जिस एमएसपी को लेकर सड़क से लेकर संसद तक हंगामा है, वह कितने किसानों को मिलती है? MSP का पूरा इतिहास, भूगोल, गणित समझिये

कृषि विधेयकों के पास होने के बाद एक बार फिर एमएसपी चर्चा में है। किसान और कृषि जानकारों को लग रहा है कि कृषि बिल के बाद एमएसपी की व्यवस्था खत्म हो जायेगी, हालांकि सरकार इससे इनकार कर रही है। आखिर एमएसपी क्या है, क्या इससे किसानों को लाभ मिलता है?

Mithilesh DharMithilesh Dhar   20 Sep 2020 3:15 PM GMT

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MSP, agriculture bills, farmers bills, msp, apmcकई रिपोर्टस में बताया गया है कि किसानों की बड़ी आबादी को MSP का फायदा ही नहीं मिल पाता।

लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी कृषि सुधार से संबंधित विधेयक पास हो गये। विपक्ष से लेकर किसान तक इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। इन विधेयकों को लेकर किसानों के मन में सबसे बड़ा डर यह है कि अब उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का लाभ नहीं मिलेगा। विधेयकों में एमएसपी की बात नहीं है, जबकि देश के कृषि मंत्री के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी बार-बार कह रहे हैं कि MSP की सुविधा पहले जैसे ही रहेगी।

पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम भी सरकार से एमएसपी पर सवाल पूछ रहे हैं। आखिर यह एमएसपी है क्या? क्या सच में किसानों को इससे फायदा होता है? और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या किसानों को एमएसपी मिलती भी है? तो आइये एमएसपी का इतिहास, भूगोल और गणित समझते हैं वह भी एक दम सरल शब्दों में।

पहले जानिये एमएसपी है क्या?

किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू है। अगर कभी फसलों की कीमत बाजार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों से फसल खरीदती है ताकि किसानों को नुकसान से बचाया जा सके।

किसी फसल की एमएसपी पूरे देश में एक ही होती है और इसके तहत अभी 23 फसलों की खरीद की जा रही है। कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन कृषि लागत और मूल्य आयोग ( कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड प्राइजेस CACP) की अनुशंसाओं के आधार पर एमएसपी तय की जाती है।

एमएसपी का इतिहास भी जानिये

आजादी के बाद से ही देश के किसानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। किसानों को उनकी मेहनत और लागत के बदले फसल की कीमत बहुत कम मिल रही थी। कृषि जिंसों की खरीद-बिक्री राज्यों के अनुसार ही हो रही थी। जब अनाज कम पैदा होता तो कीमतों में खूब बढ़ोतरी हो जाती, ज्यादा होता तो गिरावट।

इस स्थिति में सुधार के लिए वर्ष 1957 में केंद्र सरकार ने खाद्य-अन्न जांच समिति (Food-grains Enquiry committee) का गठन किया। इस समिति ने कई सुझाव दिये लिए उससे फायदा नहीं हुआ। तब सरकार ने अनाजों की कीमत तय करने के बारे में सोचा।

इसके लिए वर्ष 1964 में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने सचिव लक्ष्मी कांत झा (एलके झा) के नेतृत्व में खाद्य और कृषि मंत्रालय (अब ये दोनों मंत्रालय अलग-अलग काम करते हैं) ने खाद्य-अनाज मूल्य समिति (Food-grain Price Committee) का गठन किया। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का मत था कि किसानों को उनकी उपज के बदले कम से कम इतने पैसे मिलें कि उनका नुकसान ना हो। तब देश के कृषि मंत्री थे चिदंबरम सुब्रमण्यम।

खाद्य-अनाज मूल्य समिति में एलके झा के साथ टीपी सिंह (सदस्यए योजना आयोग), बीएन आधारकर (आर्थिक मामलों के अतिरिक्त सचिव, वित्त मंत्रालय), एमएल दंतवाला (आर्थिक कार्य विभाग ) और एससी चौधरी (आर्थिक और सांख्यिकीय सलाहकार, खाद्य और कृषि मंत्रालय) भी शामिल थे।

डॉ बीवी दूतिया (उप आर्थिक और सांख्यिकीय सलाहकार, खाद्य और कृषि मंत्रालय) को इस कमिटी का सचिव नियुक्त किया गया। कमिटी ने 24 दिसंबर 1964 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 24 दिसंबर 1964 को इस पर मुहर लगा दी, लेकिन कितनी फसलों को इसके दायरे में लाया जायेगा, यह तय होना अभी बाकी था।


वर्ष 1965 में 19 अक्टूबर को भारत सरकार के तत्कालीन सचिव बी शिवरामन ने कमिटी के प्रस्ताव पर अंतिम मुहर लगाई। इसके बाद वर्ष 1966-67 में पहली बार गेहूं और धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय किया गया। कीमत तय करने के लिए केंद्र सरकार ने कृषि मूल्य आयोग का गठन किया जिसका नाम वर्ष 1985 में बदलकर कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP सीएसीपी) हो गया।

एलके झा की कमिटी की सिफारिश पर ही वर्ष 1965 में भारतीय खाद्य निगम (Food Corporation of India- FCI) का गठन किया गया। सरकार किसानों से खरीदा अनाज एफसीआई और नाफेड (National Agricultural Cooperative Marketing Federation of India) के पास भंडार करती है जहां से अनाज सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत गरीबों को वितरित किया जाता है।

अब सबसे जरूरी बात, फसलों की कीमत कैसे तय होती है और तय करता कौन है

वर्ष 2009 से कृषि लागत और मूल्य आयोग एमएसपी के निर्धारण में लागत, मांग, आपूर्ति की स्थिति, मूल्यों में परिवर्तन, मंडी मूल्यों का रुख, अलग-अलग लागत और अन्तराष्ट्रीय बाजार के मूल्यों के आधार पर किसी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करता है।

कृषि मंत्रालय यह भी कहता है कि खेती के उत्पादन लागत के निर्धारण में नकदी खर्च ही नहीं बल्की खेत और परिवार के श्रम का खर्च (बाजार के अनुसार) भी शामिल होता है, मतलब खेतिहर मजदूरी दर की लागत का ख्याल भी एमएसपी तय करने समय रखा जाता है।

मध्य प्रदेश में किसानों ने एमएसपी की मांग को लेकर सत्याग्रह तक किया।

एमएसपी का आकलन करने के लिए सीएसीपी खेती की लागत को तीन भागों में बांटता है। ए2, ए2+एफएल और सी2, ए2 में फसल उत्पादन के लिए किसानों द्वारा किए गए सभी तरह के नकदी खर्च जैसे- बीज, खाद, ईंधन और सिंचाई आदि की लागत शामिल होती है जबकि ए2+एफएल में नकद खर्च के साथ पारिवारि श्रम यानी फसल उत्पादन लागत में किसान परिवार का अनुमानित मेहनताना भी जोड़ा जाता है।

वहीं सी2 में खेती के व्यवसायिक मॉडल को अपनाया जाता है। इसमें कुल नकद लागत और किसान के पारिवारिक पारिश्रामिक के अलावा खेत की जमीन का किराया और कुल कृषि पूंजी पर लगने वाला ब्याज भी शामिल किया जाता है।

फरवरी 2018 में केंद्र सरकार की ओर से बजट पेश करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि अब किसानों को उनकी फसल का जो दाम मिलेगा वह उनकी लागत का कम से कम डेढ़ गुना ज्यादा होगा।

सीएसीपी की रिपोर्ट देखेंगे तो पता चलता है कि अभी फसल की लागत पर जो एमएसपी तय किया जा रहा है वह ए2+एफएल है। वर्ष 2004 में प्रो. एमएस स्वामीनाथन की अगुवाई में राष्ट्रीय किसान आयोग के नाम से जो कमेटी बनी थी उसने अक्टूबर 2006 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। रिपोर्ट में किसानों को सी2 लागत पर फसल की कीमत देने की वकालत की गई थी, जबकि ऐसा हो नहीं रहा।

क्या किसानों को एमएसपी मिलता भी या ये कितना फायदेमंद है?

भले ही एमएसपी को लेकर किसान चिंतित हैं या सरकार बार-बार कह रही है कि एमएसपी पर खरीद पहले जैसे ही होती रहेगी, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। इसीलिए कृषि मामलों के जानकार हमेशा एमएसपी पर गारंटी कानून बनाने की मांग कर रहे हैं।

एमएसपी की व्यवस्था देश में पहले से ही है, लेकिन क्या ये किसानों को मिलता है, इसे हम उदाहरण से समझते हैं। इससे आप यह भी समझेंगे कि कृषि विधेयकों में एमएसपी का जिक्र न होने से किसान नाराज क्यों है?

मध्य प्रदेश के जिला हरदा, तहसील हंडिया के गांव देवास के रहने वाले किसान राहुल पटेल को मूंग से इस साल साढ़े तीन लाख रुपए से ज्यादा का नुकसान हुआ। वे गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "इस साल मेरे यहां अच्छी बारिश हुयी थी। ऐसे में मैंने 80 एकड़ में मूंग लगा दिया। कीटों के प्रकोप के कारण पैदावार घट गयी। पहले प्रति एकड़ में 6 से 7 कुंतल मूंग होता था, इस बार 4-5 कुंतल प्रति एकड़ ही निकला। नुकसान तो हमें फसल काटते ही हो गया। रही सही कसर मंडी में पूरी हो गयी।"

"मेरे यहां हरदा मंडी में मूंग की कीमत जुलाई में 5,300 से 5,500 रुपए थी। मैंने 5,400 रुपए प्रति कुंतल के हिसाब से 200 कुंतल मूंग बेचा। सरकारी दर के हिसाब से देखेंगे तो मुझे साढ़े तीन लाख रुपए से ज्यादा का नुकसान हुआ। पिछले साल मैंने खुद 6,000 से 9,000 रुपए कुंतल में मूंग बेचा था। पैसों की जरूरत थी इसलिए 200 कुंतल बेचना पड़ा।" वे आगे कहते हैं।

लॉकडाउन में किसानों को हुए नुकसान से राहत देने के लिए केंद्र सरकार ने 14 खरीफ फसलों की एमएसपी में बढ़ोतरी की थी। बढ़ोतरी के बाद मूंग की एमएसपी 7,196 रुपए प्रति कुंतल और उड़द की एमएसपी 6,000 रुपए प्रति कुंतल हो गयी।


एक उदाहरण और लेते हैं। बिहार के जिला भागलपुर के नवगछिया ब्लॉक के गांव खगरा के रहने वाले अशोक सिंह ने इस साल 35 एकड़ में मक्का लगाया था। प्रति एकड़ में लगभग 35 से 40 कुंतल का उत्पादन भी हुआ है। वह अच्छी पैदावार से खुश तो हुए, लेकिन उन्हें जो कीमत मिली उससे वे बहुत नाराज हैं।

वह गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, "पिछले साल जिस मक्के की कीमत 2,000 से 2,200 रुपए कुंतल थी, वही मक्का इस साल 1,050 रुपए कुंतल में बिका।"

कृषि मंत्रालय के अनुसार बिहार में देश में सबसे ज्यादा 20 फीसदी जमीन पर मक्के की खेती दो बार होती है, जबकि रबी सीजन में कुल उत्पादन का 80 फीसदी मक्का बिहार में पैदा होता है। बिहार के 10 जिले समस्तीपुर, खगड़िया, कटिहार, अररिया, किशनगंज, पूर्णिया, सुपौल, सहरसा, मधेपुरा और भागलपुर में देश के कुल मक्का उत्पादन का 30 से 40 प्रतिशत पैदावार होता है। देश की मंडियो में मक्के का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1,850, यह सरकार की तय की गई कीमत।

आंध्र प्रदेश, अनंतपुर के गांव पुतलुर के किसान मुरली धर 20 मार्च 2020 को जब ताड़ीपत्री मंडी पहुंचे तो चना की कीमत 3,000 से 3,200 रुपए प्रति कुंतल के बीच थी। वे ट्रैक्टर से लगभग 25 कुंतल चना लेकर मंडी पहुंचे थे, लेकिन उन्होंने आधा चना ही बेचा।

ऐसा उन्होंने क्यों किया, इस बारे में वे बताते हैं, "हमें कम से कम सरकारी रेट मिल जाये तो हम उतने में ही खुश हो लेते हैं, लेकिन मुझे तो एक कुंतल के बदले 3,100 रुपए मिल रहा था। अब इतना नुकसान सहकर चना कैसे बेचता, लेकिन इतनी मेहनत करके उपज मंडी लाया था तो बिना पैसे वापस नहीं जा सकता था। इसलिए आधा बेच दिया, आधा रोक लिया है, जब कीमत सही होगी तब बेचूंगा।"

मुरली धर को एक कुंतल के बदले मिला 3,100 रुपए जबकि सरकार ने चने का एमएसपी 4,875 रुपए प्रति कुंतल तय किया है। मतलब एमएसपी के हिसाब से प्रति कुंतल के पीछे नुकसान हुआ 1,775 रुपए। ऐसे उदाहरण एक नहीं है, हजारों हैं। एमएसपी का फायदा किसानों को नहीं मिलता, इसका जिक्र कई रिपोर्टस में भी है।

आर्थिक सहयोग विकास संगठन और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (OECD-ICAIR) की एक रिपोर्ट के अनुसार 2000 से 2017 के बीच किसानों को उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाने के कारण 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ।

वर्ष 2015 में भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पुनर्गठन का सुझाव देने के लिए बनी शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि एमएसपी का लाभ सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता जिसका सीधा मतलब है कि देश के 94 फीसदी किसान एमएसपी के फायदे से दूर रहते हैं। सरकार के अनुसार देश में किसानों की संख्या 14.5 करोड़ है, इस लिहाज से 6 फीसदी किसान मतलब कुल संख्या 87 लाख हुई।


वहीं वर्ष 2016 में एमएसपी पर नीति आयोग की भी एक चौंकाने वाली रिपोर्ट आई थी जिसके अनुसार 81 फीसदी किसानों को यह मालूम था कि सरकार कई फसलों के पर एमएसपी देती है, लेकिन बुवाई सीजन से पहले सही कीमत से 10 फीसदी किसान ही वाकिफ थे।

ऐसे में सवाल यह भी है उठता है कि जब उचित मूल्य के लिए बनी सबसे बड़ी व्यवस्था से ही किसान दूर हैं तो उन्हें सही कीमत मिले भी कैसे। वर्ष 2019 में गांव कनेक्शन ने जब देश के 19 राज्यों के 18,267 लोगों के बीच हुए अपने सर्वे में किसानों से पूछा कि आपकी नजर में आज खेती के लिए सबसे बड़ी समस्या क्या है तो 43.6 फीसदी किसानों ने कहा कि उनके लिए सबसे बड़ी समस्या सही कीमत का न मिलना है। ये कुल संख्या के 4,649 लोग हैं।

सीएसीएपी ने खरीफ सीजन 2020-21 को लेकर अपनी वेबसाइट पर रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसमें वर्ष 2019-20 की पूरी जानकारी है। केंद्र सरकार ने अभी वर्ष 2020-21 के लिए 14 खरीफ फसलों की एमएसपी में बढ़ोतरी की है। रिपोर्ट में राज्यवार अलग-अलग फसलों की जानकारी दी गई है।


इसके अनुसार हम अगर धान की बात करें तो बाजार में धान की कीमत असम में 17 फीसदी, छत्तीसगढ़ में 10 फीसदी, तमिलनाडु में 7 फीसदी, तेलंगाना में 4 फीसदी उत्तर प्रदेश में 6 फीसदी और पश्चिम बंगाल में 2 फीसदी से ज्यादा कम रही सरकार की तय एमएसपी के अनुसार। ये एक उदाहरण मात्र है।

हालांकि सरकार का दावा है कि एमएसपी का लाभ लेने वाले किसानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। खाद्य और सार्वजनिक वितरण मामलों के राज्यमंत्री रावसाहब दानवे पाटिल ने 18 सितंबर को राज्यसभा पूछे गये एक सवाल के जवाब में बताया कि 9 सितंबर तक रबी सीजन में गेहूं पर एमएसपी का लाभ लेने वाले 43.33 लाख किसान थे। यह पिछले साल के 35.57 लाख से करीब 22 प्रतिशत ज्यादा है। पिछले पांच साल में एमएसपी का लाभ उठाने वाले गेहूं के किसानों की संख्या दोगुनी हुई है।

वर्ष 2016-17 में सरकार को एमएसपी पर गेहूं बेचने वाले किसानों की संख्या 20.46 लाख थी। अब इन किसानों की संख्या 112% ज्यादा है। रबी सीजन में सरकार को गेहूं बेचने वाले किसानों में मध्यप्रदेश (15.93 लाख) सबसे आगे था। पंजाब (10.49 लाख), हरियाणा (7.80 लाख), उत्तरप्रदेश (6.63 लाख) और राजस्थान (2.19 लाख) इसके बाद थे।

खरीफ सीजन में एमएसपी पर धान बेचने वाले किसानों की संख्या 2018-19 के 96.93 लाख के मुकाबले बढ़कर 1.24 करोड़ हो गई यानी 28 प्रतिशत ज्यादा। खरीफ सीजन 2020-21 के लिए अब तक खरीद शुरू नहीं हुई है। 2015-16 के मुकाबले यह बढ़ोतरी 70% से ज्यादा है।

समाधान क्या है?

20 सितंबर को जब राज्यसभा में कृषि से जुड़े दो बिल कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 और कृषक (सशक्‍तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्‍वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक, 2020 पारित किए गए तब विपक्ष ने सरकार से एमएसपी पर सवाल पूछे।

कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला कहा कि ये विधेयक देश के सबसे अंधकारमय कानून माने जाएंगे। उन्होंने कहा, "मोदी सरकार ने देश के किसान और उनकी रोजी-रोटी पर आक्रमण किया है। ये देश के सबसे अंधकारमय कानून माने जाएंगे। किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिलेगा कैसे? साढ़े 15 करोड़ किसानों को एमएसपी देगा कौन? अगर बड़ी कंपनियों ने एमएसपी पर फ़सल नहीं खरीदी तो उसकी गारंटी कौन देगा? आपने एमएसपी की अनिवार्यता को कानून के अंदर क्यों नहीं लिख दिया?"

गांव कनेक्शन के सर्वे (वर्ष 2019) में यह सामने आया कि फसल खरीद की जो भी प्रक्रिया अभी चल रही है, किसान उससे नाराज हैं। सर्वे में शामिल 18,267 लोगों में से 62.2 फीसदी किसान ने कहा कि वे चाहते हैं कि उनकी फसल की कीमत पर उनका अधिकार होना चाहिए, इसे तय करने का अधिकार उनके पास हो।


देश के प्रसिद्ध निर्यात नीति विशेषज्ञ और कृषि मामलों के जानकार देविंदर शर्मा कहते हैं, "मुझे लगता है कि अब समय आ गया है जब हमें मूल्य नीति से आय नीति की ओर बढ़ना चाहिए। 2009-10 और 2011-12 के बीच गेहूं का एमएसपी 125 फीसदी अधिक था, जौ का 110 पर्सेंट ज्यादा था और चने का 105 फीसदी ज्यादा था। इसलिए अब सवाल उठता है कि जब सरकार कहती है कि वह किसानों को अधिक लाभ पहुंचा रही है तो इसमें खास बात क्या है।"

वे आगे कहते हैं, "यही काम तो इससे पहले की यूपीए सरकार भी कर रही थी और उसके बारे में उसने कभी बड़े-बड़े दावे भी नहीं किए। मुझे पूरा भरोसा है कि अगर मैं किसानों से पूछूं तो वे खरीद मूल्य में बढ़ोतरी के सरकार के दावे को भी खारिज कर देंगे क्योंकि वह कहीं भी फसल की वास्तविक लागत के आसपास तक नहीं बैठता। मान लीजिये कि सरकार अपने वादे के अनुसार एमएसपी दे भी देती है तो क्या हो जाएगा? सरकार अभी की तय एमएसपी पर तो किसानों से फसल खरीद नहीं पा रही है, जबकि सबको पता है कि छह फीसदी किसान ही फसल एमएसपी पर बेच पाते हैं। ऐसे में किसानों को एमएसपी की गारंटी मिलनी चाहिए। नये कृषि अध्यादेशों में जब किसानों को कहीं भी फसल बेचने की आजादी दी जा रही है कि तो यह भी तय किया जाये कि किसानों को एमएसपी मिलेगी ही।"

200 से ज्यादा किसान संगठनों की समिति किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयोजक वीएम सिंह कहते हैं, "संसद को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाना चाहिए, ताकि तय रेट से कोई कारोबारी किसान की फसल खरीद न सके, और खरीदे तो उसे जेल हो, साथ ही किसानों को फसल बुवाई से पहले बताया जाए कि उनकी फसल किस दर पर बिकेगी। कृषि विधेयकों में इनकी कहीं जिक्र नहीं है। इससे पूरी एमएसपी व्यवस्था ध्वस्त हो जायेगी।"

   

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