क्या इस बजट में होगा मुजफ्फरपुर और गोरखपुर में वर्षों से हो रही बच्चों की मौतों का 'इलाज' ?

बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर चिंताएं जताई जाती हैं और उनसे निपटने के उपायों के बारे में चर्चा भी की जाती है, लेकिन धरातल पर उपायों का क्रियान्वयन नहीं होता है, जिसका खामियाजा एक बड़ी आबादी को कई तरह की बीमारियों के रूप में भुगतना पड़ता है

Chandrakant MishraChandrakant Mishra   3 July 2019 11:13 AM GMT

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क्या इस बजट में होगा मुजफ्फरपुर और गोरखपुर में वर्षों से हो रही बच्चों की मौतों का इलाज ?

लखनऊ। पांच जुलाई को केंद्र सरकार अपना बजट पेश करेगी। यह वही बजट है जिससे देश की दशा और दिशा तय होती है। बिहार में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम के कारण करीब 150 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई। ये मौतें देश की बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोलती हैं। देश की प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं को और बुरा हाल है। हमारे देश में पर्याप्त संख्या में सरकारी अस्पतालों का अभाव है, जो हैं वो खुद बीमार हैं। स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) खर्च करने में हम पड़ोसी देशों से भी पीछे हैं। अब देखना है कि इस बजट में देश की बीमार स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कितने रुपए आवंटित करती है।

देश में सरकारी अस्पतालों की कमी, चिकित्सकों का अभाव, बिना प्रशिक्षण वाले मेडिकल कर्मचारी और धन का बड़ा संकट। कुछ ऐसी ही मूलभूत समस्याओं से जूझ रही हैं भारत की स्वास्थ्य सेवाएं। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में बताया गया है देश की आबादी का कुल 3.9 प्रतिशत यानी 5.1 करोड़ भारतीय अपने घरेलू बजट का एक चौथाई से ज्यादा खर्च इलाज पर ही कर देते हैं, जबकि श्रीलंका में ऐसी आबादी महज 0.1 प्रतिशत है, ब्रिटेन में 0.5 फीसदी, अमेरिका में 0.8 फीसदी और चीन में 4.8 फीसदी है।

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किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी, लखनऊ के ट्रामा सेंटर के प्रभारी डॉक्टर संदीप तिवारी का कहना है, " सरकार को कुल सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) का कम से कम पांच से छह प्रतिशत हिस्सा खर्च करना चाहिए। मानव संसाधनों की कमी का जल्द से जल्द पूरा करे। ग्रामीण क्षेत्र के जो अस्पताल हैं उनमें और सुधार करें, जिससे ग्रामीणों को उनके आस-पास ही बेहतर चिकित्सा सुविधाएं मिल सकें।"

पटेल चेस्ट इंस्टिट्यूट नई दिल्ली के पूर्व निदेशक प्रो. राजेंद्र प्रसाद ने गांव कनेक्शन को बताया, "भारत में बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर चिंताएं जताई जाती हैं और उनसे निपटने के उपायों के बारे में चर्चा भी की जाती है, लेकिन धरातल पर उपायों का क्रियान्वयन नहीं होता है, जिसका खामियाजा एक बड़ी आबादी को कई तरह की बीमारियों के रूप में भुगतना पड़ता है। भारत में टीबी की बात करें तो यह एक ऐसी बीमारी बन चुकी है, जिसका मुमकिन इलाज होने के बावजूद कई कारणों से खत्म नहीं हो पा रही है। जिन लोगों पर इन समस्याओं के समाधान की जिम्मेदारी है वे इस तरफ गंभरता से ध्यान नहीं दे रहे हैं।"

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वर्ष 2013-14 में सरकार सकल घरेलू उत्पाद का केवल 1.2 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करती थी जो कि 2016-17 में बढ़कर 1.4 प्रतिशत कर दिया गया। एनडीए सरकार ने वर्ष 2017-18 के लिए स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए 48,878 करोड़ रुपये का प्रावधान किया जो कि वर्ष 2013-14 में 37,330 करोड़ रुपये था। वर्तमान सरकार ने 2017 में नयी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति घोषित की जिसके तहत 2025 तक औसत आयु को 67.5 वर्ष से बढाकर 70 वर्ष करने का लक्ष्य है साथ ही जीडीपी का 2.5प्रतिशत भाग स्वास्थ्य सेवाओं पर करने का लक्ष्य रखा गया है। 2018-19 के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के लिए आवंटन 52,800 करोड़ रुपए है, जो 2017-18 के संशोधित अनुमान 51,550.85 रुपए से 2.5 प्रतिशत ही ज्यादा है।

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डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक ट्रेडोस एडहानोम गेबेरियस ने एक विज्ञप्ति में कहा था, "बहुत से लोग अभी भी ऐसी बीमारियों से मर रहे हैं जिसका आसान इलाज मौजूद है और बड़ी आसानी से जिसे रोका जा सकता है। बहुत से लोग केवल इलाज पर अपनी कमाई को खर्च करने के कारण गरीबी में धकेल दिए जाते हैं और बहुत से लोग स्वास्थ्य सेवाओं को ही पाने में असमर्थ हैं। यह अस्वीकार्य है।"

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नेशनल हेल्थ प्रोफाइल( 2018) के अनुसार बीमार होने पर देश में हर चौथा परिवार या तो किसी से उधार लेता है या अपनी जमीन बेचकर इलाज का खर्चों चलाता है। नतीजन हर साल तकरीबन 7 फीसदी भारतीय गरीबी रेखा के नीचे आ जाते हैं जिन्हें आयुष्मान भारत योजना का लाभ भी नहीं मिल सकता है। 23 फीसदी लोग पैसे के अभाव में इलाज ही नहीं करा पाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल स्वास्थ्य खर्च का तकरीबन 68 फीसदी खर्च लोग खुद वहन करते हैं जबकि विश्व में यह औसत महज 18 फीसदी है। जन स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार जब तक खर्च नहीं बढ़ाएगी, तब तक लोग निजी अस्पतालों में इलाज कराने के लिए विवश रहेंगे।

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सामुदायिक स्वास्थ्य पर काम करने वाले मुजफ्फरपुर के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डॉँक्टर अरुण शाह ने बताया, " चिकित्सा सुविधाओं का विस्तार ग्रामीण क्षेत्रों में उतना नहीं हुआ है जितना होना चाहिए। बड़े अस्पताल और मेडिकल कॉलेज या तो प्रदेश की राजधानियों में हैं या बड़े शहरों में। आज भी सीएचसी और पीएचसी सामान्य मरीजों की जरूरतें भी पूरी नहीं करते हैं। अक्सर वहां डाक्टर, स्टाफ और दवाएं तक उपलब्ध नहीं रहती हैं। इन स्वास्थ्य केन्द्रों की तुलना में आम ग्रामीण झोला छाप डाक्टरों के पास ज्यादा जाता है जो उसे और ज्यादा बीमार बनाते हैं।"

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संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान, लखनऊ के नेफ्रोलॉजी विभाग के डॉक्टर नारायण प्रसाद ने गाँव कनेक्शन को बताया "हमारे देश में डॉक्टरों की बहुत कमी है, जिसका खामियाजा आम जनता को उठाना पड़ रहा है। जितने डॉक्टर की जरूरत है उस हिसाब से नए डॉक्टर मिल नहीं पा रहे हैं। सरकार भी नए डॉक्टर को बढ़ाने की जगह बड़े-बड़े अस्पताल खोल रही है। जब तक नर्सिंग स्टाफ और डॉक्टर नहीं रहेंगे तब तक मरीज का इलाज कौन करेगा। सरकार को प्राथमिक स्वास्थ्य पर बहुत जोर देने की जरुरत है। जब तक बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं मजबूत नहीं होंगी तक तब कुछ ठीक नहीं होने वाला है।"

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स्वास्थ्य सेवाओं में बेहतर काम करने वाले पद्मश्री से सम्मानित डॉ. एनके पांडेय ने एक इंटरव्यू में कहा था " पूरी दुनिया के देशों में स्वास्थ्य सेवाओं पर बजट का लगभग छह फीसद खर्च किया जा रहा है, लेकिन भारत में जीडीपी का दो फीसद भी नहीं खर्च होता। इसके चलते स्वास्थ्य सेवाओं में प्रभावी सुधार नहीं हो पा रहा है। आयुष्मान भारत योजना गरीबों के लिए संजीवनी है, लेकिन अभी छोटे जिलों में मरीजों को इसका पूरा लाभ मिलना संभव नहीं है।"


डॉ. राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान के चिकित्सा अधिक्षक डॉ. भुवन तिवारी का कहना है, "ग्रामीण इलाकों की स्थिति बेहद ही संवेदनशील है। ग्रामीण क्षेत्र के अस्पतालों में बुनियादी चीजों का अभाव है, जिस वजह से डॉक्टर्स हमेशा परेशानी में रहते हैं। डॉक्टरों को अपनी सुरक्षा का भी खतरा रहता है, जिस वजह से डॉक्टर उन इलाकों में जाने से कतराते हैं।

वे आगे कहते हैं "विशेषज्ञ डॉक्टर अगर शहर नहीं छोड़ना चाहते तो कुछ हद तक इसके वाजिब कारण भी हैं। ग्रामीण इलाकों में सिर्फ विशेषज्ञ डॉक्टर का होना ही काफी नहीं है। उसके लिए सुविधाएं भी चाहिए। उदाहरण के लिए किसी ऑर्थोसर्जन का सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में होने का तब तक कोई मतलब नहीं जब तक उसके लिए जरूरी मशीनें न हों।"

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