गाँव छोड़ब नाही: छत्तीसगढ़ के इस गाँव ने नगर पंचायत बनने के बाद फिर से गाँव बनने की लड़ाई जीती

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
गाँव छोड़ब नाही: छत्तीसगढ़ के इस गाँव ने नगर पंचायत बनने के बाद फिर से गाँव बनने की लड़ाई जीती

अंकिता आनंद

भारत में जिन क्षेत्रों में पेसा अधिनियम (पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम) लागू है वहाँ नगर पालिकाओं का बनना वैद्य नहीं। पर वर्ष 2009 में कानून की अवमानना करते हुए, और ग्राम सभा की अनिवार्य सहमति लिए बिना, छत्तीसगढ़ के बस्तर स्थित विश्रामपुरी गाँव को प्रशासन ने नगर पंचायत में तब्दील कर दिया। ग्रामीण से शहरी इलाके में बदलता क्षेत्र नगर पंचायत कहलाता है। सुनने में ये विकास लगता है पर विश्रामपुरी को इस प्रगति का फ़ायदा मिलने की जगह नुकसान ही हुआ।

दर्जे में बढ़ोतरी से हुई अधिकारों में कटौती

विश्रामपुरी की कहानी साझा करने के लिए वहाँ के युवा व बुज़ुर्ग जन प्रतिनिधि गाँव के गोटुल (शिक्षा केंद्र) में जमा हुए, जिसकी दीवारों पर उनके पारम्परिक वाद्य-यंत्र सजे हुए थे। युवा जगत मरकाम, जो कोया भूमकाल क्रांति सेना के सदस्य हैं और क्षेत्र में मूल निवासियों के अधिकारों को लेकर जागरूकता फैलाने का काम करते हैं, कोया भूमकाल ने कहा, "जब नगर पंचायत का गठन हुआ, उसमें 14 गाँव थे, हर गाँव की जनसंख्या 1000 से ऊपर। सभी खंडों के मुख्यालय बदल दिए गए और कभी ग्राम सभा से विचार-विमर्श नहीं किया गया।"

लोगों के गाँव के स्तर पर मूलभूत सुविधाओं की ज़रूरत थी। पर इनके लिए उन्हें 7-8 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती थी। बीरापारा के सरपंच रामचरण शौरी ने बताया, "नगर पंचायत आने के लिए नदी-जंगल पार करके आना पड़ता था। अपना मकान बनाने के लिए हमें अनुमति लेनी पड़ती थी। मनरेगा के तहत जिस काम का हमें अधिकार था, वो भी नहीं मिल रहा था। आवास कल्याण योजना से जुड़े लाभ भी जाते रहे। और तो और हमें कच्चे मकानों के लिए भी सम्पत्ति कर अदा करना पड़ रहा था। 15 वार्ड लिए हुए हम क्षेत्र के सबसे बड़े नगर पंचायत थे, और हम इसका खामियाज़ा भुगत रहे थे।"

इनमें कुछ जगहों को बिजली भी मुहैय्या नहीं थी, जहाँ थी वहाँ नगर पंचायत नियमों के हिसाब से प्रति यूनिट बिजली की दर ऊँची थी। समुदाय के बुजुर्ग प्रतिनिधि (पटेल) सरू ठाकुर ने कहा, "हमारा ग्रामीण क्षेत्र वन संपदा पर निर्भर करनेवाले किसानों-मजदूरों का है। हम कोई अमीर लोग नहीं हैं।"

नगर पंचायत को अगर कुछ फायदे पहुँचते भी थे तो वे उनके हिस्से जाते जो ऊँचे तबके के थे या पहले से ही संपन्न थे। गाँव के शिक्षक फूल सिंह ने बताया, "सड़क की लाईटें भी इन्हीं लोगों के घरों के पास लगी थीं। बजट का बँटवारा इतने सारे गाँवों में होना था, सो कईयों के हिस्से बहुत कुछ आया ही नहीं। आम लोग पंचायत दफ़्तर जाने से डरते थे क्योंकि जाते ही उनसे पूछा जाता था, "मकान टैक्स पटाए (दिए) हो कि नहीं? कोई आम इंसान 25,000-30,000 रुपये टैक्स कैसे भर सकता था?"


एक सामूहिक निर्णय, और बदलाव की कोशिश

दिसंबर 2009 में जब नगर पंचायत बना तो प्रशासन ने किशन पांडे को मुखिया चुना, जो उस क्षेत्र के मूल निवासी नहीं थे। इससे लोगों को और भी निराशा हुई। "ये सिर्फ़ हम आदिवासियों के बारे में नहीं था,"जगत मरकाम ने इस मुद्दे पर और बात की। "दलित और पिछड़े वर्ग के लोग भी इसके विरोध में थे।"पर उनका क्या जो विश्रामपुरी को नगर पंचायत बने रहने देना चाहते थे? जगत के अनुसार "ये वो लोग थे जिनको नगर पंचायत बनने पर टेंडर और कॉन्ट्रैक्ट मिलते।"

दिसंबर 2010 में पहला चुनाव हुआ। पर चुने गए नेता सुमन मरकाम को गाँववालों ने अविश्वास मत के ज़रिए हटा दिया। दुबारा चुनाव होने पर फिर से गाँव के प्रतिनिधियों के सामूहिक मत से मुखिया को पद से हटा दिया।

विश्रामपुरी निवासियों को विकास की ज़रूरत तो थी पर उनका मानना था कि छोटे, गाँव के स्तर पर रहकर ही उन्हें वो मूलभूत सुविधाओं का लाभ मिल पाएगा। इस समस्या से जूझने के लिए ग्राम सभाओं का आयोजन हुआ। प्रस्ताव रखा गया कि विश्रामपुरी को मिला नगर पंचायत का दर्जा ख़ारिज हो, और क्षेत्र को पाँच ग्राम पंचायतों में बाँट दिया जाए।

पेसा कानून का संदर्भ देते हुए गाँव ने जिलाधीश और राज्यपाल को लिखा, और 2014 में 20-25 लोगों का प्रतिनिधि दल राज्यपाल से मिला। गाँव के हज़ारों लोगों ने तहसील के सामने चक्का जाम कर दिया। फूल सिंह ने उस वक्त को याद करते हुए बताया, "एक साइकिल भी पार नहीं हो सकती थी।" 4-5 दिनों तक सड़क जाम रही। सूचना के अधिकार की अर्ज़ी लगाकर लोगों ने पूछा कि विश्रामपुरी को वापस ग्राम पंचायत बनाने की माँग को लेकर क्या कार्यवाही की गई। जवाब न मिलनेपर हज़ारों की संख्या में ट्रकों में भरकर लोग प्रशासन से मिलने कोंडागांव गए ताकि अफ़सरों को ये पता लगे कि बहुमत में लोग नगर पंचायत के विरुद्ध थे। आखिर प्रशासन को लोगों की माँग मंज़ूर करनी पड़ी और अक्टूबर 2015 में नगर पंचायत के विघटन का आदेश जारी हो गया।


अंततः राहत की साँस

जो गाँव पहले नगर पंचायत का हिस्सा बनकर रह गए थे, ग्राम पंचायत के गठन पर अब उन सबको अलग-अलग अपने हिस्से के अधिकार मिलने लगे। बीरापारा के वार्ड पंच संतु राम ने संतोष व्यक्त किया, "अब फिर से हमें मनरेगा के अंतर्गत काम मिल रहा है। शौचालय बन रहे हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ ले सकते हैं, और बच्चों के लिए आँगनवाड़ी की सुविधा है। ज़मीन मरम्मत की भी मदद मिलती है। खेतों में कोई सुधार कार्य करने हों तो सरकारी सहायता उपलब्ध है।"सही अनुपात में बजट का आवंटन होने से रौनागुड़ा गाँव को पहली बार एक पुल मिला, और बिजली भी।

पर इस बदलाव की गाँव को कीमत भी चुकानी पड़ी। जगत मरकाम और रामचरण शौरी पर पुलिस केस हुए। गाँववालों के अनुसार ये उनकी वजह से हुआ जो विश्रामपुरी के नगर पंचायत होने के फ़ायदे लेना चाहते थे। करीब एक साल तक लड़ने के बाद वे रिहा हुए।

कुछ के नुकसानों की भरपाई कभी नहीं हो सकी। परसाडीह गाँव के मुखिया रंगीलाल मरकाम बताया, "एक ऐसा परिवार था जिसकी पीढ़ियाँ 70-80 साल से अपनी ज़मीन पर रह कर खेती कर रहा था। विश्रामपुरी के नगर पंचायत होने के दौर में ज़मीन को सरकारी बता कर उन्हें बेदख़ल कर दिया गया। उनके मकान को बुलडोज़र से तोड़ दिया गया और नगर पंचायत के विघटन के बाद भी परिवारवाले दुबारा उसे नहीं बना पाए।"पर इन सभी मुश्किलों की बावजूद गाँववाले अडिग रहे कि अगर फिर विश्रामपुरी को नगर पंचायत बनाने की कोशिश की गई तो वो फिर लड़ेंगे।

साल 2000 में राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ ने कई ग्रामों को नगर पंचायतों में बदला। पर विश्रामपुरी एक ऐसा उदाहरण है जहाँ वर्षों तक संगठित प्रतिरोध के ज़रिये लोगों ने पेसा कानून के तहत अपने हक और एक गाँव को प्राप्त होने वाले विकास योजनाओं के अधिकार वापस लिए।


  

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.