'आधार' से कम नहीं है प्रयागराज के पुरोहितों का डाटा, सवा अरब हिंदुस्तानियों का है बहीखाता

प्रयागराज के पुरोहित भी बहुत खास हैं। इनके पास पूरे भारत के हिंदुओं का लेखाजोखा है। कितने पूर्वज कहां के रहने वाले थे, और वो कब-कब कुंभ या चार धाम गए इसकी तक जानकारी होती है।

Manish MishraManish Mishra   2 May 2022 12:45 PM GMT

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आधार से कम नहीं है प्रयागराज के पुरोहितों का डाटा, सवा अरब हिंदुस्तानियों का है बहीखाता

प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)। हम और आप शायद ही अपने बाबा या दादी से पहले के पूर्वजों के नाम जानते हों, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो हमारे पूर्वजों के नाम न केवल सहेज के रखते हैं, बल्कि सैकड़ों साल की वंशावली झट से सामने रख देते हैं।

प्रयागराज में शुरु हुए दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक मेले कुंभ की पूरी दुनिया में चर्चा है। ये मेला जो डेढ़ महीने लगने के बाद समाप्त भी हो जाएगा, लेकिन संगम तट पर एक ऐसा भी मेला है जो बारहों महीने अनवरत चलता रहता है। यह मेला है लोगों को अपने पूर्वजों को याद करते हुए उनके प्रति आस्था दिखाने का। इस मेले में सजी दुकानों में लाखों किलोमीटर में बसे हिन्दुस्तान के अरबों लोगों की जन्म कुंडलियां सुरक्षित हैं। देखिए वीडियो

संगम तट पर फूस के छप्पर या तिरपाल के नीचे तख्त पर बैठे पंडा (पुरोहित) अपने यजमान के इंतजार में रहते हैं। सदियों से यह काम कर रहे इन पंडा लोगों का काम होता है आए यजमान के किसी पूर्वज या रिश्तेदार का परलोक सुधारने के लिए क्रियाकर्म कराके उनकी डिटेल अपने पास दर्ज करना।


"हमारे पास दो तरह के यात्री आते हैं, एक तो बाल बच्चे लेकर संगम में स्नान करने आते हैं, जो उनकी श्रृद्धा होती है दान करते हैं, दूसरे जो लोग हमारे पास आते हैं वो क्रियाकर्म वाले, अपने पूर्वजों के बारे में पता करने और पिंडदान करके पूर्वजों के मोक्ष के लिए अनुष्ठान कराना, "पिंड दान करते हुए कुछ लोगों की ओर इशारा करते हुए एक तख्त पर बैठे पंडित गंगाधर पांडेय बताते हैं।

यहां रखी झोपड़ियों के नीचे एक तख्त पर बड़ा सा लोहे का बक्सा रखा होता है और इस बक्से में उनकी खाता-बही कैद रहती हैं। हर पंडे के पास एक बक्शा जरूर रहता है, और उसके सामने फहरा रही ध्वज पताका उसके उसके कार्यक्षेत्र की निशानी होती है।



बक्शे पर लिखी जानकारी को दिखाते हुए पंडित गंगाधर पांडेय कहते हैं, "हम सिर्फ सिंधी समाज की ही जानकारी दे सकते हैं, और हमारा झंडा है 'टेढ़ी कमान'। लालकृष्ण आडवाणी हमारे यजमान हैं, एक बार आए थे तो हमने पूजा कराई थी," आगे बताते हैं, "अभी मोदी जी भी प्रयागराज आए थे, तो जो हाथी वाले पंडा हैं उन्होंने जाकर उनसे पूजा करवाई थी।"

किसी ने एक बांस में कढ़ाई टांग रखी है तो किसी ने लकड़ी का हवाई जहाज, जो हर पंडे का साइन बोर्ड होता है उसके कार्यक्षेत्र और समुदाय विशेष की पूजा कराने का। कोई किसी के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं देता।

पंडित गंगाधर पांडेय बताते हैं, "यह बंटवारा आज का नहीं है, हजारों साल पुराना है। हमारे पूर्वज इसे ऐसे ही करते आ रहे हैं।"


वहीं बगल में ही अपनी खाता बही में दर्ज जानकारी को दिखाते हुए पं. विशाल शर्मा ने कहा, "इसमें जानकारी दर्ज करने के कोड वर्ड होते हैं, जिससे हम कम समय में आसानी से जानकारी खोज लेते हैं। हमारा सिंबल लगा हुआ है, झंडा। उस झंडे को देखकर यजमान आता है। हमारा झंडा कढ़ाई है।"

आज की 21वीं शताब्दी की तकनीक के साथ कदम ताल करते हुए संगम तट पर रहने वाले पुरोहित अपनी विरासत को संजो कर हमेशा रखना चाहते हैं। "हमारे पास हर खाता-बही में दर्ज जानकारियां फ्लापी या सीडी में हैं, लेकिन हम खाता बही इन्हीं बक्शों में रहते हैं। यह हमारी संस्कृति है, आज के जमाने में कम से कम कुछ तो बची है।"

इसी बीच आए एक जजमान को पचास साल पहले के उनके पूर्वज का नाम खोज कर बताने में पं. विशाल शर्मा को ज्यादा वक्त नहीं लगा।

इस आस्था के बाजार के एजेंट दूर-दूर तक फैले रहते हैं, बस अड्डा और रेलवे स्टेशनों पर जैसे ही कोई सुबह-सुबह उतरता है उसे घेर का पूछने लगते हैं कि वह कहां से आया है फिर उसे उसके क्षेत्र वाले पुरोहित के पास पहुंचा दिया जाता है। विरासत में मिली इस धर्म गद्दी को पुरोहितों के बेटे एक कार्पोरेट सेक्टर के प्रोफेशनल की तरह ही संभालते दिख जाएंगे। संगम तट पर बैठे इन युवा पुरोहितों के लिए यह किसी कार्पोरेट पार्क में झोपड़ीनुमा केबिन में बैठ के मीटिंग करने जैसा ही है।


"यह हमारा करियर है, परिवार से कोई न कोई इसे संभालता है, कभी-कभी तो पूरा परिवार ही इस काम में लगा होता है। हमारी महीने की कमाई करीब एक लाख रुपये है," एक युवा पुरोहित ने नाम न छापने की शर्त पर बताया।

इस धर्म के करोबार को समझाते हुए पं. गंगाधर पांडेय बताते हैं, "जैसे किसान की खेती होती है, वह उसे सालों से जोतता और बोता आ रहा है, उसी तरह यह हमारी खेती है। हमारे न रहने पर यह हमारे बच्चों को मिल जाएगी। आगे वह इसे संभालेंगे। यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा।"


धर्म की इस मंडी में तरह-तरह के साइन बोर्ड बरबस ही किसी का ध्यान खींचते हैं। कहीं झंडे में रेलगाड़ी दौड़ रही होती है, तो कहीं हवाई जहाज उड़ रहा होता है। कहीं 'हाथी' आसमान में टंगा है तो कहीं तीर-कमान। हर किसी को अपने बैनर पर रश्क है। इन पुरोहितों (पंडा) का क्षेत्र जिला या प्रांत के हिसाब से बंटा होता है। उस हिसाब से इन खाता बहियों में जानकारी दर्ज की जाती है। "जब कोई यजमान हमारे पास कर्मकांड के लिए आता है तो उसी समय हम उसकी जानकारी अपने खाता में दर्ज कर लेते हैं, इससे यह खाता-बही अपडेट होती रहती है।"

ये बक्शे संगम तट पर सजे आस्था के इस बाजार में रात-दिन रखे रहते हैं और इनमें मौजूद खाता-बही हर सुबह निकलती हैं और अपने दिनभर न जाने कितनी जानकारियां समेट कर शाम को बख्शों में बंद हो जाती हैं।





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