मेरा गाँव कनेक्शन (भाग - 2) : महिला शिक्षा का प्रमुख अंग रहा है राजस्थान का वनस्थली 

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मेरा गाँव कनेक्शन (भाग - 2) : महिला शिक्षा का प्रमुख अंग रहा है राजस्थान का वनस्थली मेरा गाँव कनेक्शन सीरीज़ का दूसरा भाग - वनस्थली ( राजस्थान) ।

बचपन में हम गर्मी की छुट्टियों में अपने गाँव में जाते थे। अगर आपका बचपन किसी गाँव या कस्बे में बीता है, तो आपके अंदर गाँव कहीं न कहीं ज़रूर जिंदा होगा। बड़े होने के साथ साथ हम अपनी ज़िंदगी में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि गाँव से जुड़ी हमारी यादें हमसे धीरे-धीरे दूर होती जाती हैं। चलिए फिर से जीते हैं उस बचपन को, जो हम अपने गाँवों में पीछे छोड़ आए हैं। आइए याद करते हैं अपने गाँवों को गाँव कनेक्शन की विशेष सीरीज़ ' मेरा गाँव कनेक्शन ' के ज़रिए। सीरीज़ के दूसरे हिस्से में अपने गाँव 'वनस्थली' से जुड़ी यादों को ताज़ा कर रही हैं 'अंकिता चौहान'

गाँव बायोडाटा -

गाँव- वनस्थली

ज़िला - टोंक

राज्य - राजस्थान

नज़दीकी शहर - निवाई

गूगल अर्थ पर वनस्थली गाँव का नक्शा -

वनस्थली गाँव -

राजस्थान के टोंक जिले के नगरीय क्षेत्र से सटा में छोटा सा गाँव है वनस्थली । वनस्थली की आबादी 6,676 है। भारतीय जनगणना के मुताबिक इस गाँव में 31 फीसदी पुरुष और 69 फीसदी महिलाएं हैं। वनस्थली में भारतीय महिला शिक्षा का राष्ट्रीय संस्थान वनस्थली विद्या पीठ भी है। वनस्थली विद्या पीठ के विशाल पुस्तकालय में लगभग एक लाख पुस्तकें हैं, जिनमें उच्च शिक्षा की कई किताबे हैं। विद्यापीठ में 15,000 से अधिक छात्राएं पढ़ती हैं।

याद आते हैं - गोबर से लिपी दीवारें और दरवाजों पर डोरबेल की जगह टंगे लोहे के कंगन

दिन में गड़गडाते काले बादल, बारिशें, पेड़ों के नीचे छुपकर गीले पंखो को झाड़ते पंछी। रातों में दूर तक फैली ठण्डी रेत में कभी नंगे पैर चलना, तो कभी आसमान में दौड़ते उस चाँद का हाथ फैलाए पीछा करना। नहीं ये कोई कविता नहीं है। ये सब मेरे बचपन की यादें हैं.. कुछ बेमोल अनुभव। यही बिखरी हुई तस्वीरें जो मुझे आज भी गाँव की कच्ची महक से जोड़े हुए हैं। बारिश की उसी सौंधी खुश्बू के साथ।

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बचपन में वनस्थली विद्यापीठ सबके लिए एक महिला शिक्षण संस्थान था, वहीं मेरे लिए मेरी नानी का घर। राजस्थान के टोंक जिले में बसा वनस्थली गाँव, निवाई के रेलवे स्टेशन से करीब दस किलोमीटर दूर है। लगभग 1,000 एकड़ में फैली ये जगह, बीते कुछ सालों में काफी प्रगति कर चुकी है, लगता है जैसे शहरीकरण हो गया हो। यूनिवर्सिटी में पन्द्रह हज़ार से उपर लड़्कियां पढ़ती हैं। लेकिन जब मैं उस बीस साल पुरानी वनस्थली को याद करती हूं,तो शायद उससे बेहतर मेरी दुनिया में कोई जगह नहीं मिलती है।

बनस्थली निवाई रेलवे स्टेशन।

गाँव शहरों की तरह भागते नहीं हैं वो कभी आपको पीछे नहीं छोड़ते, आपके साथ खड़े होते हैं। वनस्थली में भी एक ठहराव था। जिंदगी रुकी हुई नहीं थी, सूकून भरी थी। यूनिवर्सिटी से सटकर लगे दो छोटे-छोटे गाँव और थे। एक तरफ हरिपुरा और दूसरी तरफ बनथली ग्राम। हरिपुरा में जहां मूंगफलियों के बड़े-बडे खेत थे। शायद ये वहां की मुख्य फसल रही होगी। खेत में जाकर कटी हुई फसल से गीली मूंगफली तोड़कर खाना शायद दुनिया के नायाब सुखों में से एक है। वहीं दूसरी ओर बसता बनथली ग्राम, जहां सरसों के पीले खेत, मक्का, बाजरा, जौ की फसले और जरा सी आबादी के बीच कई छोटे-छोटे मंदिर। मैंने पहली बार वहीं नागाष्टमी पर नागों की पूजा होते हुए देखा था।

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इन गाँवों में रहने वाले ग्रामीण , उनका पहनावा साधारण है लेकिन वहां की औरतों के हाथों और पैरों में चांदी के इतने भारी भरकम कड़े देखकर मन में कुछ फंस सा जाता है। मैंने उनसे एक बार पूछा भी था, ऐसे सारे दिन कड़े पहने रहना भारी नहीं लगता ? वो अपनी भाषा में मुझे समझाने लगी, लये तो जिया (मम्मी) ने पहनाए हैं , अब मरने पर ही उतरेंगे। यह मुझे एक अजीब सी परपंरा लगी। शायद हर जगह सब कुछ अच्छा ही हो ये ज़रूरी नहीं है।

वनस्थली कई मायनों में अलग है, अब तो काफी लोग इस नाम को जानते भी हैं, इंटरनेट पर भी काफी कुछ पढ़ने को मिल जाता है। फिर भी एक बात बताना चाहूंगी, जो शायद इंटरनेट पर ना मिले, कहते हैं सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी को कुछ श्राप मिला था कि बाकी देवताओं की तरह उनकी पूजा कभी नहीं की जाएगी। पूरे भारत में शायद गिने चुने मंदिर हैं। एक बनस्थली में भी है। ज्यादा बड़ा नहीं है लेकिन देखने लायक जगह है। पास में एक तालाब भी है साथ ही फूलो से भरा एक बगीचा भी।

वनस्थली में बना ब्रह्मा जी का मंदिर।

मैं जब नर्सरी में थी,तो ये जगह हमारी पिक्निक स्थल हुआ करती थी, यहां पर एक इमली का इतना पुराना पेड़ है। मेरे मामाजी कहते हैं, जब वो दस साल के थे वो पेड़ तब भी उतना ही बड़ा था। अमलताश, नीम, पीपल, बरगद, आंवले, इमली के पेड़ पूरी बनस्थली में फैले हैं। वहां के कृषि विज्ञान केन्द्र में मैंने पहली बार मशरूम की खेती होते देखी थी और दो हाथ लम्बी लौकी भी। शकरकंद जिसे मीठा आलू बोलकर चूल्हे में भूनकर खाया जाता है, काचरी जो जंगली पौधा है लेकिन इसकी सब्जी गाँव वाले बड़े चाव से खाते हैं। लाल बेर की झाडियां आपको ऐसे ही राह चलते उगी मिल जाएगी।

आपके आस-पास भी कोई कृषि विज्ञान केन्द्र हो, तो इजाज़त लेकर जरूरत घूम आइयेगा। आपको सच में आश्चर्य होगा जो हम अनाज या सब्जियां खाते है, उनका पैदा होना भी कितनी प्रकियाओं से होकर गुजरता है।

अगर बनथली के लोंगो की रहन सहन की बात करें तो आपको अब भी वहां चलते हुए कुएं मिल जाएंगे। गर्मियों के आते ही दो-तीन जगह ठंडे पानी का मटका रखे प्याऊ लगाए औरतें भी।...... नहीं नहीं शहरों की तरह आपको वहां पांच का सिक्का नहीं खिसकाना, वहां के लोग ये शायद आत्मीयता के चलते करते हैं।

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पक्के सिमेंटड मकानों की रेल धीरे धीरे बिछ रही है, फिर भी मिट्टी के घर देखने को मिल जाते है। गोबर से लिपी दीवारें, दरवाजों पर डोरबेल की जगह टंगे लोहे के दो गोल-गोल कंगन। और अगर कोई त्यौहार या शादी हुई तो समझो आपको वो मिट्टी के घर राजस्थान की सबसे खूबसूरत आर्ट दिखा देगें, जिसे वहां के लोग मांडना कहते हैं। खड़े चूने को पानी में घोलकर और गेरू के लाल रंग का घोल बनाकर,वहां की औरते चेहरा ढंके हुए भी इतनी सुंदर चित्र, उकेरती हैं। साथ ही हल्की हल्की आवाज में लोकगीत भी गाती हैं।.... हां ये जानकर थोडा बुरा जरूर लगता है कि कच्चे घर अब गायब हो रहे हैं और साथ ही साथ ये कला भी।

चबूतरा - गाँव का जिक्र आने पर मैं इसे कैसे भूल गई। पेड़ को घेरकर बनाए गए वो गोल-गोल चबूतरे बनस्थली में अब भी हैं, वैसे के वैसे। वनस्थली विद्यापीठ यूनिवर्सिटी को तो सब जानते हैं, लेकिन उसमें बसे गाँव को कुछ ही लोंगो ने महसूस किया होगा। वहां रेत में घर-घर बनाकर उसमें नीम की कच्ची निबोंलियां सबने थोड़े ना इकट्ठा की होंगी। नीम के फूलों के गुलदस्ते यकीन मानिए किसी गुलाब से कम नहीं। सावन के एक महीने पहले से पेड़ों पर पड़ते झूले, बारिश में घास के आस-पास गीली मिट्टी में लाल रंग के मखमली कीड़े, जिन्हे हम सावन की डोकरी कहते थे।

बनस्थली विद्यापीठ यूनिवर्सिटी का चबूतरा ।

कितना कुछ है गाँवो में,जिसे शहरों में आकर सिर्फ याद ही किया जा सकता है। चूल्हे की धीमी आंच में पके खाने जैसा है गाँव, जिसका स्वाद जबां से ना कभी गया, ना कभी जाएगा।

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