बरसाती पानी में छिपा है बीहड़ का इलाज

बीहड़ बनने की प्रक्रिया ने किसानों को खेत छोड़ने और पलायन के लिए किया मजबूर, उत्तर प्रदेश समेत राजस्थान, गुजरात, बिहार जैसे राज्यों में दिखाई देता है बीहड़ इलाका

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बरसाती पानी में छिपा है बीहड़ का इलाज

मिट्टी के कटाव का सबसे बदनुमा चेहरा यदि कहीं दिखता है तो वह बीहड़ में दिखाई देता है। बरसाती पानी से कटी-पिटी धरती ऊबड़-खाबड़ और पूरी तरह उद्योग, बसाहट या खेती के लिए अनुपयुक्त होती है। दूर से ही पहचान में आ जाती है।

भारत में उन्हें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और बिहार में देखा जा सकता है। इस लेख में केवल मध्य प्रदेश के बीहड़ों की सुधार, पुनर्वास और बरसाती पानी की मदद से उपचार का विवरण उपलब्ध है। उपचार सुझाव की सूरत में है।

मध्य प्रदेश के लगभग सात लाख हेक्टेयर इलाके में बीहड़ हैं। हर साल उनका विस्तार हो रहा है। मध्य प्रदेश के चम्बल, ग्वालियर और सागर संभाग में बीहड़ की समस्या है। ग्वालियर संभाग के ग्वालियर जिले की एक लाख 10 हजार हेक्टेयर, दतिया जिले की 26 हजार हेक्टेयर, गुना और अशोक नगर जिलों की एक लाख हेक्टेयर और शिवपुरी जिले की लगभग 26 हजार हेक्टेयर भूमि बीहड़ प्रभावित है।


एक लाख हेक्टेयर को पार कर चुकी यह समस्या

सागर सम्भाग के टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर और दमोह जिले में यह समस्या एक लाख हेक्टेयर के आँकड़े को पार कर चुकी है। बीहड़ बनने के कारण कस्बे, गाँव, वहाँ की जमीन और लाखों ग्रामीण और इंफ्रास्ट्रक्टचर प्रभावित होते हैं। विभिन्न कारणों से, मध्य प्रदेश में पाए जाने वाले बीहड़ों में सबसे अधिक प्रसिद्ध बीहड़ चम्बल कछार के हैं।

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चम्बल कछार के बीहड चम्बल और उसकी सहायक नदियों (क्वारी, आसन, सीप, वैशाली, कूनों, पार्वती, सांक इत्यादि) की घाटियों में स्थित हैं। अकेले चम्बल सम्भाग की 16.13 लाख हेक्टेयर जमीन बीहड़ में तब्दील हो चुकी है। साइंस सेंटर, ग्वालियर के सर्वेक्षण से पता चला है कि भिंड और मुरैना जिलों में पिछले 30 सालों में बीहड़ क्षेत्र में 36 प्रतिशत से भी अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है। अनुमान है कि अगले 100 सालों में मध्य प्रदेश का बीहड़ प्रभावित इलाका लगभग 14 लाख हेक्टेयर हो जाएगा।

चम्बल के बीहड़ों के सुधार और पुनर्वास के लिए पिछली सदी से प्रयास जारी हैं। सबसे पहले ग्वालियर रियासत के जमाने में प्रयास किये गए। आजादी के बाद मध्य भारत और फिर सन 1956 के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने इस दिशा में काम किया। कुछ स्वयं सेवी संस्थाओं ने भी कोशिश की।

पीछे विकसित होता बीहड़, खोत को खा गया

कृषि विभाग ने बीहड़ों के शीर्ष पर स्थित खेतों से बरसाती पानी की सुरक्षित निकासी के लिए पेरीफरल बंड (Bund on the periphery of the field) और पक्के आउटलेट बनाए। इसके अलावा वनीकरण और गली प्लग बनाने का भी काम हुआ। इन कामों के असर से केवल उपचारित क्षेत्र में बीहड़ों का बनना रुका पर कुछ साल के बाद ही उपचारित क्षेत्र में पानी ने आउटलेट के बगल की भूमि को काट दिया। पीछे विकसित होता बीहड़, खेत को खा गया। व्यवस्था अनुपयोगी हो गई। वनीकरण और गली प्लग का काम भी अस्थायी सिद्ध हुआ।

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वन विभाग ने पिछली सदी में हेलीकॉप्टर से बीहड़ की जमीन पर बीजों का छिड़काव किया था। उम्मीद थी जंगल का विकास बीहड़ बनने को रोक देगा। उन्होंने हवाई छिड़काव में मुख्यतः प्रोसोपीस जुलिफ्लोरा (prosopis juliflora), अकासिया केटेचु (acacia catechu), अकासिया लियोकोप्लोआ (acacia leucophloea), केनेरा, केलामस (canara calamus), लेगूमस (legumes), कुछ खास किस्म के घास और करील जैसी प्रजातियों का उपयोग किया था।

जमीन के स्थायित्व के लिये विभाग ने 13 मीटर के अन्तराल पर कन्टूर ट्रेंच और उचित स्थानों पर गली प्लग (gully plug) भी बनाए थे। इस प्रयास की उन दिनों खूब चर्चा हुई थी। खूब सराहा भी गया था पर उसके परिणाम टिकाऊ सिद्ध नहीं हुए। कई जगह जंगल पनपा ही नहीं।

स्थानीय किसान रणनीति से असहमत थे


ग्वालियर रियासत, कृषि विभाग और स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा जो रणनीति अपनाई गई उसका लक्ष्य सीमित स्थानों पर भूमि कटाव रोकना और वनीकरण था। स्थानीय किसान उस रणनीति से असहमत था। वह बीहड़ की भेंट चढ़ी जमीन को वापस चाहता है। वहीं या उसके आसपास। सरकारी अमले और किसानों की सोच में अन्तर था। इसी कारण उन प्रयासों में समाज की भागीदारी का लगभग अभाव था।

भिंड और मुरैना जिलों की बीहड़ को भेंट चढ़ी अधिकांश जमीन किसानों की निजी पुस्तैनी जमीन है। इस कारण, बीहड़ में तब्दील हुई उस पुस्तैनी जमीन से उन्हें स्वाभाविक लगाव है पर बीहड़ बनने की प्रक्रिया ने उन्हें खेत छोड़ने और पलायन के लिये मजबूर किया। जैसे-जैसे उनके खेत खराब हुए वे ऊपरी इलाकों में बसते चले गए। बीहड़ की भेंट चढ़ी जमीन की टीस अभी भी उनकी स्मृति में है।

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सरकारी हल्कों में जब भी बीहड़ों को खेतों में बदलने की बात होती है वह अकसर समतलीकरण पर जाकर समाप्त होती है। कहा जाता है कि चूँकि बीहड़ बहुत बड़े इलाके में फैले हैं और उनका भूगोल जटिल है इसलिये समतलीकरण के काम को मशीनों से करना होगा। वह काम बेहद खर्चीला है। बजट की कमी है। उच्च प्राथमिकता का अभाव है। इसी कारण बीहड़ों का काम सामान्यतः हाथ में नहीं लिया जाता। इसके अलावा बीहड़ों के सुधार की जो सरकारी मार्गदर्शिका है वह नए सोच या अभिनव प्रयोग की राह में सबसे बड़ी रुकावट है।

हम बीहड़ों को बनाए रखने की रणनीति पर काम कर रहे

आमतौर पर शासकीय विभाग, बीहड़ों के काम को, उस मार्गदर्शिका के अनुसार, मिट्टी के संरक्षण से जोड़कर देखता है। इसलिये बीहड़ से जुड़ी हर योजना में खेत को बचाने के लिये मिट्टी को कटने से रोकने पर ही ध्यान दिया जाता है। वही योजना का केन्द्र बिन्दु होता है। सारा काम उसी के आसपास होता है। इस बात पर यदि गम्भीरता से चिन्तन किया जाये तो धीरे-धीरे लगने लगता है कि हम बीहड़ों के सुधार की नहीं अपितु उनको बनाए रखने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। इसी कारण, सरकारी अमला मिट्टी के कटाव को रोकने की अवधारणा पर काम करता है वहीं कुदरत, मिट्टी के कटाव को रोकने वाले मानवीय प्रयास को अपने काम में नाजायज रोड़ा मानती है।

समस्या का तीसरा पक्ष किसान है


समस्या का तीसरा पक्ष किसान है जो वनीकरण, फलदार वृक्ष या चारागाह को प्राथमिकता नहीं देता। वह, अपनी जमीन की वापसी चाहता है। इस स्थिति में आवश्यकता है किसान को केन्द्र में रखकर उस रणनीति को तलाशने की है जो कुदरत के कायदे-कानूनों का सम्मान करने के साथ-साथ समाज की आवश्यकता को भी यथासम्भव पूरा करती हो। इसी बात को कम-से-कम शब्दों में कहा जाये तो मामला केवल खेत वापसी का है। अब बात जमीन की बीमारी और बरसाती पानी द्वारा बीहड़ों के इलाज की।

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बरसात के पानी द्वारा मिट्टी काटने से बीहड़ बनते हैं। बरसाती पानी उस मिट्टी को बहाकर आगे ले जाता है और उसके छोटे से हिस्से को कछार में अलग-अलग जगह जमा करता है। इसका अर्थ है कुदरत, नदी के कछार में मिट्टी को काटने और मिट्टी को जमा करने का काम करती है। अर्थात उपर्युक्त दोनों काम कुदरती हैं और नदी की जिम्मेदारी है।

भूमि कटाव और जमाव की जगह का फैसला भी कुदरत करती है। इस हकीकत का अर्थ है कि नदी घाटी में मिट्टी को जमा करने के काम को बढ़ावा देकर उपयुक्त स्थानों पर अलग-अलग आकार के खेत विकसित किये जा सकते हैं। इस प्रकार का काम कुदरत कर भी रही है। उसके चिन्ह कछार में नदी मार्ग के दोनों ओर दिखाई भी देते हैं।

खेत विकसित करने की रणनीति पर किया जाए काम

सर्वे आफ इण्डिया की टोपोशीट (Toposheet of Survey of India) में भी उन्हें पहचाना जा सकता है। इस हकीकत को ध्यान में रखकर आवश्यकता है कि उपयुक्त स्थानों पर खेत विकसित करने की रणनीति पर काम किया जाये। मिट्टी के कटाव और जमाव को बढ़ावा दिया जाये। छोटे-छोटे खेत विकसित कर इस काम को अंजाम देने के लिये बरसात का पानी उपयोग में लाया जाये। यही समाज की चाहत है। यही है कुदरत के कायदे-कानूनों का सम्मान। यही है समाज की समस्या का समाधान। यही है बरसाती पानी की मदद से बीहड़ों का इलाज। यह फिलासफी अपनाई जा सकती है।

(साभार: इंडिया वॉटर पोर्टल)

  

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