ही दूध पीते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि उस पर सिर्फ बछड़े का हक है। हालांकि मेरी दूध पीने की आदत कभी विकसित नहीं हो पाई। गेहूं की रोटी और सब्जी घर में रिश्तेदार आने पर ही मिलती थी. गेहूं महंगा था और पानी की कमी के कारण खेत में पैदा नहीं होता था इसलिए साल में कुल एक-दो महीने ही खाया जा सकता था। सब्जी के नाम पर ज्यादातर पड़ोस से मांगकर लाई गई छाछ से बनी कढ़ी या घर की (चना, सरसों आदि) कोई अन्य सब्जी। हर सब्जी रसेदार होती थी। पावभर पूरे परिवार को। खूब मिर्ची डाली जाती ताकि सब्जी खत्म हो जाने का कोई खतरा न हो। धीरे-धीरे उतनी मिर्ची खाने की आदत भी हो गई। जिस दिन सब्जी नहीं बनती उस दिन या तो कांदे (प्याज) को मुक्का देकर उससे रोटी खाते या साबुत लाल मिर्च को चकला (सिलबट्टा) पर पीसकर उससे रोटी खाते।
मैंने हमेशा सरकारी संस्थानों से ही पढ़ाई की
मैंने हमेशा सरकारी संस्थानों से ही पढ़ाई की। कभी किसी प्राइवेट संस्था से कोई संबंध नहीं रहा। पहली से पांचवीं तक राजकीय प्राथमिक विद्यालय, सेवा (सरला); छठी से दसवीं तक राजकीय माध्यमिक विद्यालय, सेवा; 11वीं-12वीं- राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, गंगापुर सिटी और बी.ए. राजकीय महाविद्यालय, गंगापुर सिटी. एम.ए., एम.फिल. और पीएच.डी. जेएनयू से मास कम्युनिकेशन का डिप्लोमा केन्द्रीय हिंदी संस्थान से।
पढ़ने से भविष्य बदल सकता है, यह तो पिताजी को तथा अन्य घरवालों को पता था, लेकिन घर में कोई पढ़ाई का माहौल नहीं था। सुबह अपने से गाँव के कुएं पर नहाकर स्कूल जाओ। कुआं चारों तरफ से एकदम खुला था। सर्दियों में बड़ा मुश्किल होता खुले में ठंडे पानी से नहाना। ऐसा लगता कि जैसे सिर के अंदर खून जम गया है।दूसरी दिक्कत थी कि कुएं से पानी खींचते समय लगता कि अब गिरा, अब गिरा। तैरना आता था नहीं, इसलिए बहुत डर लगता था।इसके बावजूद सुबह लेज(रस्सी)-बाल्टी लेकर कुएं की ओर चल देने से ही दिन की शुरूआत होती। छीके में सूखी रोटी रखी रहती थी। स्कूल में रेस्ट (इंटरवेल) होने पर वही रोटी खाकर वापस चला जाता था। तब तक सारे लोग खेत में काम करने जा चुके होते थे। स्कूल से आकर फिर घर पर रहो या खेती के काम में मदद करो।अपने कपड़े खुद साफ करो। नहाने और कपड़े धोने का एक ही साबुन था- संसार सोप। एक रुपए से तीन रुपये की बीच की अलग-अलग साइज की साबुन की बट्टी आती थी। खुद ही होमवर्क करता था क्योंकि भैया की पढ़ाई में थोड़ी कम रुचि थी और ज्यादातर बाहर रहते थे। परिवार में अन्य कोई पढ़ा था नहीं। रात में थोड़ी देर कैरोसीन के दीये के उजाले में पढ़ता जिसमें रोशनी कम धुआं ज्यादा निकलता। यही दिनचर्या थी। एक संकोची सा, खुद से संवाद करने वाला। कुछ इसी तरह का बचपन था।
बहन मुझसे ढाई-तीन साल बड़ी है। इसलिए जो थोड़ा-बहुत खेलता था, उसी के साथ खेलता था। वहीं माटी में। हमारे पास कभी कोई खिलौना नहीं रहा। शायद उन दिनों खिलौने होते नहीं थे। होते होंगे तो हमने नहीं देखे। बेसरम के पौधे के फल में बबूल का कांटा लगा फिरकनी बनाते, बबूल के कांटे में ही आम का पत्ता लगा हवा के विपरीत कर घुमाते, एक घास या धागे में कंकड़ बांधकर ढोलापासी बनाते या फिर फटे-पुराने कपड़ों की लीर से गेंद बनाकर खेलते। आसपास के बच्चे कंचे खेलते, क्रिकेट खेलते, थो-गडा खेलते, आइस-पाइस खेलते, रामण बल्ला खेलते, पहली नमस्ते खेलते तथा और भी कई खेल खेलते लेकिन खेल में फिसड्डी होने के कारण या अन्य किसी वजह से वे मुझे अपने साथ नहीं खिलाते थे।
घर में हमेशा एक या दो भैंस, एक पडा या पडिया और एक गाय रही। खेती के लिए दो बैल भी रहे हैं। राजस्थान में, जहां चारे की बहुत समस्या है, इतने जानवर पालना बहुत मुश्किल होता था. आज की सोच का कोई व्यक्ति होता तो शायद इस झमेले में नहीं पड़ता. लेकिन उस वक्त ये जानवर किसान जीवन का अनिवार्य हिस्सा थे. अपने खाने को हो न हो, जानवर भूखे नहीं रहने चाहिए. जानवरों को पानी पिलाने भी बहुत दूर जाना पड़ता था. अक्सर मैं ही पानी पिलाने जाया करता था. बैल खेत जोतने के काम आते थे. काका (पिताजी) और भैया खेत जोतने का काम करते थे. अपनी 8-10 बीघा के आसपास की कुल जमीन को खुद ही जोत लेते थे. भैया की पढ़ाई में कम रुचि थी इसलिए उन्होंने शुरू से खेती का काम किया. मैं पढ़ाई में औसत था इसलिए मुझसे खेती का काम बहुत कम कराया. बहन निरक्षर रह गई. शायद एक दिन भी स्कूल नहीं गई, इसलिए उससे बहुत काम कराया. जीजी(माँ) और बहन ने मजूरी भी की- खासतौर पर नींदणी और लावणी में। जीजी ने तो मिस्टॉल में भी काम किया काफी दिन।
मैं और बहन गोबर बीनने जाते थे
जब हम बहुत छोटे थे, 5-7 साल के, तो मैं और बहन गोबर बीनने जाते थे। हां, खेतों से गोबर बीनते थे, जलाने के लिए। शायद उन एक-दो वर्षों में हमारे घर में भैंस नहीं थी इसलिए जलाने के कंडे बनाने के लिए गोबर की जरूरत होती थी। पड़ौसी गांव जीवली के खेतों तक हम गोबर बीनते थे. एक बार तो हम गोबर बीनते-बीनते खो गए थे। अपना नाम-पता बताना भी ठीक से नहीं आता था। बड़ी मुश्किल से घर पहुंचे।
मालूम है हमारी सबसे बड़ी हसरत क्या थी- रोड के किनारे जाते वक्त बस या ट्रक से गिरा हुआ कोई लोहे का टुकड़ा मिल जाए, जिससे हम अमरूद या नाशपाती या फूट खरीद लें! मेरी एक दूसरी हसरत भी थी, जो व्यक्तिगत थी कि पर्वाई पौन (पूरब से चलने वाली हवा) हो जाए और कोई पतंग कटकर हमारे घर में आ जाए। घर से कभी पतंग खरीदने के लिए पैसे नहीं मिलने और पतंग लूटने में फिसड्डी होने की वजह से देवी मैया से यही प्रार्थना करता रहता कि पर्वाई पौन हो जाय। मैं बचपन में पूरा धार्मिक था।
बहन और मैं गोबर बीनने के अलावा सरसों भी बीनते थे। हां, सरसों कटने के बाद खेत में और खेत से खलिहान के रास्ते में सरसों की इक्की-दुक्की डालियां गिर जाती थीं। दिनभर उनको बीनकर कूटते और साफ कर बणिया की दुकान पर बेच आते। सामान्यतः वो सरसों पचास पैसे से डेढ़ रुपये के बीच की होती। उसका पापड़ (आज की आलू चिप्स जैसा कुछ होता था) या नमकीन खा आते। खलिहान उठने पर भी ऐसा ही करते। खलिहान उठना यानी खलिहान से सारा काम खत्म होने पर जब किसान सरसों बोरी में भरकर घर ले जाते हैं। तब हम सरसों की फांफरी और टांटे को साफ कर थोड़ी सरसों निकाल ही लेते थे। मूंगफली खोदने के बाद जमीन में से मूंगफलियां ढूंढते।
इस तरह दो भाई, एक बहन और मां-बाप, एक छोटा सा सामान्य किसान परिवार। जिसके पास न कोई जमा-पूंजी थी और न (बहन की शादी से पहले) किसी का कर्ज। पहनने को कभी एक जोड़ी से ज्यादा कपड़े नहीं रहे. वो भी केवल स्कूल वाले. सफेद सर्ट और खाकी निक्कर। निक्कर में सामान्यतः पाती लगी होती। चड्डी-बनियान भी एक ही जोड़ी थे। एक दिन धोता, दूसरे दिन पहनता। 10वीं क्लास में पहला पैंट सिलाया गया, वो स्कूल के लिए खाकी वाला क्योंकि 10वीं के बच्चों के लिए पैंट जरूरी था। 10वीं या 11वीं में पहली टीशर्ट पहनी. बी.ए. फर्स्ट या सैकंड ईयर में पहला स्वेटर पहना। भैया की नौकरी लगने पर वह लाए थे. 10वीं से बी.ए. तक उतरन के कपड़े ही पहनने को मिले।
बी. ए. के तीनों साल परीक्षा देने के अलावा कोई पढ़ाई नहीं की। बहन शादी होकर ससुराल चली गई थी और भैया पढ़ाई के लिए बाहर चले गए तो घर में मेरी जिम्मेदारी बढ़ गई थी। पता नहीं कॉलेज में क्लास होती भी थी या नहीं! जुलाई से अक्टूबर तक गांव में दिनभर गाय-भैंस चराता और शाम को चरी की कुट्टी करता। सामान्यतः हम भैंस तालाब की पाड़्य पर चराया करते। वहीं बैठकर दिन में ताश भी खेलते। यही दिनचर्या थी।
यह बाबा आदम के जमाने की कहानी नहीं, 2001 ईस्वी तक के जीवन की एक छोटी सी झलक है। जानता हूँ कि आपमें से बहुत से साथियों का जीवन इससे काफी मिलता-जुलता रहा होगा। हमसे बाद वाली पीढ़ी का बचपन इससे भिन्न रहा है। पिछले दशक में दुनिया काफी तेजी से बदली है। 2001 के बाद मेरी जिंदगी भी पूरी तरह बदल गई।
मेरी जिंदगी बदलने वाली दो घटनाएं उस वर्ष (2001 में) घटी। मई-जून के महीने में जब जेएनयू की प्रवेश परीक्षा देने पहली बार दिल्ली आया था तो पिताजी दुनिया छोड़कर चले गए। इससे जीवन में ऐसी रिक्तता आई जो कभी नहीं भर पाएगी। 16 साल होने को है, लेकिन दिल ये मानने को तैयार नहीं है कि पिताजी छोड़कर चले गए! सच्चाई यह है कि पिताजी के होने पर एक जीवन था, पिताजी के बाद दूसरा जीवन है।
वो घटना जिसने मेरी ज़िन्दगी बदल दी
2001 के ही जुलाई में मेरा जेएनयू में पढ़ने के लिए चयन हो गया। मैं 10 जुलाई 2001 के आसपास पहली बार जेएनयू आया। ऐसे ही चलता-फिरता। डीयू गया था एम.ए. हिन्दी का फॉर्म भरने, लेकिन देर से पहुंचा इसलिए भर नहीं पाया। सोचा क्यों न इस जेएनयू नाम के 'कॉलेज' को देख लिया जाए। भैया के कहने पर जेएनयू की प्रवेश परीक्षा तो दे दी थी, लेकिन अभी तक मेरा खयाल था कि ये कोई प्राइवेट 'कॉलेज' है क्योंकि राजस्थान में सरकारी कॉलेजों के नाम के आगे 'राजकीय' लिखा होता है। पूछताछ कर जेएनयू आने के लिए मोरी गेट से 621 नंबर की बस (उन दिनों 615 के अलावा 621 भी पूर्वांचल तक आती थी) में बैठा। कडक्टर ने पूछा, 'कहां जाना है', तो मेरा जवाब था, 'जेएनयू' जाना है'। कंडक्टर ने फिर पूछा, 'जेएनयू में कहां उतरना है', मैंने कहा, 'जेएनयू उतरना है'। तब तक मैंने सोचा भी नहीं था कि एक यूनिवर्सिटी में भी कई (सात) बस स्टॉप हो सकते हैं। अंततः मैंने कह दिया कि वहां उतार दीजिएगा जहां रिजल्ट आता है। कंडक्टर ने मुझे एड-ब्लॉक वाले बस स्टैंण्ड पर उतार दिया। प्रशासनिक भवन में घुसते ही देखा कि प्रवेश परीक्षा के परिणामों की सूचियां लगी हुई थीं। एम.ए. हिन्दी की सूची में सबसे ऊपर मेरा नाम लिखा हुआ था। मुझे अच्छा लगा लेकिन कुछ खास या ऐतिहासिक नहीं। मुझे नहीं पता था कि वो पल मेरी जिंदगी बदलने वाला पल साबित होगा।
मैंने अंदर जाकर (जहां प्रवेश शाखा लिखा था) एक सक्रिय दिख रहे व्यक्ति (श्री टेकचंदानी, उनका नाम काफी बाद में पता चला) से कहा, 'सर, बाहर लिस्ट में मेरा नाम है'। उन्होंने खुशी और स्वागत के अंदाज में कहा, 'बहुत बधाई हो, 15 से 22 तारीख के बीच 12 फोटो और अपने दस्तावेज लेकर प्रवेश के लिए आ जाना'। 'ठीक है' कहकर मैं सहज भाव से वापस अपने भैया के कमरे पर (बदरपुर बॉर्डर) चला गया। जेएनयू की प्रवेश सूची में अपना नाम देखना उस वक्त मेरे दिमाग में कोई उत्तेजना पैदा नहीं कर सका, इसकी दो वजहें थीं- पहला, जेएनयू की प्रवेश परीक्षा देने और परिणाम आने के बीच (7 जून, 2001 को) मेरे पिताजी का निधन हो गया था। उन दिनों मैं जेएनयू (एम.ए.), दिल्ली विश्वविद्यालय (बी.एड.) आदि की प्रवेश परीक्षाएं देने पहली बार दिल्ली आया था, इस वजह से आखिरी समय में पिताजी के पास नहीं था। दूसरी वजह यह थी कि मैं तब तक जेएनयू के बारे में कुछ जानता नहीं था। उस वक्त मेरे लिए जेएनयू किसी भी सामान्य कॉलेज या यूनिवर्सिटी से कुछ ज्यादा नहीं था। लिस्ट में नाम देखने के बाद मैं गांव गया। जहां मुझे मेरे गांव के एक व्यक्ति (जो जेएनयू में पढ़ चुके थे) और उनके भाई (जो राजस्थान प्रशासनिक सेवा में हैं) ने कहा कि 'जेएनयू अच्छी यूनिवर्सिटी नहीं है। अगर नौकरी लगना है तो जेएनयू मत जाओ। वहां तुम्हें कभी 'ए' ग्रेड नहीं मिलेगा।
मेरा सबसे बड़ा गम
इस तरह मेरा जेएनयू आना किसी जुनून या लंबी तैयारी का नतीजा नहीं था। बल्कि सारी परिस्थितियां प्रतिकूल थी। मेरे चयन का पत्र भी आज तक मेरे घर तक नहीं पहुंचा। उस दिन अनायास ही जेएनयू नहीं आया होता और लिस्ट में अपना नाम नहीं देखा होता तो शायद मुझे पता भी नहीं चल पाता कि मेरा यहां चयन भी हुआ है। जेएनयू में मेरा कोई जानकार भी नहीं पढ़ता था जो मुझे बताता कि मेरा चयन हुआ है। ऐसी स्थितियों में भी पता नहीं क्या सोचकर मैं जेएनयू आ गया था। शायद मेरे फूफाजी की प्रेरणा से। एक मेरे फूफाजी ही थे (उन दिनों वे कैंसर से पीड़ित थे और कुछ समय बाद गुजर गए) जिन्होंने मुझे जेएनयू प्रवेश परीक्षा में पास होने पर बधाई दी। शायद तब मेरे परिवार और समस्त रिश्तेदारों में केवल उन्हीं ने जेएनयू का नाम सुना था। मुझे मेरे अनपढ किसान मां-बाप ने खेती और मजूरी करके पढाया। वे आगे की पढ़ाई और जेएनयू के बारे में तो नहीं जानते थे, लेकिन मेरे पिताजी की मुझे लेक्चरर बनाने की हार्दिक इच्छा थी। काश, उनको दो महीने की जिंदगी और मिली होती तो मैं उन्हें जेएनयू लाता। अपना सपना पूरा होने की शुरूआत वे अपनी आंखों से देख पाते। आज मैंने इस भारत के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय में अध्यापन का एक दशक पूरा कर लिया, जहां इसकी अपार खुशी है वहीं मेरे मां-पिता यह दिन देखने के लिए इस दुनिया में नहीं है, यही सबसे बड़ा गम है।
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