फसल कटाई, मौज़ मस्ती और सेहत के रखरखाव का पारंपरिक त्यौहार है मकर संक्रांति

मकर संक्रांति के त्यौहार को मानसिक सुख शांति, फसल कटाई और स्वास्थ्य बेहतरी की दृष्टि से अति उत्तम माना जाता है, मकर संक्रांति का वनवासी जीवनशैली में आध्यात्मिक महत्व के साथ-साथ धार्मिक महत्व भी काफी है

Deepak AcharyaDeepak Acharya   14 Jan 2020 7:21 AM GMT

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फसल कटाई, मौज़ मस्ती और सेहत के रखरखाव का पारंपरिक त्यौहार है मकर संक्रांति

भारतीय वनांचलों में रह रहे आदिवासियों की सदियों पुरानी परंपराओं और सामाजिक कार्यक्रमों में त्यौहारों का बेहद महत्व माना जाता है। वनवासियों ने प्रकृति को हमेशा देवतुल्य माना है। चाहे पेड़-पौधे हों या ब्रम्हाण्ड, इसके हर एक अंग को किसी ना किसी तरह अपनी आस्थाओं से जोड़कर वनवासियों ने प्रकृति को सदैव अपने-अपने तरीकों से अपनाया है, माना है। मकर संक्रांति का त्यौहार जहां सारे हिन्दुस्तान में अपनी-अपनी तरह से मनाया जाता है, वहीं दूरस्थ वनों और ग्रामीण इलाकों में भी इसकी अपनी महत्ता है।

जहां एक ओर भारत में इसे सूर्य देव के आराध्य से जोड़कर देखा जाता है वहीं डाँग जैसे सुदूर इलाकों में इस त्यौहार को मानसिक सुख शांति, फसल कटाई और स्वास्थ्य बेहतरी की दृष्टि से अति उत्तम माना जाता है। मकर संक्रांति का वनवासी जीवनशैली में आध्यात्मिक महत्व के साथ-साथ धार्मिक महत्व भी काफी है। इस आलेख में आपको गुजरात के डांग और मध्यप्रदेश के पातालकोट में बसे वनवासियों के बीच मकर संक्रांति के महत्व के बारे में बताया जाएगा।

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दक्षिण गुजरात में एक जिला है "डाँग", जहाँ शत प्रतिशत वनवासी आबादी बसी हुई है और यहाँ आमजनों के बीच मकर संक्रांति को लेकर जितनी जानकारी है शायद ही देश के किसी अन्य हिस्से में इस विषय को लेकर इतनी जानकारी एक साथ एक जगह पर इतने सारे लोगों को हो। मकर संक्रांति की बात की जाए तो वनवासी बेहद उत्साहित नजर आते हैं। बुजुर्ग वनवासियों के अनुसार इसी दिन से सूर्य का उत्तर दिशा में प्रवेश होता है और इस दौरान सूर्य की किरणें तेजवान होने लगती हैं और सूर्य प्रकाश पृथ्वी पर समस्त जीवों को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है।

ज्यों-ज्यों सूर्य प्रवेश उत्तर दिशा की ओर अग्रसर होता जाता है वैसे-वैसे हमारे जीवन में भी सकारात्मकता के भाव आते जाते हैं, सूर्य की इस अवस्था को उत्तरायण के नाम से भी जाना जाता है। डाँग जिले के सबसे बुजुर्ग हर्बल जानकार और वैद्य स्व. जानू काका अक्सर कहा करते थे कि मकर संक्रांति हर मनुष्य के लिए बेहद महत्व का त्यौहार है। इनके अनुसार दक्षिणायन के पूर्ण होने के बाद अगले पंद्रह दिनों में ज्यों-ज्यों सूर्य उत्तर दिशा की ओर अग्रसर होता जाता है त्यों-त्यों मानव शरीर और मानव के इर्द गिर्द घटनाओं में सकारात्मकता आते जाती है और इस दौर में यदि नए व्यवसाय या कार्य की शुरुआत हो तो इन्हें सफलता मिलना लगभग तय होता है।

डाँग में कुकना, गामित, भीखा, वरली और कुनबी वनवासी अपनी पारंपरिक जीवन शैली में उत्तरायण को विशेष तौर से आज भी अपनाए हुए हैं। इन वनवासियों के लिए आज भी अपनी सामाजिक परंपरा अति-महत्वपूर्ण है। जहाँ आम रूप से मकर संक्रांति नयी ऋतु के आगमन का संदेश है वहीं वनवासियों के लिए यह समय पिछली ऋतु में बोयी फसलों की कटाई से जोड़कर देखा जाता है। वनवासियों की मान्यता के अनुसार यह काल अन्धकार से उजाले की तरफ जाने की तरह होता है, सूर्य की रौशनी ज्यादा समय तक धरती पर पड़ती है, रातें अपेक्षाकृत छोटी हो जाती है।

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नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर इंगित करने वाले इस त्यौहार पर गाँव के बुजुर्ग धरती माँ, पर्वत और प्रकृति की पूजा कर पिछ्ली फसल के लिए धन्यवाद देते हैं और फसल कटाई का कार्य शुरु करते हैं। मकर संक्रांति के समय वनवासियों का यह विशेष प्रकृति प्रेम एक मिसाल की तरह है। गाँव के सबसे ज्यादा सम्माननिय व्यक्ति को इस पूजा अर्चना का दायित्व दिया जाता है। डाँग- गुजरात में देव-स्वरूप माने जाने वाले जड़ी-बूटियों के जानकार जिन्हें भगत कहा जाता है, वे इस कार्य का संपादन करते हैं।

गाँव के कुछ बुजुर्ग, युवा और बच्चे मकर संक्रांति की सुबह जल्दी उठकर स्नानादि के बाद जंगल में किसी बड़े पहाड़ के बीच पहुँचकर एक विशेष पोखर या जल प्रवाह वाले स्थान पर एकत्र हो जाते है। इसे डूंगर देव की पूजा कहा जाता है। भगत के नेतृत्व में सारे युवा और बुजुर्ग सबसे पहले इस स्थान पर पहुँचकर चटटानों, पेड़-पौधों आदि का स्पर्श कर सम्मान पूर्वक नमन करते है। ये सभी लोग फसलों की कटाई से पूर्व अपने खेतों में कटाई के लिए तैयार कुछ पौधों को जड़े और अनाज निकालकर अपने हाथ में लेकर भगत के साथ-साथ जंगल में पूजा अर्चना के लिए चलते है।


एक व्यक्ति हाथ में पूजा की थाल लिए चलता है जिसमें पलाश की पत्तियों पर पूजा अर्चन के लिए चावल के आटे से बने दीप रखे होते है। गाँव का एक व्यक्ति हाथों में "तुमका" लिया होता है। तुमका एक डंडे पर लोहे के सिक्के जड़ित खनाखनाहट पैदा करने वाला एक वाद्य यंत्र होता है। पूजा अर्चना के दौरान इसे ठोक-ठोककर बजाया जाता है और साथ एक व्यक्ति लगातार "पावरी" बजाए चलता है। पावरी बैल के सिंग, सूखी हुयी लौकी या तुंबा और बांस से मिलकर बनाया हुआ एक स्थानीय वाद्य यंत्र होता है जो बीन की तरह दिखायी देता है।

डूंगर (पहाड़) के किसी एक स्थान पर एक विशेष जल-स्रोत या पोखर पर पहुँचकर भगत के विशेष निर्देशों पर डूंगर देव का पूजन कार्यक्रम शुरु होता है। सबसे पहले तुलसी के पौधे को पानी की ऊपरी सतह पर फेरा जाता है और इसी पौधे से आस-पास सफाई भी करी जाती है, वनवासी परंपरा के अनुसार तुलसी एक दिव्य पौधा होता है। प्रकृति माता को अर्पण करने के लिए गन्ने की पत्तियों की माला भी तैयार की जाती है और इसे चटटान या पोखर पर चढ़ाई जाती है, अगरबत्ती जलाकर डूंगर देव का आव्हान किया जाता है और पूजन प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है।


सबसे पहले भगत अपने हाथों में तुमका लेकर पोखर में इसका एक बार स्पर्श करते हैं और मंत्रोच्चारण प्रारंभ होता है जो मूलत: डाँगी भाषा में ही होता है। डांगी भाषा मराठी और गुजराती का मिलाजुला स्वरूप है। मंत्रों के द्वारा डूंगर देव को सर्वप्रथम आमंत्रित किया जाता है और उन्हें पिछ्ली फसल की बेहतरी के लिए धन्यवाद दिया जाता है। भगत इस आमंत्रण के बाद एक साफ सूती कपड़ा जमीन पर रखकर इस पर अपना माथा टेककर आभार व्यक्त करते हैं और फ़िर इस कपड़े पर हालिया फसल से प्राप्त पौधों, अनाजों आदि को रख दिया जाता है और देव को भोग अर्पित किया जाता है।

अपने हथेली में अनाज के कुछ दाने लेकर भगत द्वारा पुनः एक बार मंत्रोच्चारण का दौर शुरू होता है, मंत्र समाप्ति के बाद भगत चारों दिशाओं में घूमकर जंगल, हवा, पानी, आकाश और जमीन को अनाज का तर्पण कराते हैं। इस पूरे पूजन के दौरान जो सबसे खास बात समझ पड़ती है, वह पूजन स्थल का शांतिपूर्ण माहौल। वहाँ पर उपस्थित सभी लोगों डूंगर देव की पूजन अर्चना में तत्परता से पूजन करते हैं और अंत में उपयोग में लाए अनाज को डूंगर देव का आशीर्वाद माना जाता है, इन अनाज का कुछ हिस्सा लेकर एक अन्य सूती कपड़ें में डाल दिया जाता है और बाद में इस अनाज को ये लोग अपने अपने घरों में लाकर पूर्व से संग्रहित अनाज के साथ मिला लेते है।

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इनका मानना है कि ऐसा करने से साल भर घर में अनाज की कमी नही होती है। पूजन समाप्ति के बाद लोग घरों में पहुंचकर तिल और मूंगफली से बनी चिक्कियों और लड्डूओं का भोग अपने-अपने आराध्य देव को कराते है और बाद में परिवार के सभी सदस्य मिलकर इनका स्वाद लेते हैं। डूंगर देव की आराधना के अलावा इस त्यौहार का विशेष महत्व सेहत बेहतरी को लेकर होता है।

वनवासी हर्बल जानकारों के अनुसार मकर संक्रांति यानी उत्तरायण में तिल का सेवन अत्यंत जरूरी है। तिल एक जाना पहचाना बीज है जो लगभग हर भारतीय रसोई में देखा जा सकता है। मकर संक्रांति के दौरान तिल के बीजों से बने लड्डू तो हिन्दुस्तान में हर घर में देखे जा सकते हैं। इसके बीजों से प्राप्त तेल का उपयोग खाद्य तेल के तौर पर भी किया जाता है। वनवासी तिल से जुड़े अनेक पारंपरिक नुस्खों का जिक्र करते हैं। बवासीर होने पर तिल के बीजों (10 ग्राम) को कुचलकर पानी (50 मिली) में उबाला जाए और ठंडा होने पर घाव वाले हिस्से पर लेपित किया जाए तो तेजी से आराम मिलता है, आदिवासियों के अनुसार दिन में कम से कम 2 बार इस प्रक्रिया को किया जाना चाहिए।


जिन महिलाओं को मासिक धर्म के दौरान होने वाली दर्द की शिकायत हो उन्हें तिल के बीजों (5 ग्राम) को सौंफ (3 ग्राम) और गुड़ (5 ग्राम) के साथ मिलाकर पीसकर सेवन करना चाहिए, दर्द में काफी राहत मिलती है। इन वनवासियों के अनुसार तिल के भुने हुए बीजों की आधा चम्मच मात्रा को दिन में कम से कम 4-5 बार चबाने से मधुमेह के रोगियों को काफी फायदा होता है। आधुनिक विज्ञान की शोध दर्शाती है कि तिल में खून से शर्करा कम करने का गुण है। मकर संक्रांति के दौरान तिल और गुड़ के पाक का मिश्रण शरीर में गर्मी प्रदान करता है। ग्रामीण इलाकों में काले तिल का इस्तमाल सर्दी को दूर भगाने के लिए सदियों से किया जाता रहा है। जानकारों के अनुसार काले तिल की एक चम्मच मात्रा की फांकी लेने से सर्दी में आराम मिलता है।

चलिए अब चर्चा मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले की पातालकोट घाटी वनवासियों की भी कर ली जाए। पातालकोट एक अलग दुनिया है, विकसित समाज की मुख्यधारा से कोसों दूर ये आदिवासी आज भी प्रकृति को अपना सबसे बड़ा देव मानते है। ध्ररातल से 3000 फीट की गहरायी में गोंड और भारिया जनजाति के वनवासी इस घाटी में वास करते हैं। गौत्र, गृह- नक्षत्रों के बारे में इनकी समझ दुनिया से अलग है, जड़ी-बूटियों का भी इनकी जीवनशैली में एक महत्वपूर्ण स्थान है। मकर संक्रांति को ये आदिवासी अपने नजरिये से बड़ा ही महत्वपूर्ण मानते हैं।


जानकारों के अनुसार इस त्यौहार का सीधा सम्बन्ध प्रकृति, ऋतु परिवर्तन और कृषि से है जो कि जीवन का आधार हैं। मकर संक्रांति से एक दिन पहले शाम होते ही पातालकोट के हर्बल जानकार (जिन्हें भुमका कहा जाता है) अपने घर- आंगन के चारों तरफ़ गौ-मूत्र का छिड़काव कर परिवेश शुद्धि की प्रक्रिया करते हैं और फिर घर में रखी सारी वनौषधियों को घर के छ्ज्जे पर, खुले आसमान में अगले 8 दिनों के लिए रख देते हैं, इनका मानना है कि शीत ऋतु की विदाई के साथ बसंत ऋतु के आगमन यानी उत्तरायण काल में सूर्य की किरणें रोगहारक होती हैं और ज्यों-ज्यों सूर्य की चमक तेज़ होती जाती है, इसकी किरणों में रोगों को हर लेने की क्षमता होती जाती है, इन किरणों का असर त्वचा के रोग को भी ठीक कर सकता है।


इन आदिवासियों के अनुसार अपनी किरणों से सूर्य इन जड़ी-बूटियों में अमृत का संचार कर देता है और ये जड़ी बूटियां फिर रोगोपचार के लिए उपयोग में लायी जाती है। देर रात ये आदिवासी अपने आंगन में अलाव जलाकर नाच गाना भी करते है और वाद्य-यंत्र जैसे ढोल, टिमकी, शहनाई, टिमगा आदि बजाए जाते हैं और मकर संक्रांति के सूर्योदय का इंतज़ार करते हैं। वनवासी तिल से बने व्यंजन तैयार करते हैं जिनमें तिल की पट्टियां, लड्डू, भूनी हुयी तिल, तिल पापड़ आदि मुख्य होते हैं। अलग-अलग रूपों में तिल, चावल, उड़द की दाल एवं गुड़ खाना बेहद इस दौरान हितकर माना जाता है। इन तमाम सामग्रियों में सबसे ज्यादा महत्व तिल को दिया जाता है।

वनवासियों का मानना है कि इस दिन तिल अवश्य खाना चाहिए। सच ही है, इस दिन तिल के महत्व के कारण मकर संक्रांति पर्व को तिल संक्राति के नाम से भी पुकारा जाता है। तिल और गुड़ पौष्टिक होने के साथ ही साथ शरीर को गर्म रखने वाले भी होते हैं। वनवासियों से प्राप्त एक जानकारी के अनुसार शीतकाल सूक्ष्मजीवों के संक्रमण का काल होता है और बसन्त के आते-आते इनमें कमी तो आ जाती है लेकिन मकर संक्रांति के दौरान तिल और गुड़ जैसे पदार्थों के सेवन से शरीर को आंततिक गरमाहट मिलती है जो सूक्ष्मजीवों को जड़ से उखाड़ फेंकने में सक्षम होते है।

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इस दौरान चावल व मूंग की दाल मिलाकर खिचड़ी और दाल पेजा बनाना भी इनकी परंपरा का एक हिस्सा है। जहां एक ओर मसालों में पकी खिचड़ी बेहद स्वादिष्ट, पाचक व ऊर्जा से भरपूर होती है वहीं दालपेजा अरहर और उड़द की दालों का मिश्रण होता है। दालों के मिश्रण से बना ये आहार कई मायनों में खास होता है। इस व्यंजन के बेहद औषधीय गुण हैं। बुजुर्ग जानकारों के अनुसार उड़द के बीजों से प्राप्त होने वाली दाल बेहद पौष्टिक होती है। आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि छिल्कों वाली उड़द की दाल में विटामिन, खनिज लवण तो खूब पाए जाते हैं और ख़ास बात ये कि इसमे कोलेस्ट्रॉल नगण्य मात्रा में होता है।

आदिवासी अंचलों में इसे बतौर औषधि कई हर्बल नुस्खों में उपयोग में लाया जाता है। आदिवासियों के अनुसार पुरुषों में शक्ति और यौवन बनाए रखने के लिए उड़द एक बेहतर उपाय है। इस हेतु इसकी दाल का पानी के सेवन की सलाह दी जाती है और यह भी माना जाता है कि इसकी दाल पकाकर प्रतिदिन खाना चाहिए। पोटेशियम की अधिकता की वजह से आधुनिक विज्ञान भी इसे मर्दाना शक्ति बढ़ाने के लिए मानता है। दुबले लोग यदि छिलके वाली उड़द दाल का सेवन करे तो यह वजन बढ़ाने में मदद करती है।


अपने भोजन में उड़द दाल का सेवन करने वाले लोग अक्सर वजन में तेजी से इजाफा देख सकते हैं। आदिवासी जानकारी के अनुसार इसकी दाल का नियमित सेवन और उबली दाल के पानी को रोज सुबह पीना वजन बढ़ाने में सहायक होता है। इसी तरह दाल के रूप में उपयोग में लिए जाने वाली सभी दलहनों में अरहर का प्रमुख स्थान है। अरहर को तुअर या तुवर भी कहा जाता है। अरहर के कच्चे दानों को उबालकर पर्याप्त पानी में छौंककर स्वादिष्ट सब्जी भी बनाई जाती है। आदिवासी अंचलों में लोग अरहर की हरी-हरी फलियों में से दाने निकालकर उन्हें तवे पर भूनकर भी खाते हैं। इनके अनुसार यह स्वादिष्ठ होने के साथ-साथ पौष्टिक भी होते हैं। पातालकोट के आदिवासी अरहर की दाल छिलको सहित पानी में भिगोकर रख देते हैं। आदिवासी इस पानी से कुल्ले करने पर मुँह के छाले ठीक होने का दावा करते है। अरहर की ताजी हरी पत्तियों को चबाने से भी छालों में आराम मिलता है। दालपेजा इन दोनों का दालों का मिश्रण होने की वजह से खास तौर से औषधीय महत्व का होता है।

घाटी के वनवासी मानते हैं कि इस दिन से ही शीत ऋतु की विदाई हो जाती है और बसन्त का आगमन हो जाता है और बसन्त स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए सबसे उत्तम काल माना जाता है। इस दिन घाटी के तमाम लोग झरनों और पोखरों में जाकर सूर्यदेव की उपासना के साथ स्नान करते हैं और बहते हुए जल में तिल का तर्पण कर प्रकृति का धन्यवाद करते हैं। इनका मानना है कि मकर संक्रांति से सूर्य की गति तिल–तिल बढ़ती है, इसीलिए इस दिन तिल के तर्पण और भोग का विशेष महत्व है।

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त्यौहारों को परंपराओं से जोड़कर देखना, समझना और इसकी महत्ता को समझना मुझे हमेशा से रोमांचित करता रहा है। चाहे डांग में डूंगर देव की पूजा की बात हो, पातालकोट में सारी रात अलाव जलाकर नाचना, सूर्योदय का इंतज़ार करना, पोखरों और झरनों में तिल का तर्पण और इससे जुड़ी मान्यताओं को जानकर कई बार मैं खुद सोच में पड़ जाता हूँ कि तथाकथित आधुनिक या मॉडर्न समाज में बच्चों और नयी पीढ़ी को तीज- तयौहारों के असल महत्व के बारे में सीख क्यों नहीं दी जाती? मदर्स डे, फादर्स डे और वेलेंटाइन डे पर खुशी जाहिर करने वाली जमात क्या कभी मकर संक्रांति जैसे त्यौहारों के असल महत्व को समझ पाएगी, सन्देह है।

ग्रामीण इलाकों और वनवासियों के प्रकृति प्रेम को क्या कभी हम समझ पाएंगे? मेरे ख्वाहिश है कि इस बार मकर संक्रांति पर आप भी अपने परिवार के साथ घर से बाहर निकलें, कूच करें किसी ग्रामीण इलाके में और मौका मिले तो मकर संक्रांति की पहली सुबह किसी नदी में डुबकी जरूर लगा आएं, और हाँ, तिल और गुड़ के अलावा नयी फसल से प्राप्त दालों से पकी खिचड़ी जरूर खाएं, और अंत सबसे खास सलाह...अपने मोबाइल को इस दौरान आराम करने दीजिएगा..शुभकामनाएं...

(डॉक्टर दीपक आचार्य एक वैज्ञानिक हैं और गाँव कनेक्शन के कंसल्टिंग एडिटर भी)


    

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