उम्मीदें बजट 2020: कस्बों के अस्पताल दुरुस्त हो जाएं तो बड़े अस्पतालों पर कम पड़े बोझ

आगामी बजट से हर किसी को उम्मीद है कि देश की स्वास्थ्य सेवा को दुरुस्त करने के लिए बढ़ाया जाए बजट। सरकारी अस्पतालों की हालत सुधरे, डॉक्टरों की भर्ती हो, ऐनम और आशा बहुओं की दिक्कतें दूर की जाएं।

Chandrakant MishraChandrakant Mishra   23 Jan 2020 9:08 AM GMT

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उम्मीदें बजट 2020: कस्बों के अस्पताल दुरुस्त हो जाएं तो बड़े अस्पतालों पर कम पड़े बोझ

लखनऊ। सरकारी अस्पतालों में लगने वाली लंबी-लंबी लाइनें, प्राइवेट अस्पतालों के बढ़ते खर्चे के बीच सभी की निगाहें देश के अगले बजट पर हैं। क्या प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की हालत सुधारने के लिए बजट में खास व्यवस्था होगी?

देश भर में स्वास्थ्य सेवाओं पर जारी होने वाली रिपोर्ट 'नेशनल हेल्थ प्रोफाइल-2018' के अनुसार देश में 37,725 सरकारी अस्पतालों में 7,39,024 बेड हैं। करीब 10 हजार लोगों पर सिर्फ एक एलोपैथि‍क डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के अनुसार प्रति 1000 व्यक्तियों पर एक डॉक्टर होना चाहिए।

प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की जर्जर हालत, और मरीजों और डाक्टरों के अधिक अनुपात के बावजूद भारत अपनी कुल जीडीपी का मात्र 1.4 फीसदी हिस्सा ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है। जबकि वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च का मानक जीडीपी का 6 फीसदी माना गया है।

"देश में डॉक्टरों की बहुत कमी है, जिसका खामियाजा आम जनता को उठाना पड़ रहा है। सरकार भी डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने की जगह बड़े-बड़े अस्पताल खोल रही है। जब नर्सिंग स्टाफ और डॉक्टर नहीं रहेंगे तब तक मरीज का इलाज कौन करेगा? सरकार को प्राथमिक स्वास्थ्य पर बहुत जोर देने की जरूरत है। जब तक बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं मजबूत नहीं होंगी तक तब कुछ ठीक नहीं होने वाला है," संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान, लखनऊ में नेफ्रोलॉजी विभाग में डॉ. नारायण प्रसाद कहते हैं।

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सरकारी अस्पतालों में लगने वाली भीड़।

केन्द्र सरकार द्वारा वर्ष 2017 में लागू की गई नई 'राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति' के तहत 2025 तक औसत आयु को 67.5 वर्ष से बढाकर 70 वर्ष करने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करने का लक्ष्य रखा गया। वर्ष 2018-19 के लिए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के लिए आवंटन 62,398 करोड़ रुपए था, जो 2017-18 के संशोधित अनुमान 51,550.85 रुपए से 2.5 प्रतिशत ही ज्यादा है।

प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ मानी जाने वाली 'पैदल फौज' की समस्याएं भी दूर करने के लिए बजट में विशेष प्रावधान करने होंगे। जब तक स्वास्थ्य क्षेत्र में जमीनी स्तर पर काम करने वालों को मजबूत नहीं किया जाएगा, तब तक अच्छे परिणाम नहीं मिलेंगे।

"दरअसल, देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य का जो संदेश है, वह ज्यादातर लोगों के पास पहुंच ही नहीं पाता। जब तक फ्रंट लाइन वर्कर आशा, एएनएम और आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों को सक्रिया नहीं किया जाएगा, तब तक सरकार की किसी भी स्वास्थ्य योजना का लाभ ग्रामीण तबके को नहीं मिल सकता। इसके लिए सरकार को चाहिए कि इनके वेतन में बढोतरी करें, क्योंकि इन्हें बहुत कम वेतन मिलता है और काम बहुत लिया जाता है," स्वास्थ्य मुददे पर काम करने वालीं वरिष्ठ पत्रकार पत्रलेखा चटर्जी कहती हैं।

आम जनता को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के लिए आयुष्मान भारत जैसी महत्वाकांक्षी योजना शुरू की गई, लेकिन मूलभूत सुविधाओं की ओर ध्यान कम ही गया। भारत में जन स्वास्थ्य की स्थिति बहुत ही चिंताजनक है, इसके बावजूद स्वास्थ्य क्षेत्र में सबसे कम खर्च करने वाले देशों में भारत का भी नाम है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च के मामले भारत अपने पड़ोसियों से भी पीछे है। इस मामले में हम मालदीव (9.4 फीसदी, भूटान (2.5 फीसदी), श्रीलंका (1.6 फीसदी) से भी पीछे हैं।

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गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ मानी जाने वाली आशा कार्यकत्रियों को किन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है, उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के गोसाइगंज ब्लॉक के नूरपुर बेहटा में कार्यरत आशा कार्यकत्री बबिता देवी (45 वर्ष) बताती हैं, "सरकार की कोई भी योजना हो हम लोगों को सौंप दिया जाता है। एक योजना शुरू नहीं होती, उससे पहले दूसरी आ जाती है। दिन-रात काम करने के बाद भी गाँव वालों के ताने सुनने पड़ते हैं।"

बबिता आगे बताती हैं, "दूसरे की सेहत का ख्याल रखते-रखते हम अपना ही ख्याल नहीं रख पाते। इतना करने के बाद भी हमें वेतन नहीं मिलता। जितने मरीजों को अस्पताल में भर्ती कराते हैं उसी आधार पर प्रोत्साहन राशि मिलती है।"

उत्तर प्रदेश के गोसाईगंज रहने वाली आशा कार्यकत्री बबिता की ही तरह उनसे 500 किमी दूर मध्य प्रदेश के जिला शहडोल के लालगंज में रहने वाली आशा कार्यकत्री लालाबाई भी अधिक काम के बावजूद कम पैसे मिलने की बात कहती हैं।

"हमारे पास तीन गाँवों की जिम्मेदारी है, एक गाँव से दूसरे गाँव की दूरी चार-चार किलोमीटर है। ऐसे में ऑटो पड़ककर जाना पड़ता है, लेकिन हमें किराए का पैसा तक नहीं मिलता। सब अपने पास से खर्च करते हैं। सरकार को चाहिए कि हमें आने-जाने के लिए कुछ व्यवस्था तो कर ही दे," लालाबाई फोन पर कहती हैं।

स्वास्थ्य राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने वर्ष 2018 में पिछले तीन वर्षों में स्वास्थ्य पर खर्च का ब्योरा पेश करते हुए कहा था कि वर्ष 2016-17 में जीडीपी का 1.5 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च हुआ। इसी तरह वर्ष 2015-16 में 1.4 फीसदी और वर्ष 2014-15 में 1.2 फीसदी राशि स्वास्थ्य पर खर्च हुई।

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रख-रखाव के अभाव में बहुत से सरकारी अस्पतालों की स्थिति खराब हो चुकी है।

"आम जन का सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से विश्वास घटता जा रहा है। बीमार होने पर वे मजबूरी में प्राइवेट अस्पतालों में जा रहे हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में हम बहुत कम पैसे खर्च करते हैं। जीडीपी का कम से कम पांच प्रतिशत खर्च करने पर ही हालात कुछ काबू में आ सकते हैं," जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था एसोसिएशन ऑफ डॉक्टर्स फॉर एथिकल हेल्थकेयर के प्रतिनिधि डॉक्टर अरुण गार्डे कहते हैं, "देश में योग्य डॉक्टर, पैरामेडिकल स्टाफ और संसाधनों की भारी कमी है। यह सब कहीं न कहीं पैसे के अभाव में हो रहा है।"

"सरकार को स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लिए बहुत ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। देश के हर नागरिक को बेहतर स्वास्थ सुविधा मुहैया करवाने पर उनका ध्यान होना चाहिए। मेडिकल शिक्षा को और बेहतर बनाने की जरूरत है। सरकारी अस्पतालों को अपग्रेड करके वहां जरूरी जांच सुविधाएं मुहैया करवानी चाहिए। यह तभी होगा, जब स्वास्थ्य बजट को बढ़ाया जाए। ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पतालों को अपग्रेड करके डॉक्टरों को सहूलियतें दी जाएं," डॉ गार्डे आगे कहते हैं।

वर्ष 2019 में बिहार के मुजफ्फरपुर में बच्चों में होने वाले चमकी बुखार की रिपोर्टिंग के दौरान 'गाँव कनेक्शन' को पता चला कि कई प्राथमिक अस्पताल तो ऐसे थे कि वहां शुगर लेवल नापने के लिए ग्लूकोमीटर तक नहीं थे।

प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा को दुरूस्त करने के लिए बजट में सरकार क्या करना चाहिए? इस सवाल पर पब्लिक हेल्थ रिसोर्स नेटवर्क की निदेशक डॉक्टर वंदना प्रसाद कहती हैं, "डॉक्टरों की संख्या बढ़ानी होगी, नए अस्पताल खोलने होंगे। जब तक देश के लोग स्वस्थ नहीं होंगे, तब तक देश विकास नहीं कर सकता, देश में संपन्नता नहीं आ सकती।"


डॉ. वंदना आगे समझाती हैं, "भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर अक्सर सवाल उठाए जाते हैं। सरकारी अस्पतालों में लापरवाही के मामले सामने आते रहते हैं। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि भारत के 1.3 अरब लोगों के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा अपर्याप्त है। इसके बावजूद सरकार स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को बढ़ा नहीं रही। भारत जैसे देश में कुल बजट का कम से कम तीन प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करने की जरुरत है।"

सवा अरब लोगों की सेहत का ख्याल रखने के लिए तकनीक का उपयोग बढ़ाने के लिए विशेषज्ञ सलाह देते हैं। इससे कम संसाधनों में अधिक मरीजों का ध्यान रखा जा सकेगा।

वाराणसी के काशी हिंदू विश्वविद्यालय के फाइनेंस एंड इकोनॉमिक्स थिंक काउंसिल के अध्यक्ष विक्रांत सिंह कहते हैं, "देश के सुदूर एवं अति पिछड़े क्षेत्रों में टेलीमेडिसिन चिकित्सा पद्धति का उपयोग करके चिकित्सा के क्षेत्र में काफी सुधार ला सकते हैं। साथ ही, इलाज की ऐलोपैथिक पद्धति के अलावा उपलब्ध अन्य चिकित्सीय पद्धति पर भी जोर देना चाहिये, जैसे-आयुर्वेद, योग, हाम्योपैथिक।"

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