18 साल का उत्तराखंड: राजनीति की विफलता के खिलाफ उठी आवाज़

  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
  • Whatsapp
  • Telegram
  • Linkedin
  • koo
18 साल का उत्तराखंड: राजनीति की विफलता के खिलाफ उठी आवाज़राज्य बनने के 18 साल पूरे होने के बाद भी उत्तराखंड में अनसुलझे हैं रोजगार और पलायन जैसे सवाल। फोटो: रोहित जोशी

रोहित जोशी,

(चम्पावत/उत्तरकाशी)। उत्तराखंड में इस महीने कुछ नारों की एक गूंज उठी जो आने वाले दिनों की राजनीतिक आहट का संकेत दे रही है। राज्य को बने 18 साल हो गये हैं और पहाड़ी क्षेत्र से पलायन समेत तमाम बड़ी समस्याओं का रूप विकराल होता गया है। ऐसे हालात में कुमाऊँ के एक छोर पर बसे पंचेश्वर से गढ़वाल के उत्तरकाशी तक निकली 'जन संवाद यात्रा' में जन सरोकारों से जुड़े कई लोग शामिल हुए।

यात्रा की शुरुआत चम्पावत ज़िले के पंचेश्वर से हुई जहां 311 मीटर ऊंचे बांध में डुबोई जा रही विराट महाकाली नदी को बचाने का आह्वान किया गया। इसके अलावा उत्तराखंड की स्थाई राजधानी गैरसैण घोषित करने की मांग, राज्य में बदहाल खेती, बेरोजगारी और जबरदस्त पलायन के मुद्दे केंद्र में थे। ज्यों-ज्यों यात्रा आगे बढ़ी इन हालात के लिये ज़िम्मेदार नीति-नियंताओं और शासकों के विरोध से भरे कई नारे बनते गये।

महाकाली नदी पर बनने वाले बांध के विरोध में 10 अक्टूबर से 'जन संवाद यात्रा' शुरू हुई है। फोटो: रोहित जोशी

'जन संवाद यात्रा' 10 अक्टूबर से पंचेश्वर से शुरू हुई, जहां महाकाली नदी पर सरकार नेपाल के साथ मिलकर 5000 मेगावॉट से अधिक क्षमता का बांध बना रही है। दुनिया के इस दूसरे सबसे ऊंचे बांध के डूब क्षेत्र में उत्तराखंड के तीन ज़िलों के 130 से अधिक गांव आएंगे।

"राज्य बनने के बाद पिछले 18 बरसों में उत्तराखंड के अहम सवाल खोते गए और आकांक्षाएं धूसरित होती गई हैं।" जन संवाद यात्रा के संयोजक चारू तिवारी कहते हैं।

पंचेश्वर से शुरू हुई यह यात्रा उत्तराखंड के दोनों मंडलों, कुमाऊँ और गढ़वाल के प्रमुख शहरों और कस्बों से होते हुए 25 अक्टूबर को उत्तरकाशी पहुंची जो यात्रा का आखिरी पड़ाव है।

उत्तराखंड के बुद्धिजीवी, पत्रकार, संस्कृतिकर्मी, छात्र और युवा इसमें शामिल हैं। जनता के साथ राजनीतिक संवादहीनता को उजागर करना भी इस यात्रा का मकसद है। यात्रा में शामिल उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पीसी तिवारी कहते हैं, ''उत्तराखंड बनने के बाद पिछले 18 सालों में कथित विकास का जो मॉडल बीजेपी और कांग्रेस की सरकारों ने चुना उसने उत्तराखंड को आज अंधेरी खाई में ला धकेला है। राज्य बनने के बाद से 1800 से अधिक गांव पूरी तरह जनसंख्या शून्य हो गए हैं, हज़ारों और ऐसे गांव हैं जिनकी यही दुर्गति होनी है।''

यह भी देखें: चारधाम यात्रा परियोजना बनी उत्तराखंड के गांवों के लिए जान की आफत

उत्तराखंड के जनवादी मुद्दों को लेकर पिछले तीन दशकों से सक्रिय पीसी तिवारी अपने साथियों, कांग्रेस के प्रदीप टम्टा और बीजेपी के प्रकाश पंत की तरह संसदीय राजनीति की सीढ़ियां नहीं चढ़ पाए। वह कहते हैं कि उनके जैसे लोग हमेशा ज़मीनी जंग लड़ते रहे लेकिन राजनीति में "कामयाब" हुए बड़ी पार्टियों के नेता जन संघर्षों से नदारद रहे हैं।

तिवारी कहते हैं, ''उत्तराखंड राज्य की लड़ाई हमने इसलिए नहीं लड़ी थी कि वहां आम आदमी की कोई भागीदारी ही न हो। इस यात्रा का मकसद उत्तराखंड की जनता को उनके असली उत्तराखंड के सपने को फिर याद दिलाना है।''

जन संवाद यात्रा में आज के हालात को ग़ैर बीजेपी और ग़ैर कांग्रेस पार्टियों की विफलता बताया जा रहा है। असल में सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के साथ-साथ जन सरोकारों से जुड़े एक वर्ग में यह भावना रही है कि आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, झारखंड, तमिलनाडु और पंजाब की तरह उत्तराखंड में जन आकांक्षाओं की नुमाइंदगी के लिए कोई क्षेत्रीय सियासी दल या गठजोड़ नहीं है जो बीजेपी और कांग्रेस जैसी पार्टियों को चुनौती दे सके।

यह भी देखें: गंगा के लिए अनशन पर बैठे प्रो जीडी अग्रवाल का निधन, बुधवार को सरकार ने अस्पताल में कराया था भर्ती

ज़ाहिर तौर पर यात्रा का एक मकसद सूबे की राजनीति के लिये नई धुरी तैयार करना और क्षेत्रीय और छोटी पार्टियों को हाशिए से उठाकर निर्णायक भूमिका में लाना भी दिखता है।

शायद इसीलिये इस यात्रा को उत्तराखंड क्रांति दल, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी और सीपीआई (एमएल) जैसी पार्टियों का समर्थन मिल रहा है। "तुम्हारी प्लानिंग में खोट है, उत्तराखंड पर चोट है" के साथ साथ "जल, जंगल, ज़मीन हमारी, नहीं सहेंगे धौंस तुम्हारी" जैसे नारे भी यहां सुनाई दिए हैं जो राष्ट्रीय पार्टियों को ताना मारते दिखते हैं। कई बरसों से गैरसैण में राजधानी की इमारत तैयार खड़ी है लेकिन वास्तविक राजधानी देहरादून ही बनी हुई है। इस यात्रा में यह सवाल भी उठाया जा रहा है।

आंदोलनकारी पत्रकार मोहित डिमरी कहते हैं, ''हम उत्तराखंड के लिए स्थाई राजधानी के बतौर गैरसैण की मांग कर रहे हैं क्योंकि यह देहरादून के बहाने अपनाए गए केंद्रीकृत विकास मॉडल के बरक्स उत्तराखंड में एक विकेंद्रीकृत विकास का सपना है। उत्तराखंड के भूगोल के अनुरूप यहां के गांव-गांव का विकास ही पूरे उत्तराखंड आंदोलन का सपना था। गैरसैण उसी का प्रतीक है।''

कांग्रेस नेता किशोर उपाध्याय भी राष्ट्रीय पार्टियों की विफलता से इनकार नहीं करते हालांकि वह कहते हैं कि पिछले साल स्थानीय जनवादी मुद्दों को उठाने की शुरुआत उन्होंने ही की थी। उपाध्याय के मुताबिक, "इन सभी मुद्दों पर एक बार फिर से पहल की शुरुआत पिछले साल नवंबर में उत्तराखंड विमर्श के नाम से की गई थी। साल 2000 में बना उत्तराखंड राज्य अब 18 साल का बालिग हो गया है लेकिन जिन कारणों से आंदोलन हुआ वह हासिल होता नहीं दिखा है। वन माफिया और बजरी माफिया तो अरबपति हो गये हैं लेकिन उत्तराखंड के ग्रामीणों को उनके हक से वंचित रखा गया है।"

यह भी देखें: हस्तशिल्प और विदेशी खरीदारों ने बदली उत्तराखंड की इन महिलाओं की ज़िंदगी


        

Next Story

More Stories


© 2019 All rights reserved.