पन्ना में आदिवासी ग्रामीणों की पानी के लिए जद्दोजहद- रोजाना जंगल में पांच किलोमीटर पैदल चलकर फिर 100 फीट नीचे जाकर पानी लाना पड़ता है

मध्य प्रदेश में पन्ना टाइगर रिजर्व के भीतर बिलहटा, कटाहारी और कोनी गाँवों के सैकड़ों आदिवासी परिवार अपनी पानी की जरूरतों को पूरा करने के लिए स्थानीय जल स्रोत झिरिया पर निर्भर हैं। आदिवासी महिलाएं घने जंगलों से होकर रोजाना कई किलोमीटर का सफर तय करती हैं और झिरिया से पानी लेने के लिए कई फीट नीचे उतरती हैं। वन अधिकारी बताते हैं कि केन-बेतवा लिंक परियोजना के चलते इन गाँवों को स्थानांतरित किया जाना है।

Arun SinghArun Singh   16 May 2022 8:26 AM GMT

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पन्ना में आदिवासी ग्रामीणों की पानी के लिए जद्दोजहद- रोजाना जंगल में पांच किलोमीटर पैदल चलकर फिर 100 फीट नीचे जाकर पानी लाना पड़ता है

पन्ना जिले के कई गाँवों में भीषण जल संकट, दूषित व मटमैला पानी पीने को ग्रामीण मजबूर हैं। फोटो: अरुण सिंह

मध्य प्रदेश में पन्ना टाइगर रिजर्व के अंतर्गत आने वाले आदिवासी गाँवों बिलहटा, कटाहारी और कोनी के लोग एक योजना पर बड़े ध्यान से विचार विमर्श करने में लगे हैं। वो सुनिश्चित कर रहे हैं कि जिस समय स्थानीय जल स्रोत 'झिरिया' से पानी भर कर लाते हैं, उस समय वहां बाघ, तेंदुआ और भालू अपनी प्यास बुझाने के लिए न आते हों।

पन्ना जिले के बिलहटा की नन्ही बहू ने गाँव कनेक्शन को बताया, "झिरिया से लाया गया पानी गाँव के चार सौ आदिवासियों की जरूरतों को पूरा करता है। गाँव में एक हैंडपंप है, जिसमें बरसों से पानी ही नहीं है।"

झिरिया - एक स्थानीय जल स्रोत है, इसमें पहाड़ियों से पानी नीचे गिरता है और एक गहरे तालाब में इकट्ठा होता है। 45 साल की इस ग्रामीण महिला के लिए रोजाना पानी लाना किसी उपलब्धि से कम नहीं है। यह उनके गाँव से लगभग ढाई किलोमीटर दूर है।

गाँव की महिलाएं और बच्चे घने जंगलों के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए, गहरी खाई में उतरकर पानी लाने के लिए मजबूर हैं। फोटो: अरुण सिंह

नन्हीं अपनी मुश्किलों के बारे में कहती हैं, "यह खतरनाक काम है। हर दिन हमें झिरिया से पानी लाने के लिए लगभग सौ फीट नीचे उतरना पड़ता है।" वह और उनके जैसी अन्य आदिवासी महिलाएं वहां जाकर पानी से अपने बर्तन भरती हैं और फिर 2.5 किमी पैदल चलकर अपने गाँव पहुंचती हैं। झिरिया से गाँव तक का उनका ये सफर कीचड़ और पथरीले जंगलों से होकर गुजरता है। ये इलाके शेर, बाघ और चीते जैसे खतरनाक जानवरों के घर भी हैं।

गाँव में रहने वाले ठाकुरदीन गोंड ने कहा, "हम क्या कर सकते है? बिलहटा में पीने के पानी का कोई और स्रोत नहीं है।"

जैसे-जैसे पारा चढ़ता है, देश के एक बड़ा हिस्सा भीषण गर्मी से जूझने लगता है और पानी की किल्लत की खबरें बड़े पैमाने पर आनी शुरू हो जाती हैं। जंगलों और उसके आसपास स्थित आदिवासी गाँवों में स्थिति और भी खराब है, क्योंकि इन आदिवासी गाँवों में बड़ी संख्या में पीने के पानी के स्रोत नहीं हैं। गाँव की महिलाएं और बच्चे घने जंगलों के ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए, गहरी खाई में उतरकर पानी लाने के लिए मजबूर हैं।

जब भी पानी लेने जाते हैं बाघ, तेंदुआ या भालू से मुठभेड़ का खतरा बना रहता है।

गाँव कनेक्शन की 'पानी यात्रा' की सीरीज के दौरान रिपोटर्स और कम्युनिटी जर्नलिस्ट की हमारी राष्ट्रीय टीम ने देश के विभिन्न राज्यों के दूरदराज के गाँवों की यात्रा कर रहे हैं। ताकि वे यह पता लगा सके कि गाँवों में रहने वाले लोग किस तरह से भीषण गर्मी में अपनी पानी की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं।

मध्य प्रदेश में पन्ना टाइगर रिजर्व के अंदर बसे आदिवासी गाँवों की यह कहानी 'पानी यात्रा' सीरीज की तीसरी कड़ी है।

जहां तक मध्य भारतीय राज्य में नल के पानी के कवरेज का संबंध है, पन्ना जिले इसमें से नीचे है। जल जीवन मिशन के आंकड़ों के अनुसार, आज 16 मई, 2022 तक ग्रामीण मध्य प्रदेश में नल जल आपूर्ति का कुल कवरेज 40.50 प्रतिशत है। पन्ना जिले में, ग्रामीण घरों में नल के पानी का कवरेज केवल 15.56 प्रतिशत है।


अखिल भारतीय स्तर पर, देश में 49.36 प्रतिशत ग्रामीण घरों में नल के पानी के कनेक्शन हैं। सबसे कम कवरेज उत्तर प्रदेश में 13.65 फीसदी, झारखंड में 19.88 फीसदी, छत्तीसगढ़ में 22.76 फीसदी, पश्चिम बंगाल (22.90 फीसदी) और राजस्थान (24.39 फीसदी) में है।


जंगली जानवरों के साथ पानी का बंटवारा

कटाहारी के लगभग 300 आदिवासी ग्रामीण भी उसी सौ फीट गहरी झिरिया पर निर्भर हैं, जहां से बिलहटा के 400 निवासी अपना पानी लाते हैं। गाँव में रहने वालों ने शिकायत करते हुए कहा, कटाहारी में एक हैंडपंप है, लेकिन उससे भी गंदा पानी आता है।

कटाहारी की केसरबाई ने गाँव कनेक्शन को बताया, "जब भी पानी लेने जाते हैं बाघ, तेंदुआ या भालू से मुठभेड़ का खतरा बना रहता है।" वह आगे कहती हैं, "बस इसी वजह से हम कभी अकेले पानी लेने नहीं जाते। हमेशा आठ से दस लोगों इकट्ठा होकर एक साथ जाते हैं।"

ग्रामीणों के पास एक-दूसरे का ध्यान रखने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। उनके लिए यह रोजाना का काम है। बैजू आदिवासी ने गाँव कनेक्शन से कहा, "जंगली जानवर आमतौर पर सुबह या शाम को ही स्रोत पर पानी पीने के लिए आते हैं। ये बात हमें अच्छे से मालूम है और इसलिए उस दौरान हम वहां नहीं जाते। सूरज निकलने के बाद का समय सुरक्षित होता है। जानवरों के साथ हमारी समझ ही उनके साथ संघर्ष से बचा सकती है।"

कोनी आदिवासी गाँव की आबादी 500 के करीब है। यहां के लोगों की कहानी भी कटिहारी गाँव जैसी ही है। वे सभी अपनी पानी की जरूरतों के लिए झिरिया पर ही निर्भर हैं। वन अधिकारियों के अनुसार झिरिया में साल भर पानी रहता है। इंसान और जानवर दोनों एक ही स्रोत से अपनी पानी की जरूरतों को पूरा करते हैं।

केन-बेतवा परियोजना बनी एक बड़ी बाधा

उत्तर मध्य प्रदेश में विंध्य पर्वत श्रृंखला में स्थित पन्ना टाइगर रिजर्व पन्ना और छतरपुर जिलों में फैला हुआ है। यहां के भूभाग में विस्तृत पठार और घाटियां हैं। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ इंडिया के अनुसार, इस रिजर्व में उत्तरी मध्य प्रदेश का अंतिम शेष बाघ निवास स्थान है।

दक्षिण से उत्तर की ओर बहने वाली केन नदी इसी रिजर्व से होकर बहती है, जो मध्य प्रदेश की सोलह बारहमासी नदियों में से एक है। केन घड़ियाल अभयारण्य के साथ ये वन इस नदी के जलग्रहण क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

केन-बेतवा लिंक परियोजना को बिलहटा, कटाहारी और कोनी के आदिवासी ग्रामीणों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार कारणों में से एक बताया गया। जिसकी वजह से इन लोगों को पानी लाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ती है। (मानचित्र देखें: पन्ना टाइगर रिजर्व)।


संपर्क करने पर पन्ना टाइगर रिजर्व के एरिया डायरेक्टर उत्तम कुमार शर्मा ने गाँव कनेक्शन को बताया कि केन-बेतवा लिंक परियोजना में, टाइगर रिजर्व के उस क्षेत्र के बदले में जो जलमग्न होना प्रस्तावित है, सरकार को टाइगर रिजर्व को 4,300 हेक्टेयर राजस्व भूमि देनी है। इसमें क्षेत्र के 12 और गाँवों के अलावा कथरी, बिलहटा और कोनी गाँवों की जमीन भी शामिल है।

उन्होंने बताया कि इन सभी गाँवों को स्थानांतरित किया जाना है क्योंकि जब तक पन्ना टाइगर रिजर्व को 4,300 हेक्टेयर राजस्व भूमि नहीं मिलती है, तब तक केन-बेतवा लिंक परियोजना का काम शुरू नहीं हो सकता है। इससे पता चलता है कि इन गाँवों में विकास परियोजनाएं अभी तक क्यों शुरू नहीं हुई हैं।


44,605 करोड़ रुपये की लिंक परियोजना सूखाग्रस्त बुंदेलखंड क्षेत्र में केन और बेतवा नदियों को जोड़ेगी और इससे दो राज्यों के 10 जिलों में रहने वाले लोगों को लाभ होने की उम्मीद है: उत्तर प्रदेश (यूपी) में बांदा, महोबा, झांसी और ललितपुर; और मध्य प्रदेश (एमपी) में टीकमगढ़, पन्ना, छतरपुर, सागर, दमोह और दतिया।

लेकिन इस परियोजना का पर्यावरणविद कड़ा विरोध कर रहे हैं। उनका दावा है कि दो नदियों को जोड़ने से स्थानीय पारिस्थितिकी नष्ट हो जाएगी और बाघ अभयारण्य भी प्रभावित होगा। उनके मुताबिक, बुंदेलखंड की जीवन रेखा केन नदी पहले से ही सूख रही है। पानी का प्रवाह धीमा हो गया है और नदी में मौजूद चट्टाने जो आमतौर पर पानी में डूबी रहतीं थीं, अब नजर आने लगी हैं।

केन नदी में भारी और अंधाधुंध बालू खनन से इसके किनारे बसे गाँवों को और परेशानी हुई है। जो लोग नाव चलाने, मछली पकड़ने और नदी किनारे खेती करने से अपनी आजीविका कमाते हैं, वे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। पिछले दिसंबर में केन-बेतवा लिंक परियोजना को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने मंजूरी दी थी।

कटहरी बिलहटा गाँव की झिरिया, यहां से पानी लेने के लिए करीब 100 फीट नीचे उतरना पड़ता है। फोटो: अरुण सिंह

योजना या फिर उसका विरोध, इनमें से कौन सही है इसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है। लेकिन एक बात तो तय है कि पन्ना में पानी की कमी से जूझ रहे गांवों की महिलाएं को इसका सबसे ज्यादा खामियाजा उठाना पड़ रहा है।

पन्ना टाइगर रिजर्व के बाहर सिल्गी गांव निवासी 71 वर्षीय इंद्रमणि पांडेय ने नाराजगी जताते हुए गाँव कनेक्शन से कहा, "कुओं और हैंडपंपों के बंद होने के बाद से हम खेतों में लगे बोरवेल से पानी भर रहे हैं। हमें पानी भरने, उसे ले जाने और स्टोर करने में पूरा दिन निकल जाता है।"

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