2020 में दस करोड़ लोगों को नहीं मिलेगा पानी, क्या पानी के लिए जंग लड़ने को तैयार हैं आप?

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2020 में दस करोड़ लोगों को नहीं मिलेगा पानी, क्या पानी के लिए जंग लड़ने को तैयार हैं आप?फोटो : निधी जम्वाल

लखनऊ। खबरें आ रही हैं - पानी का संकट है, हर तरफ सूखा है। रिसर्च कह रही हैं- साल 2020 में सौ मिलियन यानी दस करोड़ लोगों को पानी की कमी से जूझना पड़ेगा। जानकार बता रहे हैं- शासन और लोग दोनों ही कुछ नहीं कर रहे हैं। बादल हर साल उमड़-घुमड़कर आते हैं और पानी लाते हैं, मगर उन्हें इस धरती पर बैठने की कोई जगह ही नहीं मिलती और वो मिट्टी के साथ बह जाते हैं। पानी के इस आने वाले हर संकट की वजह का लब्बोलुबाब यही है।

ये है संकट की वजह

पर्यावरण विषयों पर काम करने वाले अनिल जोशी बताते हैं, 'जल के दो हिस्से होते हैं। एक, जो जल आता है। दूसरा, जो जल जाता है। जब आने वाले जल के रास्ते बंद कर दिए जाएं और जाने वाले जल के रास्ते खोल दिए जाएं, तो वही होता है, जो अब हो रहा है।' अब ऐसा जल संकट पैदा हो रहा है कि लोग पानी के टैंकरों के पीछे दौड़ लगा रहे हैं। अपने ही रिश्तेदारों और पड़ोसियों से लड़ाईयां लड़ रहे हैं। आधी रात को ही पानी लेने के लिए लाइन में लग रहे हैं और इसका कारण सिर्फ इतना है कि पानी खुद हमारे घर आया, मगर हमने उसे बैठने की जगह नहीं दी, बह जाने दिया।


पानी फिर आएगा, मगर क्या हम उसे बैठने की जगह दे पाएंगे? पर्यावरण मामलों के जानकार हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ' कुछ लोगों को लगता है कि मानसून के देरी से आने के कारण ऐसा हो रहा है, मगर ये सच नहीं है। सूखे की स्थिति मानसून के देर से आने के कारण नहीं, बल्कि इसलिए है कि क्योंकि बीते साल बारिश कम हुई। क्योंकि हमारी जल प्रबंधन प्रणाली बहुत कमजोर है, हमारे पास बारिश का पानी इक्ट्ठा करने का कोई पुख्ता इंतजाम नहीं हैं। हम पानी की बर्बादी रोकने के लिए किसी तरह की कोशिश नहीं करते हैं।' यानी मामला फिर वहीं आ जाता है मानसून ज्यादा आया या कम, लेकिन हमने उसे बैठने की जगह नहीं दी, यही वजह बनी जल संकट की और सूखे की।

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अनिल जोशी कहते हैं, 'हम लोगों के लिए वर्षा ही हर तरह के पानी का स्रोत है। वर्षा का जल इक्ट्ठा करके ही हम सिंचाई और अन्य सभी काम करते रहे हैं। मगर अब हमने ही वर्षा के जल से लबालब भरने वाले तालाबों को खत्म कर दिया है। नदियों को बांधों से बांध दिया है। कुओं से इतना पानी निकाल लिया है कि अब वहां भी सूखा ही मिलता है।'

ये हो सकता है समाधान

अनुपम मिश्र ने अपनी किताब- आज भी खरे हैं तालाब में ऐसी दर्जनों घटनाओं और उदाहरणों का जिक्र किया है, जिनसे पानी के संकट की मौजूदा स्थिति की जड़ें पता चलती हैं। वे लिखते हैं कि सन् 1800 में मैसूर राज्य में 39000 तालाब थे। कहा जाता था कि वहां किसी पहाड़ी की चोटी पर एक बूंद गिरे, आधी इस तरफ आधी उस तरह बहे तो दोनों तरफ इसे सहेज कर रखने वाले तालाब वहां मौजूद थे।


अंग्रेज आए और सन् 1831 में राज की ओर से तालाबों को दी जाने वाली राशि को काटकर एकदम आधा कर दिया। तालाब लोगों के थे, तो राजा से मिलने वाली मदद के कम हो जाने, कहीं-कहीं बंद हो जाने के बाद भी उन्होंने अपने तालाबों को संभाले रखा। सन् 1863 में वहां पहली बार पी. डब्ल्यू. डी. बना और सारे तालाब लोगों से छीन कर उसे सौंप दिए गए। पी. डब्ल्यू. डी से काम नहीं चला तो फिर पहली बार सिंचाई विभाग बना। उसे तालाब सौंपे गए। वह भी कुछ नहीं कर पाया तो वापस पी. डब्ल्यू. डी. को कुंआ सौंप दिया गया। अंग्रेज विभागों की अदला- बदली के बीच तालाबों से मिलने वाला राजस्व बढ़ाते गए और रख - रखाव की राशि छांटते-काटते गए।

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इधर दिल्ली तालाबों की दुर्दशा की नई राजधानी बनी। अंग्रेजों के आने से पहले तक यहां 350 तालाब थे। इन्हें भी राजस्व के लाभ- हानि की तराजू पर तौला गया और कमाई न दे पाने वाले तालाब राजा के पलड़े से बाहर फेंक दिए गए। उसी दौर में नल लगने लगे थे। नल लगते गए और जगह-जगह बने तालाब, कुएं और बावड़ियों के बदले अंग्रेज द्वारा नियंत्रित 'वाटर वर्क्स' से पानी आने लगा।

सन् 1970 आते-आते शहरों के तालाब उपेक्षा से पट चुके थे और उन पर नए मोहल्ले, बाजार स्टेडियम खड़े हो चुके थे।' लेकिन हालात फिर उन्हीं उपायों पर गौर करने के लिए कह रहे हैं, जिन्हें विकास की भेंट चढ़ा दिया गया था।


ऐसा क्यों नहीं करते आप !

अनुपम मिश्र की ये किताब आज इसलिए भी याद आती है, क्योंकि जल संकट को लेकर किए जा रहे सारे शोध और अध्यन यही कहते हैं कि हमें वर्षा जल को संभालना सीखना होगा। विडंबना ये है कि पीढ़ियों से जो काम परंपरा का हिस्सा थे अब उन्हें शोध के जरिये सामने आना पड़ रहा है। अनिल जोशी जल सकंट के उपाय के बारे में बात करते हैं, तो स्पष्ट कहते हैं, 'जिस तरह का जल संकट पैदा हो रहा है, उससे बचने का यही उपाय है कि हम ज्यादा से ज्यादा वर्षा जल इक्ट्ठा करें।

जल को भूमिगत करें। घरों की छत पर वर्षा जल संचयन का इंतजाम हो। पहाड़ों में जलछिद्र बनवाएं। इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। दूसरा एक उपाय ये भी है कि हमें पानी को अब एक आर्थिक प्रोडक्ट समझकर इस्तेमाल करना होगा। यानी उसके इस्तेमाल को लेकर पूरी कोताही बरतनी होगी। चार बाल्टी से नहाना बंद करना होगा। फालतू पानी बहाना बंद करना होगा।' इस बारे में कई तरह के जागरुकता अभियान शुरू किए जा चुके हैं, मगर इसका असर कहीं नहीं दिखता।


एक घटना का जिक्र करते हुए जल संरक्षण पर काम करने वाले मशहूर कलाकार, पेंटर और लेखक आबिद सूरती कहते हैं, ' मैं अपने एक दोस्त के घर गया। वहां थोड़ी देर बैठने के बाद एक आवाज ने मुझे परेशान करना शुरू कर दिया। वो आवाज थी- टप टप टप। मेरा अच्छा दोस्त था, इसलिए मैं बेतक्कलुफी से उस आवाज का पीछा करते हुए उसके घर के बाथरूम में घुस गया। देखा तो वहां लगे नल से पानी की बूंदें गिर रही थीं। मैंने उसे टाइट करके बंद किया और वो आवाज बंद हो गई। फिर मैं सुकून से आकर बैठा। ये सब देखकर मेरे दोस्त ने पूछा, बस इसी बात से परेशान हो गए। तब मैंने उसे बताया कि मैं आवाज से नहीं, पानी की बर्बादी से परेशान हो गया था।'

80 साल के आबिद ने इस घटना के बाद हर रविवार को प्लंबर और वॉलंटियर के साथ जाकर लोगों के घर के लीकेज वाले नलों को ठीक करना शुरू कर दिया था। कहते हैं, 'इस तरह एक-एक बूंद जमा करके हम इस तरह अब तक 10 मिलियन लीटर पानी बचा चुके हैं।'

इस पर भी देना होगा ध्यान

वर्षा जल को संरक्षित करने के अलावा एक और समस्या जल संकट की वजह बन रही है। हिमांशु ठक्कर बताते हैं, 'मराठवाड़ा में सूखे की स्थिति है। पानी का संकट है। इसकी वजह सबको दिखती है, मगर इस पर कोई कदम नहीं उठाए जाते। हिमांशु कहते हैं, 'मराठवाड़ा में गन्ने की खेती होती है, जिसमें बहुत पानी लगता है। यहां ये नहीं होना चाहिए, क्योंकि यहां इतनी बारिश नहीं होती औऱ पानी नहीं होता। अगर यहां का पानी दूसरे तरीकों से इस्तेमाल हो, तो फायदा होगा। मगर सारा बजट बांधों पर खर्च किया जा रहा है, जबकि बांध बनाने से कोई खास फायदा नहीं हो रहा है।

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भूमिगत जल ही भारत के लिए लाइफलाइन है। हमें ग्राउंड वाटर रिचार्ज सिस्टम को दुरुस्त करना होगा। यदि इस साल भी मानसून कम रहता है, 2020 काफी चेतावनी भरा है। वहीं जल प्रबंधन से जुड़े मामलों के जानकार पंजाब के कृपाल सिंह दर्दी इस मामले में हैरान करने वाली स्थिति दिखाते हैं,' कहते हैं दक्षिण पंजाब में जिस तेजी से पानी का स्तर गिर रहा है, 10-15 साल बाद यहां रेगिस्तान होगा।'

कृपाल कहते हैं, 'पंजाब में धान की फसल बहुत ज्यादा की जाती है। एक धान की फसल में पांच भाखड़ा रिजरवॉयर खाली हो जाते हैं। ऐसे में पानी कैसे बचेगा। सरकार को चाहिए कि यहां वैकल्पिक फसलों की खेती शुरू की जाए, जिनमें पानी कम लगे और किसानों को उनका उचित मूल्य भी मिल सके। सिर्फ मंदिर-मस्जिद को लेकर सब लड़ रहे हैं, जबकि हालात पानी को लेकर युद्ध होने की पूरी तस्वीर दिखा रहे है।'


  

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