भीड़ को हिंसा करने से क्यों नहीं रोक पा रही पुलिस ? भीड़ का मनोविज्ञान समझिए
Mithilesh Dhar 24 Dec 2019 11:00 AM GMT
लखनऊ। नागरिकता संशोधन एक्ट (CAA) के खिलाफ देशभर में हिंसक प्रदर्शन हो रहे हैं। बात चाहे देश की राजधानी नई दिल्ली की हो फिर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की, दोनों जगहों पर भारी सुरक्षाबलों की मौजूदगी के बाद भी भीड़ को हिंसा करने से रोका नहीं जा सका। कई जगहों पर पुलिस पर पत्थर फेंके गये, मीडिया की गाड़ियां जलाई गईं।
सोशल मीडिया पर कई ऐसी तस्वीरें शेयर की जा रही हैं जिसमें दिखाया जा रहा है कि पुलिस समय पर आंसू गैस के गोले नहीं दाग पाई। कई वायरल वीडियो में देखा जा रहा है कि पुलिस के जवान ओपन फायरिंग नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे सवाल यह भी है कि भीड़ को नियंत्रित क्यों नहीं किया जा सका, भीड़ क्यों उग्र हो जाती है ? इन मुद्दों पर हमने भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी एके जैन, महेश द्विवेदी और लखनऊ में मनोवैज्ञानिक शाजिया सिद्दीकी से बात की।
एके जैन, पूर्व डीजीपी, उत्तर प्रदेश
- भीड़ को नियंत्रित करने के लिए हमारा पहला कदम तो यह होता है कि प्रदर्शन हो क्यों रहा है। प्रजातंत्र में जो साधाराण प्रदर्शन होता है वह है या इसके हिंसक होने की संभावना है या हिंसक होकर रहेगा। अलग-अलग परिस्थियों में पुलिस भीड़ को अलग-अलग तरीकों से संभालती है। पुलिस हर प्रदर्शन से पहले उनकी जानकारी लेती है कि इसके हिंसक होने की कितनी संभावना है। इनको नियंत्रित करने के लिए कुछ पुलिसकर्मी सादे वर्दी में तो कुछ डंडे के साथ होते हैं। इमरजेंसी से निपटने के लिए सशस्त्र दस्ता भी होता है। प्रदर्शनकारियों को एक निश्चित सीमा रोके रखने की भी प्लानिंग होती है और जब प्रदर्शनकारी इस सीमा को तोड़ने का प्रयास करते हैं तब स्थिति बिगड़ती है।
WATCH: A video that nails the claims of UP Police that it never fired a single bullet! The video is of yesterday from Kanpur. pic.twitter.com/O4RazguIM2
— Prashant Kumar (@scribe_prashant) December 22, 2019
- पुलिस के पास बहुत से ऐसे हथियार होते हैं जो एक्सापायर हो जाते हैं। आंसू गैस में नमी आ जाती है जिस कारण वे समय पर दग नहीं पाते। हमारे सहां संसाधनों की भारी कमी है। इस कारण भी पुलिस भीड़ को रोक नहीं पाती। इसके लिए आलोचना पुलिस की होती है। पुलिस के पास थ्री नॉट थ्री की रायफल है, अब आप कहोगे कि रायफल एन वक्त पर नहीं चली। ब्रिटिशकाल के बने हथियार आज भी प्रयोग में लाये जा रहे हैं। अब उनके बेहतरी की उम्मीद तो नहीं की जा सकती ना।
- पुलिसकर्मियों की न तो ठीक से ट्रेनिंग हो रही है और न ही पर्याप्त पुलिसकर्मी हैं। पुलिसफोर्स में लंबी रिक्तियां हैं। थानों में जरूरत से बहुत कम पुलिसबल है, इसीलिए जब उन्हें ट्रेनिंग के बुलाया जाता है तो वे आ ही नहीं पाते। सयम रहते रिक्त स्थान भरे नहीं जाते। हर साल हजारों पुलिसकर्मी रिटायर हो जाते हैं। सरकार भर्ती अपने हिसाब से करती है। सरकार को चाहिए कि हर साल थोड़ी-थोड़ी वैकेंसी निकाले ताकि उन्हें बेहतर तरीके से ट्रेंड किया जा सके। रोज नये-नये नियम बन रहे हैं, ऐसे में ट्रेनिंग सबसे जरूरी है। उत्तर प्रदेश में 15000 से क्षमता वाले पुलिस प्रशिक्षण केंद्र हैं ही नहीं, इसे बढ़ाने की जरूरत है। बजट हमारा बढ़ता है जबकि लंबे समय से मांग चल रही है कि पुलिस के संसाधनों में बढ़ोतरी जरूरी है। बॉर्डर पर आईटीबीपी, सीआरपीएफ तो शहरों में आरपीपए, पुलिस डील करती है। ऐसे में इनके पास पर्याप्त संसाधन तो होने चाहिए। डायल 100 की गाड़ियां चल रही हैं। उससे काफी सुधार हो रहा है। जब आप सुविधाएं और संसाधन देंगे तो उसका असर भी दिखेगा।
The recent violence over #CAA has thrown up one fact. Indian police is not a trained force. Some of videos are really shocking. Even CRPF personnel and the Rapid Action Force, created to specially deal with riots, have turned out to be badly trained. 1/3
— Snehesh Alex Philip (@sneheshphilip) December 23, 2019
- एक तो हमारे यहां जल्दी पुलिसकर्मियों की भर्ती नहीं होती, और जब होती है तो 40 हजार की एक साथ हो जाती है। ऐसे में उनका प्रशिक्षण ठीक से नहीं हो पाता। जब नये जवानों को पुलिस प्रशिक्षण केंद्र में बुलाया जाता है तो उन्हें डेमो देकर बलवाइयों से निपटने की पूरी ट्रेनिंग दी जाती है, बताया जाता है कि आप भीड़ को देखकर कैसे समझेंगे कि वे शांत रहकर प्रदर्शन करेंगे या उपद्रव करेंगे, लेकिन ट्रेनिंग की स्थिति हमारे यहां बहुत गड़बड़ है। ढंग के मैदान तक तो हैं नहीं। ऐसे में बिना प्रशिक्षण के पुलिस का जवान उपद्रवियों को कैसे नियंत्रित करेगा।
महेश द्विवेदी, पूर्व डीजीपी उत्तर प्रदेश
- बात अगर भीड़ के मनोविज्ञान की करेंगे तो उनको यह भ्रम होता है कि वे कुछ भी करें लेकिन बच जाएंगे, यह भ्रम ही उनकी ताकत होती है। भीड़ में होने वाला हर व्यक्ति को यह विश्वास होता है कि वह सुरक्षित है, उसकी पहचान नहीं हो पायेगी। भीड़ की समझ कम होती है। वे बस एक शोर पर हिंसक हो जाते हैं। वे सही गलत के फैसले को भूल जाते हैं।
- पुलिस सूचना और भीड़ के आकार को ध्यान में रखकर इन्हें रोकने की प्लानिंग करती है। पर्याप्त समय होने पर ही भीड़ को दूर से रोका जा सकता है। पुलिस भीड़ की दिशा और दशा को भी ध्यान में रखती है। लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि भीड़ को रोका नहीं जा सकता, यह जानते हुए भी कि भीड़ हिंसक हो सकती है। अब आप अगर लखनऊ या प्रदेश के अन्य हिस्सों में हुई हिंसा की बात करेंगे तो ये भीड़ कई दिशाओं और कई जगहों से आ रही थी। ऐसे भीड़ को रोक पाना बहुत मुश्किल होता है।
- भीड़ की तुलना में हमारे पास पुलिस फोर्स नहीं है। धारा 144 लागू में 5 लोग एक जगह इकट्ठा नहीं हो सकते लेकिन जब 5000 प्रदर्शनकारी होंगे तो उन्हें 50 या 500 पुलिसकर्मी तो रोक नहीं पाएंगे। इतनी बड़ी संख्या में आप उपद्रवियों को गिरफ्तार भी नहीं कर सकते, हमारी जेलों में इतनी जगह ही नहीं है। अब इनको रोकने का विकल्प यही बचता है कि या तो फायरिंग की जाये या फिर लाठीचार्ज करें, लेकिन इसको भी लेकर पुलिस को ही निशाना बनाया जाता है। मीडिया में खबरें चलने लगती हैं पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया जबकि उन्हें शांति तरीके से रोका जा सकता था।
- आंसू गैस के गोले हों या फिर कारतूस, अब इनका रोज-रोज काम आता नहीं है। वर्षों पुराने हथियार रखे रहते हैं, उनकी जांच भी समय-समय पर नहीं होती। ऐसे में यह बिल्कुल संभव है कि काम पर वे दगा दे जाएं। हथियारों को रिप्लेस करने की नीति होनी चाहिए। हथियार रखे-रखे एक्सपायर हो जाते हैं अब पुलिस उससे बलवाइयों को कैसे रोकेगी।
शाजिया सिद्दीकी, मनोवैज्ञानिक
- जब भीड़ जुटती है तो उस समय एक आदमी का मनोविज्ञान काम नहीं करता। उसे मॉब साइकोलॉजी कहते हैं। उन्हें एक मकसद दिखाया जाता है उसे आपको पूरा करना होता है। फिर चाहे वो मकसद आपके खिलाफ हो या फिर पक्ष में, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जो आपका लीडर कह रहा है फिर आप वही करते हैं। इसीलिए हमेशा कहा जाता है कि भीड़ से बीच चाहिए क्योंकि भीड़ का अपना कोई मनोविज्ञान नहीं होता, वे कुछ भी कर सकते हैं।
- हमारे यहां तो कहा जाता है कि नंबर मतलब पॉवर। जब भीड़ जुटती है तो उसे लगता है कि हम पकड़े तो जाएंगे नहीं चाहे जो कर लें। उनके पास अपनी कोई साच नहीं होती। जो होती है वह भीड़ होती है। भीड़ से तथ्यात्मक बातें भी नहीं की जा सकती क्योंकि वह समझ ही नहीं आती है। मनोविज्ञान कहता है कि भीड़ को रोका ही नहीं जा सकता। उनकी आक्रामता ही उनकी ताकत होती है, क्योंकि हम बचपन से ही बताया जाता है हिंसा को ताकत मानते आ रहे हैं। अब आप फिल्म कबीर सिंह ही देख लीजिए, फिल्म में एंगर को केंद्र में रखा गया है जिसे लोगों ने खूब पसंद किया।
- यह भी समझना होगा कि प्रदर्शन कौन करता है। प्रदर्शन हमेशा सामान्य आदमी करता है, ऐसे में वह हिंसक नहीं हो सकता। हजारों की संख्या में जुटे लोग हिंसक नहीं हो सकते। होना यह चाहिए पहले से हिंसात्मक प्रवृत्ति के लोगों की पहचान करके उन्हें समझाना चाहिए। भीड़ में सभी लोग हिंसात्मक नहीं होते।
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