सरकार को कोसने वालों, इन आदिवासियों से कुछ सीखिए, खुद बनाया चेकडैम, दूर हुई पानी की कमी

Neetu SinghNeetu Singh   17 March 2018 4:08 PM GMT

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सरकार को कोसने वालों, इन आदिवासियों से कुछ सीखिए, खुद बनाया चेकडैम, दूर हुई पानी की कमीइन आदिवासियों ने मेहनत करके चेकडैम की खुदाई कर पानी की समस्या से पाया निजात।

आदिवासियों की जिन्दगी हमेशा से गरीबी और समस्याओं से जूझती नजर आयी है। हमने उनके पिछड़ेपन का जिक्र सुना है। हम आपको विश्व जल दिवस पर गांव कनेक्शन की स्पेशल खबरों की सीरीज ‘पानी कनेक्शन’ में मिलवाते हैं इन नजीर पेश करने वाले आदिवासियों से...जिनकी कहानी पढ़कर आप भी कहेंगे वाह !

हर साल विश्व जल दिवस के माैके पर हम अक्सर पानी की समस्याओं पर बात करते हैं, सरकार को कोसते हैं, लेकिन खुद कुछ नहीं करते। आदिवासियों को हम पिछड़ा समझते हैं, अनपढ़ मानते हैं, लेकिन उन्हीं आदिवासियों ने एक होकर न सिर्फ पानी की कमी को दूर किया, बल्कि दूसरों के लिए मिशाल भी पेश की।

जो खेत पानी के अभाव में हमेशा खाली पड़े रहते थे, उन खेतों में इस साल चेकडैम में बरसात के संरक्षित पानी से दो फसलें लेकर किसानों ने ये साबित कर दिया कि पानी की लड़ाई सिर्फ सरकार की नहीं बल्कि हम सबकी भी है।

ललितपुर जिला मुख्यालय से लगभग 49 किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में विरधा ब्लॉक के पिपरई टपरियन गांव में सहरी आदिवासी रहते हैं। यहां के किसान पानी के अभाव में फसल नहीं उगा पाते थे। इस गांव में रहने वाले पम्मू सहरिया (55 वर्ष) ने खुश होकर बताया, “पहले बरसात में ही कोई फसल बो पाते थे। इस बार चेकडैम को खोदने में थोड़ी सी मेहनत कर ली, जिससे मटर, चना, मसूर फसलें ले लीं।” इन किसानों की थोड़ी सी मेहनत से न सिर्फ यहां का जलस्तर बेहतर हुआ बल्कि पानी को लेकर इनकी कई तरह की समस्याओं का समाधान भी हुआ।

जहां इस चेकडैम के पानी से किसानों ने 50 एकड़ से ज्यादा फसल की सिंचाई की। वहीं इसका पानी पशुओं को पिलाने से लेकर घरेलू जरूरतों के लिए भी इस्तेमाल किया। चेकडैम में पानी होने की वजह से आस-पास के कुंए में भी पानी बना रहा। हलांकि अब चेकडैम सूखा पड़ा है लेकिन सालभर किसानों ने अपनी फसल की इससे सिंचाई की है, और भू-जलस्तर ठीक किया।

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आदिवासियों की जिन्दगी हमेशा से गरीबी और समस्याओं से जूझती नजर आयी है। हमने उनके पिछड़ेपन का जिक्र सुना है, असुविधाओं के बीच उनका जीवनयापन गुजरता है। पर ये आदिवासी अब जागरूक हो रहे हैं, अपनी समस्याओं का समाधान खुद कर रहे हैं। ललितपुर में इन सहरिया आदिवासियों के लिए काम कर रही एक गैर सरकारी संस्था साईं ज्योति संस्थान के मुताबिक़ यहां 71,610 शहरिया आदिवासी परिवार रहते हैं।

इसी गांव में रहने वाली सावित्री सहरिया (48) ने बताया, “हम सालभर लकड़ी बीनकर ही अनाज खरीदते थे लेकिन इस साल इतना अनाज पैदा हो गया है कि हमें खरीदना नहीं पड़ेगा। कपड़े भी यहीं आकर धुल लेते थे, बच्चे नहा भी लेते थे क्योंकि आसपास पानी नहीं है।”

दिल्ली स्थित गूंज संस्था कई स्टेट में ‘क्लॉथ फॉर वर्क’ योजना के तहत काम करती है। ये संस्था ऐसे जिलों में ऐसी बस्तियों में काम करती है जो विकास से कोसों दूर रहते हैं। ऐसे गांव जो आज भी विकास की इस रफ़्तार में मुख्य धारा से बहुत दूर हैं, जिन गांव में सरकार की नजर नहीं पड़ती और जहां विकास के नाम पर कोई काम नहीं होता। इस संस्था का प्रयास है कि लोग श्रमदान करके खुद अपने लिए विकास के काम करें उसके बदले गूँज संस्था उनके पूरे परिवार के लिए कपड़े देती है।

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गूँज संस्था की तरफ से श्रमदान के बदले इन्हें मिला जरूरत कासामान

गूँज संस्था के सदस्य चिरंजीत गाएन ललितपुर में तीन वर्षों से संस्था साईं ज्योति संस्थान के साथ मिलकर आदिवासियों के लिए काम कर रहे हैं इनका कहना है, “आदिवासियों को जागरूक और प्रोत्साहन करने की जरूरत है, इस चेकडैम की खुदाई इन्होंने खुद की। हमने सिर्फ इन्हें प्रोत्साहित किया। पानी को लेकर मैंने यहां के लोगों के चेहरे की उदासी देखी है, जब इस साल इन्होंने साल भर इस पानी से सिंचाई की तो इनके चेहरे पर एक अलग तरह की खुशी देखने को मिली।”

“सड़क नहीं है, बिजली नहीं है, पानी नहीं है, ऐसी तमाम समस्याएं ये आदिवासी मिलकर खुद सुलझाएं और श्रमदान करें, हम इनका मनोबल बढ़ाने के लिए ‘क्लॉथ फॉर वर्क’ योजना के तहत इनके पूरे परिवार के लिए कपड़ा देते हैं साथ ही इनकी झोपड़ियों से बरसात में पानी न गिरे उसके लिए इन्हें तिरपाल भी खरीदकर देते हैं।” चिरंजीत ने कहा।

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सिंचाई सेलेकर घरेलू जरूरतों के लिए भी इन्होंने किया इस पानी का इस्तेमाल

इस गांव के रामकिशोर सहरिया (50 वर्ष) ने कहा, “हम लोग पढ़े लिखे नहीं हैं, हर काम अधिकारी करेंगे, यही हमारी सोच रहती है, पर जब इस संस्था ने हमारी समस्या पूंछी और हमने पानी की परेशानी बतायी, इन्होंने चेकडैम खोदने को बोला और कहा हम बदले में कपड़े देंगे, तो हम सब तैयार हो गये। इस बार फसलो की पैदावर देखकर विश्वास नहीं हो रहा है कि ये हमारी ही मेहनत है।”

वो आगे बताते हैं, “जिस समस्या से हम वर्षों से जूझ रहे थे वो कुछ दिन मेहनत करने से हल हो गयी, अब ये हमे कपड़े न भी दें तो भी हम अपने लिए काम करेंगे और सरकार का इन्तजार नहीं करेंगे।” अगर इन आदिवासी किसानों की तरह देश का हर नागरिक पानी की बचत करना अपने स्तर से शुरू कर दे तो आने वाले समय में हममें से हर किसी को पानी से जूझना नहीं पड़ेगा।

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