वो जिनका कोई नहीं उन्हें ये दंपति अपने घर में देता है ठिकाना, ठीक होते ही पहुंचाते हैं उनके अपनों तक

"सड़क पर निकलते हुए ऐसे लोगों को देखकर मन पर एक बोझ सा लगता था कि हम इनके लिए कुछ कर नहीं पा रहे हैं। जबसे इन्हें अपने घर में रखना शुरू किया तबसे अब अच्छा लगता है। अबतक 250 लोगों को उनके अपनों से मिलवा दिया है।"

Neetu SinghNeetu Singh   1 April 2020 7:51 AM GMT

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वो जिनका कोई नहीं उन्हें ये दंपति अपने घर में देता है ठिकाना, ठीक होते ही पहुंचाते हैं उनके अपनों तक

कभी मैले कुचैले कपड़े पहने तो कभी बिना कपड़ों के, खुद से बाते करते हुए, सड़क चलते ऐसे लोगों पर अकसर हमारी नजर पड़ जाती है।

लेकिन इन्हें देखकर न तो हम ठहरते हैं और न ही इनके बारे में कुछ जानना चाहते हैं। पर ये दंपति ऐसे लोगों को देखकर उनके पास रुक जाते हैं, उनसे बाते करते हैं और फिर अपने घर ले जाते हैं। जब वो पूरी तरह से ठीक हो जाते हैं तब उन्हें उनके अपनों से मिलवा देते हैं।

"सड़क पर निकलते हुए ऐसे लोगों को देखकर मन पर एक बोझ सा लगता था कि हम इनके लिए कुछ कर नहीं पा रहे हैं। जबसे इन्हें अपने घर में रखना शुरू किया तबसे अब अच्छा लगता है। अबतक 250 लोगों को उनके अपनों से मिलवा दिया है," बिंसी पॉल (45 वर्ष) ने अपने घर की कुर्सियों पर बैठे मानसिक विक्षिप्त लोगों की तरफ इशारा करते हुए कहा।

ये हैं वो लोग जिन्हें अकसर हम नंजरअंदाज कर देते हैं, बिंसी और ओमाकुट्टन ने इन्हें अपने घर में शरण दी है.

बिंसी और इनके पति ओमाकुट्टन मूलतः केरल के रहने वाले हैं। नौकरी के सिलसिले में ये पति-पत्नी कई राज्यों में रहे। अभी ये उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर के आलमबाग़ रूचि खंड सेकेण्ड में रहते हैं। किराए के इनके मकान में इस समय मानसिक और शारीरिक रूप से अस्वस्थ 32 महिलाएं और लड़कियां रहती हैं जिनमें दो लड़के भी हैं। यहाँ 14-65 साल तक के लोग रहते हैं जो इस दंपति को मम्मी और बाबू जी कहकर बुलाते हैं। इस दंपति ने 250 लोगों को ठीक होने के बाद पुलिस की मदद से उनके घर तक पहुंचा दिया है।

"जब मैं 22 साल की थी तबसे ऐसे लोगों की मदद अपनी पॉकेट मनी से चुपचाप करती थी। क्योंकि लोग इनसे बातें करना, इनकी फ़िक्र करना अच्छा नहीं मानते थे। जब पति का इस काम में साथ मिल गया तो अब पूरी तरह से खुलकर इनके लिए काम करती हूँ।" बिंसी कुछ लड़कियों के मास्क बाँधते हुए अपना अनुभव बता रहीं थीं।

बिंसी तीन बहन और एक भाई में सबसे बड़ी हैं। एक सम्पन्न परिवार में इनका जन्म हुआ है। ये पेशे से स्टाफ नर्स थीं इनके पति अच्छी सैलरी वाली एक प्राईवेट कम्पनी में अच्छी पोस्ट पर जॉब करते थे। बिंसी की 24 साल की उम्र में शादी हो गयी थी अभी इनके एक बेटा और दो बेटियां हैं।

किराए के घर में 32 लोगों को रखना मुश्किल काम है पर इस दंपति को ये काम सुकून देता है.

बिंसी गुजरात में नौकरी के दौरान का अनुभव साझा करती हैं, "मेरे घर के सामने एक महिला बिना कपड़ों के ऐसे ही पड़ी रहती थी। रात के अँधेरे में कई लोग उसका रेप भी करते थे। मैं अपनी खिड़की से ये सब देखती थी। फिर मैं उससे मिली, उसको कपड़े दिए। कुछ समय बाद वो मुझसे बातें करने लगी थी।"

"मुझे उससे बहुत लगाव हो गया था। जब वह पूरी तरह से ठीक हो गयी तब एक दिन उसने मुझे बताया कि वो तमिलनाडु की रहने वाली है। पुलिस की मदद से हमने उसको उसके घर पहुंचाया। ये सब करके बहुत अच्छा लगा मुझे।" बिंसी के चेहरे पर ये कहते हुए आत्मसंतुष्टि थी।

बिंसी और उनके पति के पास ऐसी सैकड़ों कहानियों के अनुभव हैं जिससे उनका वास्ता हुआ है। बिंसी को लगता था एक दो लोगों की मदद पर्याप्त नहीं है क्योंकि ऐसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा थी। इसलिए इन्होंने वर्ष 2012 में दया सदन (पोल मर्सी होम) नाम की संस्था का रजिस्ट्रेशन कराया। लखनऊ में तब ये पहली ऐसी गैर सरकारी संस्था थी जो सड़क चलते मानसिक और शारीरिक रूप से अस्वस्थ्य लोगों के लिए काम कर रही थी।

शुरुआत में इनके पास मात्र तीन लड़कियाँ थीं धीरे-धीरे यह संख्या बढ़ती गयी।

कोरोना माहमारी में इनकी सुरक्षा का ख़ास इंतजाम रखा गया है.

"हम जब भी सड़क से किसी को ले आते हैं तो सबसे पहले अपने नजदीकी थाना आशियाना में पुलिस को सूचित करते हैं। जब ये लोग ठीक हो जाते हैं अगर इनमें से कोई अपने घर जाना चाहता है तो फिर हम पुलिस की मदद से इन्हें इनके घर पहुंचा देते हैं।" ओमाकुट्टन (50 वर्ष) ने बताया।

यहाँ यूपी, महाराष्ट्र, बिहार, आसाम, बंगाल जैसे कई राज्यों के लोग रहते हैं। इनमें से कुछ वो लोग हैं जिनके परिवार वालों ने उन्हें पागल समझकर घर से निकाल दिया तो कुछ वो लोग हैं जो खुद अपनों से बिछड़ गये हैं।

बिंसी कहती हैं, "हमने कई साल अपनी सेविंग्स से इन लोगों की देखरेख की। हम पांच से ज्यादा लोगों की देखरेख करने में सक्षम नहीं थे। जब लोगों की संख्या बढ़ी तो हमारे लिए मुश्किलें बढ़ने लगीं। अब हम नौकरी और इनकी जिम्मेदारी एक साथ नहीं कर पा रहे थे।"

बिंसी ने अपनी स्टाफ नर्स की नौकरी फरवरी 2011 में छोड़ दी। इसके बाद ये पूरा समय इन्हीं लोगों की देखरेख में गुजारने लगीं। एक क्रिश्चियन संस्था ने इन्हें वर्ष 2018 तक सहयोग किया। इनके अच्छे कामों को देखते हुए वर्ष 2011 से दिव्यांगजन कल्याण विभाग से इस संस्था को 23 लोगों की आर्थिक मदद का सहयोग मिल रहा है। जबकि अभी यहाँ 32 लोग रह रहे हैं।

इनके चेहरे की खुशी ये बताने के लिए काफी है कि अब ये कितना सुकून भरा जीवन जी रही हैं.

"जितने लोग भी यहाँ आते हैं उन्हें हम रखने के लिए मना नहीं कर पाते हैं। हम सोचते हैं इनका कोई नहीं है तभी तो ये हमारे पास आये हैं। अभी कुछ लोगों को पुलिस तो कुछ आशा ज्योति केंद्र और महिला हेल्पलाइन 181 से आते हैं। कुछ लोग मुझे भी सड़क पर टहलते हुए मिल जाते हैं उन्हें भी रख लेता हूँ," ओमाकुट्टन ने बताया।

आपको विभाग की तरफ से 23 लोगों की ही मदद मिलती है 32 लोगों का कैसे इंतजाम हो पाता है इस पर ओमाकुट्टन ने कहा, "सब ऊपर वाले की कृपा है मैनेज हो जाता है। जब हमारे कामों की चर्चा मीडिया में हुई तो कुछ-कुछ लोग समय-समय पर स्वेच्छा से मदद कर देते हैं। कभी ऐसी नौबत नहीं आयी कि ये लोग भूखे रहे हों या इनकी इलाज न हुई हो। मुश्किलें आती हैं पर काम रुकता नहीं है।"

यहाँ पर रहने वाले लोगों को नहलाना-धुलाना साफ़ सफाई सब काम ये पति-पत्नी और इनके बच्चे मिलकर करते हैं। समय-समय पर इनकी काउंसलिंग, लिखना-पढ़ना, ढोलक, सिलाई सिखाना जैसी कई गतिविधियाँ चलती रहती हैं जिससे इनका मन लगा रहे।

ओमाकुट्टन ने कहा, "अभी भी ये लोग बिस्तर पर टट्टी-पेशाब कर देते हैं। मारते-पीटते भी हैं मुझे, पर हमें कभी बुरा नहीं लगा। क्योंकि मैं जानता हूँ इनके पास इतनी समझ नहीं है। इनकी आपबीती जब सुनता हूँ तो बड़ी तकलीफ होती है। बस इतना ही कहूँगा अगर आपका बच्चा भी ऐसा है तो उसे कभी घर से बाहर न निकालें।"

ओमाकुट्टन के साथ ये सब मिलकर गीत गा रही हैं.

बिंसी और ओमाकुट्टन की दिनचर्या सुबह साढ़े पांच बजे शुरू हो जाती है और देर रात तक चलती रहती है। इन्होंने इन बच्चों की मदद से सब्जियां और फूलों के पौधे भी लगाये हैं। यहाँ रहने वाले ज्यादातर बच्चे स्पष्ट तरीके से बात नहीं कर पाते हैं। पर ये उनकी भी भाषा समझते हैं।

लखनऊ में रहने की वजह पर बिंसी कहती हैं, "जब मैं यहाँ नौकरी पर जाती थी तो मुझे एक 27-28 साल की सुन्दर सी लड़की बिना कपड़ों के ऐसे ही सड़क पर जाते हुए दिखती थी। उसे आते-जाते कई दिनों तक देखा पर उसे पकड़कर अपने साथ ले नहीं आ पा रही थी।"

बिंसी एक दिन अपने पति की मदद से उसे अपने घर ले आयीं। दो तीन दिन बाद इन्हें पता चला वो चार महीने की गर्भवती हैं। उसे बहुत इन्फेक्शन था, उसकी देखरेख में बिंसी को बहुत वक़्त लग रहा था। इनके बच्चे भी बहुत छोटे थे तभी इन्होंने नौकरी छोड़ दी। सात महीने बाद उस लड़की की डिलीवरी हुई। बच्चा काफी कमजोर था वो कई महीने वेंटीलेटर पर रहा। दो साल बाद वो बच्चा खत्म हो गया। राजस्थान की रहने वाली थी वो, बाद में पता चला वो शादी शुदा है।

"अभी उसके पति ने उसे रख लिया है, एक बेटी भी है जो चौथी कक्षा में पढ़ती है। उसको सड़क से लाकर उसके घर पहुँचाने तक मुझे जो बड़ी सुकून मिला, उसे शब्दों में नहीं बता सकती। मैं ये काम तबतक बंद नहीं करूंगी जबतक मेरे हाथ-पाँव चलते रहेंगे।"

सभी लोगों की मदद से बिंसी और उनके पति ने सब्जियां और पौधे भी लगाये हैं.

लखनऊ आशा ज्योति केंद्र में काम करने वाली प्रशासिका अर्चना सिंह बताती हैं, "जब मैं लोगों को इनके यहाँ छोड़ने आती हूँ तब वो बहुत बुरी स्थिति में होते हैं। 15-20 दिन बाद ही उन्हें पहचान पाना मुश्किल होता है क्योंकि उनके बाल छोटे हो जाते हैं। घाव भरने लगते हैं और साफ़ कपड़ों में दिखती हैं।"

"हर किसी को अपने हिस्से की समाज सेवा करनी चाहिए। मैं अपने हिस्से की कर रहा हूँ, आत्मसंतुष्टि मिलती है इससे। ऐसा काम करने पर लोग कई बार पागल कहेंगे पर उसपर ध्यान नहीं देना है। अच्छा काम करेंगे तो लोग मरने के बाद आपको याद रखेंगे। सब यहीं छूट जाएगा अगर कुछ बचेगा तो वो है अच्छा काम।" ओमाकुट्टन ने बड़ी सहजता से अपनी बात पूरी की।


  

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