आखिर कौन हैं ये प्रधान पति, प्रधान पुत्र और प्रधान ससुर ?

पंचायती चुनाव में आरक्षण के बाद महिलाओं को ग्राम प्रधान बनने का मौका तो मिला लेकिन अभी भी प्रधानी की बागडोर उनके प्रधान पति, प्रधान पुत्र और प्रधान ससुर ही चला रहे हैं।

Neetu SinghNeetu Singh   13 Feb 2020 10:04 AM GMT

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लखनऊ। "मैं प्रधान प्रतिनिधि हूं मेरी मां प्रधान हैं। पंचायत में जितने भी विकास के काम होते हैं सब प्रधान जी की सहमति से होते हैं, मैं बस उसे पूरा करता हूं।" ये शब्द अनिल यादव (28 वर्ष) के हैं जिनकी मां जयदेवी (55 वर्ष) ग्राम प्रधान हैं।

लेकिन अगर आप अटारी ग्राम पंचायत जाएंगे तो यहां के पूर्व माध्यमिक विद्यालय की दीवार पर पंचायत में कराए गये कार्य, कार्य योजना वित्तीय वर्ष 2019-2020 में ग्राम प्रधान का नाम अनिल यादव लिखा है। ये पंचायत लखनऊ जिला मुख्यालय से लगभग 55 किलोमीटर दूर है।

आपके यहां जो महिला प्रधान हैं वह पंचायत का काम करती हैं, इस पर इस पंचायत के एक व्यक्ति रूप नरायण (55 वर्ष) बोले, "गांव में आप कहीं भी चले जाइये, अगर महिला प्रधान हैं तो वहां 75 फीसदी काम उसका पति, बेटा या ससुर ही करता है। जब अधिकारी इस बात का विरोध नहीं करते तो हम लोगों के करने से क्या होगा?"

गाँव कनेक्शन ने लखनऊ जिले के माल ब्लॉक की तीन ग्राम पंचायतों अटारी, केड़ौरा और शाहमऊ की पड़ताल की जहां महिला ग्राम प्रधान हैं। पड़ताल में यह सामने आया कि ये केवल नाम की ग्राम प्रधान हैं इनके काम प्रधान पुत्र, प्रधान पति और प्रधान ससुर ही करते हैं।

अटारी ग्राम पंचायत में महिला ग्राम प्रधान है जबकि यहां पर ग्राम प्रधान में उनके बेटे का नाम लिखा है.

"आरक्षण की वजह से नाम की बस महिला प्रधान होती हैं, काम से कोई लेना देना नहीं। ब्लॉक स्तर की मीटिंग में जरूरत पड़ने पर महिला को खानापूर्ति के लिए ले जाया जाता है। यह बात ब्लॉक स्तर के सभी अधिकारी जानते हैं पर इस पर कभी कोई कार्रवाई नहीं होती।" रूप नारायण की इन बातों में नाराजगी थी।

जब यही सवाल प्रधान प्रतिनिधि अनिल यादव से पूछा कि पंचायत के काम कौन करता है? इस पर वह बोले, "मेरी मां उम्रदराज हैं। महिला सीट थी इसलिए उन्हें खड़ा कर दिया। वह अकेले कैसे आ जा पाएंगी? उन्हें साथ में लेकर तो मुझे ही जाना पड़ेगा। पंचायत में 35 तरह के काम होते हैं जिसे एक महिला कैसे संभाल सकती है?" महिला प्रधान जयदेवी से मुलाक़ात नहीं हो पाई क्योंकि वह घर पर नहीं थीं।

देश की करीब 70 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है और पूरे देश में दो लाख 39 हजार ग्राम पंचायतें हैं। पंचायती चुनाव में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देश के 20 राज्यों में हैं जिसमें अभी उत्तर प्रदेश शामिल नहीं है। आरक्षण के बाद पंचायत में महिला प्रधानों की संख्या तो बढ़ी है लेकिन उनकी सहभागिता अभी बहुत कम है।

हाथ में प्रधान प्रतिनिधि का विजटिंग कार्ड लिए अनिल यादव.

"दक्षिण भारत, उत्तरांचल, उत्तर-पूरब में महिलाएं हर क्षेत्र को लीड कर रही हैं, फिर चाहें खेती की बागडोर हो या फिर पंचायत की। इस मामले में यूपी अभी काफी पीछे है। यूपी में अभी भी लगभग 80 फीसदी महिलाएं पंचायत में केवल मुखौटा बनकर रह गयी हैं।" देशभर में पंचायत पर काम कर रहे तीसरी सरकार के संस्थापक डॉ चंद्रशेखर प्राण बताते हैं, "अगर हम 25 सालों का इतिहास देखें तो पंचायत में महिलाओं की भूमिका में बदलाव बहुत तेजी से देखने को मिला है। 20 फीसदी महिलाएं भी अगर पंचायत की बागडोर खुद संभाले हैं तो यह एक बड़ा बदलाव है।"

प्रधान प्रतिनिधि अनिल यादव कहते हैं, "सांसद, विधायकों की मदद के लिए एक सहायक दिया जाता है। अगर इसी तरह एक सहायक ग्राम प्रधान को दिया जाए तो हमें क्यों मदद करनी पड़े? कई बार महिलाएं पढ़ी-लिखी नहीं होती इसलिए भी घर के पुरुषों को उनकी मदद करनी पड़ती है।" अनिल ने ये खुद से बताया कि वह दसवीं फेल हैं।

अनिल के अनुसार अटारी ग्राम पंचायत में एक साल में छह बैठक होती हैं जिसमें ग्राम प्रधान जयदेवी खुद हिस्सा लेती हैं, लेकिन इस बात से ग्रामीणों ने असहमति जताई। प्रधान के घर से कुछ दूरी पर छप्पर के नीचे कई महिलाएं और पुरुष खड़े थे जो इस बात से बहुत नाराज थे कि महिला ग्राम प्रधान चुनाव जीतने के बाद कभी उनसे मिली नहीं।

अटारी ग्राम पंचायत के लोगों में इस बात की नाराजगी है कि कभी खुली बैठक की उन्हें जानकारी नहीं मिली.

हमने वहां खड़ी एक महिला से पूछा कि आप कितनी बार बैठक में गयी हैं, इस पर वह बोलीं, "आज आपके मुंह से सुन रही हूं कि हमारी पंचायत में बैठक भी हुई है। हमारी जानकारी में चुनाव जीतने के बाद से कभी कोई बैठक नहीं हुई, अगर हुई होगी तो हमें सूचना नहीं मिली। मीटिंग क्या घर में बैठकर हो जाती है?" इस महिला की बातों का वहां खड़े लोगों ने हां में हां मिलाई।

अटारी ग्राम पंचायत से एक किलोमीटर दूर केड़ौरा ग्राम पंचायत है जहां की प्रधान महिला हैं जिनका नाम भी जयदेवी है। ग्राम प्रधान जयदेवी यादव (35 वर्ष) की केडौरा ग्राम पंचायत खुले से शौच मुक्त और बाल विवाह मुक्त है। इस पंचायत में घुसते ही सड़क से लगा हुआ एक बोर्ड लगा है। पीले रंग के इस बोर्ड में काले अक्षरों से लिखा है 'खुले में शौच मुक्त पंचायत'। कुछ दूर चलने एक दूसरा बोर्ड लगा है जिसमें 'बाल-विवाह मुक्त पंचायत' लिखा है।

जयदेवी से जब ये पूछा कि चार साल में आपने अपनी पंचायत में विकास के क्या-क्या काम किए? इस पर वह कहती हैं, "खड़ंजा, नाली सब कुछ बनवाया। आंगनबाड़ी केंद्र की मरम्मत भी करवाई। गांव शौच मुक्त है। आवास भी दिए हैं।"


सर पर पल्लू डाले घर के आंगन में खड़ी जयदेवी बताती हैं, "ब्लॉक में आने जाने का काम वही देखते हैं, अब अकेले हम कहां-कहां जाए? वे प्रधानी का काम ज्यादा देखते हैं हम थोड़ा कम।"

ग्राम प्रधानी का चुनाव लड़ना किसका निर्णय था? इस पर वह कहती हैं, "पुरुष सीट थी, मेरे पति चुनाव नहीं लड़ सकते क्योंकि वो सरकारी नौकरी करते हैं इसलिए हमें खड़ा कर दिया। हम 200 वोट से जीते थे।"

खुली बैठक कब-कब करती हैं? "महीने में एक बार आंगनबाड़ी में जाकर करती हूं। जो लोग समस्या बताते हैं अगर हमारे हाथ में होता है तो उसे पूरा करते हैं। एक साल से खाते से तो पैसा ही नहीं निकला। इस साल काम कराएंगे तभी तो जनता खुश होगी।" जयदेवी बताती हैं।

"पति को ज्यादा जानकारी है इसलिए वही काम ज्यादा देखते हैं। ब्लॉक उनके साथ ही जाती हूं। हम भी पहली बार चुनाव लड़े हैं इसलिए धीरे-धीरे सीख रहे हैं। पहले घर से निकलने में बहुत हिचक होती थी लेकिन अब उतनी नहीं होती।" उन्होंने आगे बताया


जयदेवी के दरवाजे एक चार पहिये की गाड़ी खड़ी थी जिसमें पीछे शीशे पर प्रधान लिखा था वहीं अनिल यादव जो प्रधान प्रतिनिधी हैं उनकी मोटरसाइकिल में भी प्रधान की नेमप्लेट लगी हुई थी। ग्रामीणों ने कहा गांव में गाड़ी की नेमप्लेट में प्रधान लिखवाना आम बात है।

इस ग्राम पंचायत में काम करने वाली एक गैर सरकारी संस्था वात्सल्य जिसके सहयोग से यह ग्राम पंचायत बाल-विवाह मुक्त हुई है। वात्सल्य संस्था के बाल केन्द्रित सामुदायिक विकास कार्यक्रम के परियोजना समन्यवक सौरभ सिंह बताते हैं, "पंचायत में युवाओं की एक टीम बना लेते हैं जो हमें गांव में होने वाले बाल-विवाह की सूचना देती रहती है। कई जगह ग्राम प्रधान इसमें रूचि दिखाते हैं कई जगह नहीं। यहां की महिला ग्राम प्रधान ने इस कार्यक्रम में ज्यादा रूचि नहीं दिखाई क्योंकि वो पर्दे में ज्यादा रहती हैं।"


"अगर ऐसे कार्यक्रमों में महिला ग्राम प्रधान का सहयोग मिले तो महिलाओं सम्बन्धी और कई मुद्दों पर बात हो सकती है। यहाँ हम 20 ग्राम पंचायत में काम करते हैं जिसमें पांच ग्राम पंचायत में महिला ग्राम प्रधान हैं पर पंचायत में इनकी भूमिका न के बराबर हैं।" सौरभ ने बताया, "महिला प्रधान कहने पर मीटिंग में तो आ जाती हैं पर सहभागिता न के बराबर रहती है। कुछ रीतिरिवाजों की वजह से बाहर नहीं निकलती तो कुछ पुरुषों के दबाब में।"

केड़ौरा ग्राम पंचायत से लगभग चार किलोमीटर दूर शाहमऊ नौबस्ता ग्राम पंचायत है यहां की ग्राम प्रधान भी महिला हैं लेकिन काम उनके ससुर और देवर करते हैं। प्रधान प्रतिनिधि ग्राम प्रधान विजय लक्ष्मी के ससुर मदारीलाल बताते हैं, "जिसकी जहां जरूरत पड़ती है वो वहां काम करता है। जहां महिला प्रधान का जाना जरूरी होता है वहां पर वह जाती हैं। महिला रात विरात कैसे अकेले आ जा सकती है। गांव में कुछ भी संभव है, कभी भी कहीं भी आना जाना पड़ सकता है, ऐसे में महिला प्रधान अकेले कैसे जायेगी।"

शाहमऊ गांव की रहने वाली एक महिला ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, "जीतने के बाद कभी महिला प्रधान ने बात नहीं की। वह मीटिंग में भी नहीं आतीं हैं। वैसे भी ज्यादातर लखनऊ में ही रहती हैं। उनके ससुर और देवर ही पूरा काम देखते हैं।" उन्होंने आगे बताया, "महिला प्रधान बहुत पढ़ी-लिखी हैं वो गांव में गरीबों की क्यों सुनेंगीं? हम लोगों को बड़ी उम्मीदें थीं कि पढ़ी-लिखी महिला गांव की प्रधान बनेंगी तो खूब विकास होगा पर ऐसा कुछ हुआ नहीं।"

सफेद कपड़ों में शाहमऊ ग्राम पंचायत के प्रधान प्रतिनिधि ग्राम प्रधान के ससुर हैं.

आरक्षण के बाद महिलाओं को नाम के लिए चुनाव में खड़ा तो कर दिया जाता है लेकिन काम करने का अधिकार अभी भी उनको नहीं मिला है।

"गांव में अलग तरह की राजनीति होती है। कुछ सामाजिक बेड़ियां हैं, रीतिरिवाज हैं जिसमें महिलाओं का पंचायत में खुलकर काम करना थोड़ा मुश्किल है। पर अगर पुरुष चाहें तो उन्हें काम करने में सहयोग करें न की खुद पूरी बागडोर संभालें। महिलाएं पुरुषों की तुलना में पंचायत का विकास बेहतर कर सकती हैं।" डॉ चंद्रशेखर प्राण ने बताया।


   

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