देश के 10 करोड़ 40 लाख आदिवासियों की सेहत की कौन लेगा ज़िम्मेदारी?

"बजट बढ़ाने मात्र से दस करोड़ से भी ज़्यादा जनसंख्या वाले आदिवासियों की सेहत नहीं सुधर जाएगी। हमें इनके प्रति सोच बदलनी पड़ेगी और समझना होगा कि ये भी समाज के लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि हम। रिमोट क्षेत्रों में नियुक्त सरकारी अधिकारियों को ये जिम्मा निभाना होगा।"

Jigyasa MishraJigyasa Mishra   22 Nov 2018 8:00 AM GMT

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देश के 10 करोड़ 40 लाख  आदिवासियों की सेहत की कौन लेगा ज़िम्मेदारी?

लखनऊ। "ये तो 10 साल का है लेकिन इसका वज़न इतना काम है कि सात-आठ साल से ज़्यादा का नहीं लगता, "26 वर्ष की आयु में दो बच्चों को जन्म दे चुकी गीता कोल अपने बड़े बेटे सचिन कोल के बारे में बताती हैं। "सचिन पढ़ने में अच्छा है और पास वाले सरकारी स्कूल भी जाता है लेकिन अक्सर तबियत ख़राब रहती है इसकी और यहाँ आसपास डॉक्टर भी नहीं है, "गीता आगे बताती हैं।

गीता कोल

मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के बॉर्डर से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर देवांगना घाटी के राजापुर गाँव में रहने वाला गीता कोल का आदिवासी परिवार, मजदूरी कर के जैसे-तैसे घर चलाता है। मानिकपुर जिले के देवांगना में करीब 150 कोल आदिवासी रहते हैं, जिन्हें साफ़ पानी और शौचालयों की दिक्कतों के वज़ह से आये दिन बीमारियों का सामना करना पड़ता है।

ट्राइबल हेल्थ इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार- देश के 705 अनुसूचित जाति के 10 करोड़ 40 लाख आदिवासियों में से सबसे भारी तादाद (1.5 करोड़) मध्य प्रदेश में रहती है, जिसके बाद महाराष्ट्र (1 करोड़), ओडिशा और राजस्थान 90-90 लाख आते हैं। देश भर की दो तिहाई आदिवासी जनजाति मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, गुजरात और राजस्थान में रहती है। हालांकि उत्तर पूर्वी राज्यों में आदिवासियों का घनत्व सबसे ज्यादा है क्यों की दूर क्षेत्रों में फैले होने की बजाय ये लोग इकट्ठे होकर रहते हैं।

गोविंद राम, खण्ड अधिकारी, रायपुर (छत्तीसगढ़) गाँव कनेक्शन को फ़ोन पर बताते हैं, "बजट बढ़ाने मात्र से दस करोड़ से भी ज़्यादा जनसंख्या वाले आदिवासियों की सेहत नहीं सुधर जाएगी। हमें इनके प्रति सोच बदलनी पड़ेगी और समझना होगा कि ये भी समाज के लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि हम। रिमोट क्षेत्रों में नियुक्त सरकारी अधिकारियों को ये जिम्मा निभाना होगा।"

हाल ही में आयी ट्राइबल हेल्थ इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 42 प्रतिशत आदिवासी बच्चों का वज़न उम्र के हिसाब से कम (अंडरवेट) है जो की गैर आदिवासी बच्चों से डेढ़ गुना ज़्यादा है।

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"रायपुर खंड के जिला गरियाबंद, महासमुंद और सवरा में रहने वाले गोंड़ और हलबा आदिवासियों के लिए, खासतौर पर बच्चों में बारिश के मौसम में दस्त, महामारी जैसी बीमारियां आम होती हैं जिस पर हम लगातार काम कर रहे हैं, " गोविंद आगे बताते हैं।

उत्तर प्रदेश की आदिवासी बच्ची (Photo by Jigyasa Mishra)


यूनियन बजट 2018-19 में जनजातीय कार्य मंत्रालय (मिनिस्ट्री ऑफ़ ट्राइबल अफेयर) को 6000 करोड़ की धनराशि आवंटित की गयी थी जो की 2017-18 की आवंटित धनराशि (670.68 करोड़) से 12% ज़्यादा है। जनजातीय कार्य मंत्रालय में जनजातीय मामलों की सचिव लीना नायर ने बजट 2018-19 के दौरान खुलासा किया था कि अनुसूचित जनजाति घटक (एसटीसी) में 5 नए मंत्रालय शामिल किए गए हैं और अब 37 केंद्रीय मंत्रालय और विभाग हैं जो एसटीसी फंड विशिष्ट हैं और 297 विभिन्न योजनाओं के माध्यम से देश भर के विभिन्न जनजातीय क्षेत्रों में विकास किया जायेगा।

रिपोर्ट के अनुसार 40.6% आदिवासीय जनजाति गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले हैं, जबकि सिर्फ़ 20.5% गैर आदिवासीय जनजाति गरीबी रेखा के नीचे हैं।

Photo by Deepak Acharya

आदिवासियों की अलग-अलग परेशानियां व ज़रूरतें

यूं तो हर समुदाय में कुछ ना कुछ परेशानियाँ होती हैं, लेकिन कई क्षेत्रों में पिछड़े होने की वजह से आदिवासी जनजाति के लोगों की समस्याएं और ज़रूरतें आम लोगों से अलग होती हैं। वैज्ञानिक शोध पत्रिका लैंसेट में प्रकाशित 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार आदिवासी जनजाति के लोगों का औसतन जीवन काल 63.9 वर्ष होता है जो कि गैर आदिवासी लोगों से तीन वर्ष कम होता है। आदिवासी जनजाति का औसतन जीवन काल 67 वर्ष होता है।

अगरतला (वेस्ट त्रिपुरा) में कार्यरत टीकाकरण अधिकारी, डॉक्टर प्रसन्नता भौमिक गाँव कनेक्शन को फ़ोन पर बताते हैं, "कई बार रिमोट एरिया में रहने वाले आदिवासी चिकित्सकों की अनुपलब्धि या अस्पतालों के दूर होने की वजह से सही इलाज न करा कर बीमारियों से बचने के लिए अपने उपचारों पर ही आश्रित रहते हैं जो अंत में बड़ी दिक्कत बन जाती है।"

प्राथमिक सुविधाओं की अनुपलब्धता

एक ओर हम हर दूसरे दिन अलग-अलग देशों के भोजन का स्वाद लेते हैं और अच्छी खासी रक़म पढाई या सेहत पर ख़र्च करते हैं, और दूसरी ओर देश की नौ प्रतिशत जनसंख्या के पास साफ़ पानी, पोषण युक्त भोजन, स्वास्थ्य सुविधायें या फिर शिक्षा जैसी प्राथमिक सुविधायें ही उपलब्ध नहीं हैं।

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Photo by Deepak Acharya

साफ़ पानी की कमी, खुले में शौच और बीमारियां-

यह स्वाभाविक है कि गंदा पानी और खुले में शौच बीमारियों को आमंत्रित करते हैं। और जंगलों, शहर की आबादी से दूर गुज़र-बसर करने वाले आदिवासियों के पास मात्र 10% पीने के साफ़ पानी (टैप वाटर) की उपलब्धता है और चार में से हर तीन आदिवासी (74.3%) खुले में शौच के लिए जाते हैं।

स्वास्थ्य सेवाएं; अपेक्षित नियुक्तियां व मौजूदा हालात

डॉक्टरों की अवधारणाएं- ट्राइबल हेल्थ इन इंडिया रिपोर्ट के अनुसार ज़्यादातर एमबीबीएस डॉक्टरों की नियुक्ति जब ग्रामीण क्षेत्रों में होती है तो वो उसे सज़ा के रूप में देखते हैं और ट्रान्सफर की कोशिश में लगे रहते हैं। सुदूर (रिमोट) इलाकों में प्राथमिक चिकित्सकों की लगातार अनुपस्थिति एक बड़ी चुनौती है।

वर्तमान नियमानुसार आदिवासी व पहाड़ी इलाकों में इतने स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए (टेबल देखें)-

3000 लोगों पर

एक स्वास्थ्य सब सेंटर

80 हज़ार लोगों पर

एक कम्युनिटी हेल्थ सेंटर

(ट्राइबल हेल्थ इन इंडिया) रिपोर्ट के तहत 18 राज्यों और 3 केंद्र शासित प्रदेशों में मौजूदा स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या में कमी पाई गयी।

Photo by Deepak Acharya

ट्रांसपोर्टेशन या आवाजाही की समस्याएं

त्रिपुरा के हपैआ पारा गाँव में रहने वाली आदिवासी जनजाति रिआंग की रोमिता रियांग बताती हैं, "महिलाओं में माहवारी को लेकर काफ़ी कम जानकारी है, जिसकी वजह से उन्हें डिलीवरी के समय भी काफ़ी दिक्कत होती है। गाँव की स्वास्थ्य केंद्र से दूरी के वजह से कई बार हमारे गाँव की महिलाओं ने अस्पताल जाते वक़्त, रास्ते में ही बच्चों को जन्म दिया है। संसाधनों की ऐसी कमी होती है कि यदि रात हो जाय तो बीच के दूसरे गाँव में रुक कर फ़िर सुबह गाड़ी पकड़नी होती है।"

रोमिता रियांग पेशे से वकील हैं और साथ ही त्रिपुरा के आदिवासी युवाओं पर शोध भी कर रही हैं।

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Photo by Jigyasa Mishra

स्वास्थ्य निरक्षरता

शहर के आबादी से दूर, जंगल में रहने वाले ज़्यादातर आदिवासी पत्ते और लकड़ी बीनने व बेचने का काम भी करते हैं, जो इनके लिए आमदनी का एकमात्र ज़रिया होती है। देश भर में मलेरिया से होने वाली मौतों में 50 फीसदी आदिवासी होते हैं क्यों की इन्हें स्वास्थ्य एवं स्वच्छता सम्बंधित विषयों में जागरूक नहीं किया जाता। आदिवासी स्वास्थ्य समस्याओं में दस सबसे बड़ी समस्याएं मलेरिया, बाल मृत्यु दर, कुपोषण, मातृ स्वास्थ्य, परिवार नियोजन, नशा, सिकल सेल एनीमिया आदि प्रमुख स्वास्थ्य समस्याएं हैं इसकी मुख्य वजह निरक्षरता को माना जाता है।

आदिवासियों के बेहतर स्वास्थ के लिए रिपोर्ट में प्रधानमंत्री जनजातीय स्वास्थ्य साथियों (प्राइम मिनिस्टर ट्राइबल हेल्थ फेलोज़) की नियुक्ति का सुझाव है, जिन्हें ख़ास प्रक्रिया से चयनित कर के पांच साल के अंतराल के लिए रखा जाये।

यह वीडियो देखें:

   

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