जिस तरह से देश और दुनिया जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान की दोहरी चुनौतियों से जूझ रहे हैं, ऐसे में असम की ‘हमार’ जनजाति के पारंपरिक खेती का तरीका इसका समाधान हो सकता है।
असम विश्वविद्यालय, सिलचर के पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण विज्ञान विभाग ने असम की स्थानीय ‘हमार’ जनजाति के खेती के पारंपरिक कृषि वानिकी प्रणाली का अध्ययन किया है, जिससे पेड़ों की विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र में कार्बन भंडारण का आकलन किया गया। इस स्टडी में पता चला कि हमार जनजाति के लोग खेती के पंरपरागत तरीके से अनानास की खेती कर जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता को बचाने में मदद कर रहे हैं।
असम विश्वविद्यालय, सिलचर के पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण विज्ञान विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर अरुण ज्योति नाथ के नेतृत्व में यह अध्ययन असम के कछार जिले में स्थित पारंपरिक जनजातीय गांवों में किया गया। यह अध्ययन भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के जलवायु परिवर्तन कार्यक्रम प्रभाग की मदद से किया गया है।
डॉ. अरुण ज्योति नाथ गाँव कनेक्शन से इस स्टडी के बारे में बताते हैं, “असम जैसे नॉर्थ ईस्ट के राज्यों में एक बड़े क्षेत्र में अनानास की खेती की जाती है और यहां के अनानास देश भर में मशहूर हैं। यहां के हमार जनजाति की खेती के तरीकों पर हमने स्टडी की तो पाया कि इनका खेती का परंपरागत तरीका कॉर्बन को कम से कम खर्च करता है। हमार जनजाति का खेती का तरीका झूम खेती से होने वाले नुकसान से बचा सकती है।”
झूम खेती को स्विडन एग्रीकल्चर भी कहा जाता है और यह पूर्वोत्तर के राज्यों में प्रचलित खेती का तरीका है। जिसमें पेड़ पौधों को काटकर उन्हें जला दिया जाता है, फिर उसी जमीन पर फसल बो दी जाती है, दो-तीन साल तक उसमें खेती करने के बाद उसे ऐसे ही छोड़ दिया जाता है। झूम विधि से जैव विविधता खत्म हो रही है और पेड़-पौधों को जलाने से कॉर्बन का उत्सर्जन होता है।
वैज्ञानिक लंबे समय से ऐसे कृषि वानिकी विकल्पों की तलाश कर रहे हैं जो जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान की दोहरी चुनौतियों का समाधान करने के साथ-साथ उच्च भंडारण क्षमता और पेड़-पौधों की विविधता बरकरार रख सकेंगे।
डॉ अरुण ज्योति नाथ आगे कहते हैं, “पाइनएप्पल एग्रोफोरेस्ट्री सिस्टम (अनानास कृषि वानिकी प्रणाली ) में बड़े पेड़ों के साथ ही अनानास की खेती जाती है। दक्षिणी असम में ‘हमार’ जनजाति सदियों से अनानास की खेती करती रही है। यहां पर ये लोग इस विधि से खेती करके दोगुना फायदा कमा रहे हैं। उन्होंने एक अनोखी कृषि वानिकी प्रणाली विकसित करने के लिए अपने पारंपरिक ज्ञान का इस्तेमाल किया है।”
असम का कछार जिला हिमालय की तलहटी में स्थित है और वैश्विक जैव विविधता का भारत-बर्मा हॉटस्पॉट है। इस अध्ययन के जरिये विभिन्न आयु के पाइनएप्पल एग्रोफोरेस्ट्री सिस्टम (पीएएफएस) के जरिये झूम खेती से होने वाले वृक्षों की विविधता में परिवर्तन और प्रमुख वृक्ष प्रजातियों में बदलाव का पता लगाने की कोशिश की गई। इसके अलावा विभिन्न आयु के पीएएफएस के जरिये झूम खेती से पेड़ों और अनानास घटकों में बायोमास कार्बन और इकोसिस्टम कार्बन भंडारण में होने वाले बदलावों को भी नोट किया गया।
स्टडी में पाया गया कि हमार जनजाति के किसान अपने परंपरागत खेती के ज्ञान के जरिए पेड़ों का चुनाव करते हैं। डॉ अरुण ज्योति नाथ इस बारे में बताते हैं, “यह पर लोग किनारे ऐसे पेड़ लगाते हैं जो खेत में बाड़ का काम करता है और मिट्टी के कटाव को भी रोकता है। अनानास की मार्केट में अच्छी खासी डिमांड होती है, इसके साथ ही अगर की लकड़ी भी बहुत काम की होती है। किसान जो भी फलों के पेड़ लगाते हैं उससे अनानास के साथ और ज्यादा मुनाफा हो जाता है।”
किनारे में किसान सुपारी और केले के पेड़ लगाते हैं, यही नहीं शिरीष और अगर जैसे पेड़ों के साथ ही पपीता, नींबू, अमरूद, लीची और आम जैसे फलदार पेड़ भी लगाते हैं। बड़े छायादार पेड़ कैनोपी की तरह काम करते हैं और खेत में तेज धूप को आने से भी रोकते हैं, जिससे बायोमास बढ़ता है और मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ती है।
स्टडी में पता चला है कि आरईडीडी+ के लिए खेती की इस प्रणाली को अपनाया जा सकता है, पेड़ों की कम से कम कटाई हो। आरईडीडी + का मतलब पेड़ों की कटाई को कम करना ताकि कॉर्बन उत्सर्जन में कमी लाई जा सके। वन कार्बन भंडारण करना, जंगलों का सतत प्रबंधन और विकासशील देशों में जंगलों के कार्बन भंडारण को बढ़ाना है।