लड़कों को फुटबॉल में टक्कर देती है यह लड़की, पहनना चाहती है टीम इंडिया की जर्सी

चौदह साल की मनीषा विश्वकर्मा एक फुटबॉलर हैं। वह यूपी के संत कबीर नगर के बनकटिया गांव की निवासी हैं और पिछले तीन सालों से लड़कों के साथ फुटबॉल खेल रही हैं।

Daya SagarDaya Sagar   8 March 2019 10:00 AM GMT

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संत कबीर नगर(उत्तर प्रदेश)। मनीषा का दिन सुबह के 5 बजे से ही शुरु हो जाता है। वह जरूरी कामों को जल्दी से निपटा कर अपना साइकिल उठाती हैं और पगडंडियों के सहारे अपने सपनों की तरफ बढ़ने लगती हैं। मनीषा का सपना एक बड़ा फुटबॉलर बनना है। वह इस खेल में देश का प्रतिनिधित्व करना चाहती है।

चौदह साल की मनीषा विश्वकर्मा एक फुटबॉलर हैं। वह यूपी के संत कबीर नगर के बनकटिया गांव की निवासी हैं और पिछले तीन सालों से लड़कों के साथ फुटबॉल खेल रही हैं। 8वीं कक्षा में पढ़ने वाली मनीषा ने नेशनल गेम्स में सब जूनियर लेवल पर अपने राज्य उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व किया है। वह खलीलाबाद के जिला मुख्यालय स्टेडियम में रोज सुबह-शाम प्रैक्टिस करती हैं। वह पूरे स्टेडियम में बड़े गर्व से उस काले रंग की जर्सी पहनकर घूमती हैं, जिस पर उनका नाम और 'UP' (यूपी) लिखा है।


मेडल्स के साथ मनीषा


मनीषा कहती हैं कि यह जर्सी उनके मेहनत का फल है। इसके लिए उन्होंने बहुत संघर्ष किया है। मनीषा इस काली जर्सी के बाद टीम इंडिया की नीले रंग की जर्सी को पहनना चाहती हैं। वह इसके लिए अपनी तरफ से कड़ी मेहनत भी कर रही हैं। लेकिन सही ट्रेनिंग की कमी और संसाधनों, अवसरों का अभाव उनकी सफलता के रास्ते में बाधा बन रहा है।

एथेलेटिक्स से शुरू किया सफर

मनीषा को वह साल याद नहीं जब उन्होंने फुटबॉल खेलना शुरू किया था। वह अपने दिमाग पर जोर-देकर जवाब देती हैं- 'करीब ढाई-तीन साल हो गए।' मनीषा बताती हैं कि वह शुरू से ही खेलों में अव्वल थीं। पढ़ाई में उनका बिल्कुल भी मन नहीं लगता था। वह स्कूल की दौड़ प्रतियोगिताओं में भाग लेती थीं और अक्सर टॉप तीन में जगह बना लेती थीं। कुछ ही दिनों में मनीषा जिले की एक टॉप एथलीट बन गईं।

एथलीट से फुटबॉलर बनने का सफर

मनीषा एथलीट तो आसानी से बन गईं लेकिन उनके फुटबॉलर बनने का सफर उतना ही मुश्किल रहा। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में यह एक ट्रेंड सा है कि लोग खिलाड़ी बनने के लिए तो खेल को चुनते हैं लेकिन नौकरी लेकर एक जिम्मेदार घरेलू इंसान बन जाते हैं। खेल कोटे से नौकरी पाना अपेक्षाकृत आसान होता है। संसाधनों की कमी, घरेलू-सामाजिक दबाव, बढ़ती प्रतियोगिता और सही ट्रेनिंग के अभाव में प्रतिभाएं स्थानीय स्तर पर ही दम तोड़ देती हैं।


महिला खिलाड़ियों के साथ यह मसला और भी बढ़ जाता है। खेल के नाम पर उन्हें सिर्फ दौड़ यानी एथलेटिक्स तक ही सीमित रखने की कोशिश की जाती है। मनीषा के साथ भी शुरूआत में कुछ ऐसा ही हुआ। मनीषा बताती हैं कि स्कूल स्तर पर अच्छा प्रदर्शन करने के बाद जब वह स्टेडियम आने लगीं तो उनसे कहा गया कि वह एथलेटिक्स को ही चुनें। जबकि मनीषा का मन फुटबॉल में लगने लगा था। इस बाबत मनीषा का अपने महिला कोच से विवाद भी हुआ। महिला कोच उन्हें एथलेटिक्स में ही जाने को मजबूर कर रही थीं।

घर वालों का मिलता है पूरा समर्थन

मनीषा आगे कहती हैं कि शुरूआत में घर वालों को भी मनाना उनके लिए काफी मुश्किल था। घर वालों को विश्वास ही नहीं था कि वह फुटबॉल जैसे एक फिजिकल गेम में लड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेल सकती है। लेकिन जब एक-दो बार मनीषा का नाम स्थानीय अखबारों में निकला, तो फिर घर वालों को भी विश्वास मनीषा पर बढ़ गया। इसके बाद से परिवार में मनीषा को किसी ने नहीं रोका। मनीषा के भाई संदीप ने परिवार वालों को भरोसा दिलाया कि मनीषा आगे अच्छा खेल सकती है।


मनीषा का घर और उनके घर वाले


जिले के ही आरटीओ विभाग में दैनिक वेतन पर काम करने वाले मनीषा के भाई संदीप विश्वकर्मा बताते हैं, 'मैंने और मेरे परिवार ने हमेशा से ही मनीषा का समर्थन किया है। उसे ट्रायल देने के लिए अक्सर ही आगरा, मेरठ, बनारस जाना पड़ता है। कई बार मैं खुद मनीषा को लेकर जाता हूं। वहीं अगर मुझे छुट्टी नहीं मिलती तो वह अकेले ही चली जाती है। इसके लिए कभी कोई भी रोक-टोक हमने नहीं किया। हां, उसके स्वास्थ्य और सुरक्षा की फिक्र जरूर बनी रहती है।'

गरीबी बन रही सफलता में बाधा

मनीषा के पिता एक मजदूर हैं। वह मुंबई में रहकर दैनिक मजदूरी पर एक बढ़ई का काम करते हैं। वहीं मनीषा के दो भाई अलग-अलग जगहों पर प्राइवेट नौकरी करते हैं। खेत के नाम पर परिवार के पास थोड़ा सा जमीन है, जिससे बमुश्किल ही गुजारा चल पाता है।

मनीषा बताती हैं, 'ट्रायल में जाने के लिए मुझे ट्रेन का चालू (जनरल) टिकट लेकर भीड़ भरे डिब्बे में बैठकर जाना पड़ता है। फिर अगले दिन सुबह मैं ट्रायल देती हूं। जब साथ कोई महिला खिलाड़ी नहीं जाती है तो भाई जाता है। इससे उसके एक दिन के वेतन का नुकसान होता है।'

मनीषा की मां बताती हैं, "एक ट्रायल में जाने के लिए कम से कम 1000 रूपए का खर्च आता है। ट्रायल का भी पता एक-दो दिन पहले ही पता चलता है। घर में पैसा नहीं रहता है तो पास-पड़ोस से कर्ज लेकर उसे हम ट्रायल पर भेजते हैं। कई बार पास-पड़ोस वाले ताना-उलाहना भी देते हैं कि 'लड़की है, कहां भेज रहें।' लेकिन उसे हम लोग कभी नहीं रोकते। उससे अब हम घर का भी काम नहीं लेते। वह घर पर रहती है तो भी फुटबॉल में ही रमी रहती है। कभी अपने जूतों को साफ करती है तो कभी चोटों को आग दिखाकर उसे सेंकती है।"

मनीषा की मां

मनीषा की मां को दुःख है कि तीन साल से फुटबॉल खेलने पर भी उसे अब तक कोई सरकारी सहायता नहीं मिली। मिट्टी के घर को बुहारती हुई वह रिपोर्टर से कहती हैं, 'आप लोग तो पत्रकार हैं। लखनऊ-दिल्ली जाते रहते हैं। इसका भी कुछ करिये ना। इसको अब आगे खेलना है।'

खेल विभाग से नहीं मिलता है कोई वजीफा

राज्य सरकार का नियम है कि वह किसी भी खेल में देश या राज्य स्तर पर पोडियम फिनिश (टॉप 3) करने वाले खिलाड़ियों को वह स्कॉलरशिप के जरिये मदद करती है। मनीषा ने राज्य स्तर पर उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व तो किया है लेकिन चूंकि उत्तर प्रदेश क्वार्टर फाइनल से आगे नहीं बढ़ पाई, इसलिए नियमानुसार वह किसी भी सरकारी वजीफे के योग्य नहीं है। हालांकि इस दौरान मनीषा का व्यक्तिगत खेल काफी अच्छा रहा। उन्होंने चार मैचों में कुल छः गोल किए, जिसमें एक मैच में हैट्रिक भी शामिल था।

स्टेडियम के एक कोच ने नाम ना बताने कि शर्त पर गांव कनेक्शन को बताया कि सरकारों को ऐसी कोई व्यवस्था जरूर करनी चाहिए जिसमें स्थानीय कोच या अधिकारी के अनुसंशा (रिकमेंडेशन) पर ऐसी प्रतिभाओं को भी मदद मिले। मनीषा को स्थानीय नेताओं से भी कोई सहयोग नहीं मिलता है। हालांकि फुटबॉल खेलने वाले कुछ स्थानीय लोग मनीषा की हमेशा मदद करते रहते हैं। अभी नेशनल खेलने के बाद क्षेत्र के एक व्यापारी ने मनीषा को एक बड़े ब्राण्ड का जूता गिफ्ट किया था।

स्टेडियम और स्थानीय खिलाड़ियों से मिलता है भरपूर सहयोग

जिले के क्रीडाधिकारी और फुटबॉल कोच अमित कुमार बताते हैं कि जब मनीषा पहली बार फुटबॉल खेलने के लिए आई तभी उन्हें पता लग गया कि वह एक बेहतर फुटबॉलर बन सकती है। अमित बताते हैं, 'उसके पैरों के मूवमेंट से ही पता चल गया कि वह फुटबॉल खेल सकती है। इसके अलावा उसके किक में पॉवर भी रहता है। लड़को के साथ खेलने से उसके खेल में और सुधार आया है। नेशनल खेलने के बाद वह अब बढ़े हुए आत्मविश्वास के साथ फुटबॉल खेलती है।'

फुटबॉल खेलती मनीषा (लाल जर्सी में )

अमित आगे बताते हैं, 'स्टेडियम के पुरूष खिलाड़ी भी मनीषा को पूरा सहयोग करते हैं। वह भी चाहते हैं कि मनीषा और आगे बढ़े जिससे देश भर में पूरे जिले का नाम हो। उसके दुःख-सुख में घर पर भी खिलाड़ी जाते हैं। एक बार उसका एक्सीडेंट हुआ था तो भी खिलाड़ियों ने चोट से उबरने में पूरा सहयोग किया।'

'फुटबॉल एक बॉडी कॉन्टैक्ट गेम है। इसलिए शुरूआत में लड़कों के साथ खेलने में उसे थोड़ी दिक्कत तो आई। लेकिन अच्छी बात यह है कि मनीषा ने अपने को अभी तक किसी बड़े चोट से बचाए रखा है।'- अमित कुमार, कोच

नेशनल खेलने के बाद आया निराशा का दौर



मनीषा अब तक कुल आठ से दस राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं में भाग ले चुकी हैं। वह सब जूनियर लेवल पर नेशनल भी खेल चुकी हैं। लेकिन वह अब इससे आगे बढ़ना चाहती हैं। मनीषा के ही शब्दों में, 'मैं सिर्फ सरकारी नौकरी के लिए ही यह गेम नहीं खेल रही हूं। मुझे अब आगे खेलना है। मैंने जब नेशनल खेला था तो मुझे लगा था कि अब चीजें आसान हो जाएंगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।'

बाल बड़े होने के कारण सुननी पड़ी थी गाली

मनीषा ओडिशा में हुए सब जूनियर नेशनल गेम का एक किस्सा भी सुनाती हैं। उन्होंने बताया कि जिस मैच में उन्होंने हैट्रिक मारा था, उस मैच में उनका एक हेडर गोल में जाने से रूक गया। मनीषा बताती हैं, 'बाल बड़े होने के कारण हेडर में पॉवर नहीं आ पाया था। इसलिए गोल नहीं हो पाया। मैच के बाद टीम की महिला कोच ने मनीषा को उलाहना भी सुनाया और अपशब्द भी कहें।' मनीषा बताती हैं कि ऐसा उनके साथ पहली बार नहीं हुआ था।


'खेलो इंडिया' के ट्रायल का पता ही नहीं चला !

मनीषा कहती हैं कि उन्होंने नेशनल खेल में ऐसे खिलाड़ियों के साथ खेला जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल चुकी हैं। इसलिए उन्हें पूरा विश्वास था कि उन्हें पुणे के 'खेलो इंडिया' गेम्स में भी मौका मिलेगा। लेकिन मनीषा को इस गेम के ट्रायल का पता ही नहीं चला। मनीषा बताती हैं, 'जब भी कहीं ट्रायल होता है तो बनारस और अन्य क्षेत्र की लड़कियां मुझे फोन करती हैं। लेकिन खेलो इंडिया के ट्रायल के समय मेरा फोन गायब हो गया था।' वह भावुक होकर कहती हैं, 'इस बारे में मुझे सर ने भी नहीं बताया।'

जब गांव कनेक्शन ने इस बारे में जिला क्रीडाधिकारी अमित कुमार से पूछा तो उन्होंने कहा कि उन्हें खुद 'खेलो इंडिया' के ट्रायल के तारीखों की जानकारी बहुत देर से मिली थी। मनीषा को इस बात का बहुत दुःख है कि उनके हाथ से एक अच्छा मौका चूक गया। मनीषा को अब यह भी लगता है कि उनके लिए चीजें रूक गई हैं। वह अब किसी अच्छे एकेडमी से हाई लेवल की ट्रेनिंग चाहती हैं ताकि खुद को हाई लेवल फुटबॉल के लिए तैयार कर सकें। लेकिन उन्हें इसके लिए कहीं से भी सहायता नहीं मिल रही है।

जिले की अन्य लड़कियां भी अब फुटबॉल खेलने के लिए आ रही आगे

मनीषा को देखकर अब जिले की अन्य लड़कियां भी फुटबॉल खेलने के लिए आगे आई हैं। मनीषा खुद इन लड़कियों को सीखाती है और कोशिश करती है कि वे अच्छा करें। मनीषा कहती हैं कि इकलौती महिला खिलाड़ी होने के कारण पहले उन्हें पड़ोसी जिले बस्ती की तरफ से खेलना पड़ता था। इसलिए उन्होंने खुद जिले की टीम बनाई और अपने विधालय की लड़कियों को खेलने के लिए प्रोत्साहित किया। मुस्कान (13), रिंकी (12), पिंकी (12), विनिता (12) जैसी 10 से 13 लड़कियां अब रोज सुबह-शाम स्टेडियम में फुटबॉल की ट्रेनिंग के लिए आती हैं। ये लड़कियां भी अब लड़कों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर फुटबॉल खेलती हैं।


मनीषा कहती हैं कि वह इन लड़कियों पर पूरा ध्यान नहीं दे पाती क्योंकि इससे उनकी खुद की ट्रेनिंग प्रभावित हो सकती है। मनीषा कहती हैं कि इन लड़कियों को एक फुल टाईम कोच की जरूरत है, जो इन लड़कियों को अच्छे से फुटबॉल सीखा सके। कम संसाधनों की बात जिला क्रीडाधिकारी भी स्वीकार करते हैं। इसी अभाव में कुछ लड़कियां जिले में खुली एक नई प्राइवेट एकेडमी की तरफ रूख कर रही हैं।

मनीषा को इस एकेडमी से ट्रेनिंग लेने का मुफ्त ऑफर मिला है। लेकिन वह इसको लेकर कतई भी उत्साहित नहीं है। मनीषा कहती हैं, 'इन सब से मैं अब ऊब चुकी हूं। मुझे पता है कि अब आगे बढ़ने के लिए मुझे यहां से निकलना होगा। लेकिन आगे मुझे कहां जाना हैं, कैसे जाना है, मुझे कुछ नहीं पता।'

मनीषा से जब पूछा जाता है कि क्या कभी वह निराश होती हैं, तो रोती भी हैं? इस पर मनीषा धीमे से मुस्कुराते हुए बोलती हैं, 'अगर रो दूंगी, तो फिर सब खत्म ही हो जाएगा भैया!' इसके बाद वह फुटबॉल उठाकर अपने अंगुलियों पर नचाने लगती हैं।

    

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