2020 तक साफ नहीं हो सकती गंगा: सीएसई

केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी भी मानते हैं कि गंगा को साफ करना थोड़ा कठिन है।

Ranvijay SinghRanvijay Singh   31 Oct 2018 12:27 PM GMT

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2020 तक साफ नहीं हो सकती गंगा: सीएसई

लखनऊ। 'गंगा सफाई के लिए भारी भरकम बजट के बाद भी 2020 तक गंगा साफ नहीं हो सकती।' सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने लखनऊ में 'गंगा की सफाई' विषय पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया। इस कार्यक्रम में आए विशेषज्ञों ने इस बात पर चर्चा की और तमाम तर्कों के साथ इस ओर इशारा किया कि 2019 ही नहीं 2020 तक भी गंगा साफ नहीं हो सकती।

2014 में बीजेपी की सरकार बनने के बाद से गंगा की सफाई को प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी महत्‍वपूर्ण योजनाओं में रखा। पहली बार गंगा की सफाई के लिए अलग से मंत्रालय बनाया गया और नमामि गंगे कार्यक्रम को मंजूरी देते हुए पांच वर्षों के लिए 20 हजार करोड़ का बजट भी दिया। गंगा को पुनर्जीवित करने के लिए ये अब तक का सबसे बड़ा बजट था। लेकिन सीएसई के कार्यक्रम में आए विशेषज्ञों का मानना है भारी भरकम बजट के बाद भी गंगा की सफाई में कई अड़चने हैं।

सीएसई के वॉटर एंड वेस्‍टवॉटर मैनेजमेंट के प्रोग्राम डायरेक्‍टर सुरेश रोहिला कहते हैं, ''2011 की जनगणना के मुताबिक भरत में 8 हजार शहर और कस्‍बे हैं। इनमें से 2 हजार शहर गंगा बेसिन से जुड़े हैं, जिसमें 97 ऐसे शहर हैं जो सीधे तौर पर गंगा से जुड़े हैं। गंगा को साफ करने के लिए इन 2 हजार शहरों की सफाई का ध्‍यान देना होगा। यहां के सीवेज ट्रीटमेंट पर ध्‍यान देना होगा।''

सीएसई ने लखनऊ में 'गंगा की सफाई' विषय पर एक कार्यक्रम का आयोजन किया।

सुरेश रोहिला कहते हैं, ''हम गंगा बेसिन को ये समझते हैं कि यहां बहुत पानी है। हम पानी की खपत को कम नहीं करना चाहते हैं तो हमारे सीवेज की मात्रा भी कम नहीं होगी। तकनीकी तौर पर गांव में प्रतिव्‍यक्‍ति 70 लीटर पानी की खपत होती है। जब कोई गांव शहर बनता है तो उसे सीवर नेटवर्क की वजह से प्रतिव्‍यक्‍ति 150 लीटर पानी दिया जाता है। ये ज्‍यादा पानी सिर्फ इस लिए दिया जाता है कि मल मूत्र एक जगह से दूसरी जगह आसानी से जा सकें। नहीं तो 70 लीटर पानी एक आदमी के लिए काफी है। 60 से 70 लीटर पानी सिर्फ सीवेज नेटवर्क के लिए दिया जाता है। बड़े शहरों में ये मात्रा दोगुनी हो जाती है। ऐसे में लोग ज्‍यादा पानी की खपत करते हैं और उसी हिसाब का सीवेज भी बनता है।''

''गंगा बेसिन में 90 प्रतिशत अनसेफ सीवेज (अपशिष्‍ट जल) को गिराया जाता है। छोटे शहरों में 95 प्रतिशत तक हो जाता है। ये चिंता का विषय है। ज्‍यादातर छोटे शहरों में मल मूत्र के प्रबंधन की व्‍यवस्‍था नहीं है। और जहां सीवेज ट्रीटमेंट प्‍लांट (एसटीपी) की व्‍यवस्‍था है वो भी सही से काम नहीं कर रहे। ये इस लिए भी है कि शहरों की जनसंख्‍या बढ़ गई और एसटीपी पुराने आंकलन के अनुसार ही काम कर रहे हैं। मतलब शहरों में एसटीपी के मुकाबले कहीं ज्‍यादा मल पैदा हो रहा है। ये भी एक वजह से जिससे गंगा की सफाई हो पाना मुश्‍किल है।'' -सुरेश रोहिला

डाउन टू अर्थ की खबर के मुताबिक, ''नमामी गंगे लक्ष्यों के मुताबिक, 2,000 मिलियन लीटर/दिन (एमएलडी) क्षमता के एसटीपी विकसित किए जाने हैं, जिसमें से केवल 328 एमएलडी क्षमता के एसटीपी ही विकसित हो पाए हैं। इस कार्यक्रम में पुराने और मौजूदा एसटीपी के पुनिर्विकास की भी परिकल्पना की गई है। पुनिर्विकास के माध्यम से 887 एमएलडी को नव निर्मित किया जाना था जिसमें से 92 एमएलडी किया गया। सरकार ने बार-बार कहा है कि नई परियोजनाओं में देरी हो रही है क्योंकि भूमि अधिग्रहण और अन्य संबंधित गतिविधियों में काफी समय लग रहा है।''

वाराणसी के संकटमोचन फाउंडेशन (एसएमएफ) के अध्यक्ष वीके मिश्रा कहते हैं, ''आपने (केंद्र सरकार) कहा गंगा जी को क्‍लास बी रिवर (नदी) के तौर पर देखा जाए। आप गंगा को पवित्र नदी, नेशनल रिवर कहते हैं और उसे क्‍लास बी रिवर भी कहते हैं। पैसा खर्चा करने से गंगा जी साफ नहीं होगी। अच्‍छे टेक्‍नोलॉजी से ट्रीटमेंट नहीं होगा तबतक ये साफ नहीं हो सकती। हर आदमी गंगा जी के साथ जो हो रहा है उससे पीड़ित है, लेकिन न जाने क्‍यों बोल नहीं रहा है।''

''आप गंगा को पवित्र नदी, नेशनल रिवर कहते हैं और उसे क्‍लास बी रिवर (नदी) भी कहते हैं। पैसा खर्चा करने से गंगा जी साफ नहीं होगी।'' - वीके मिश्रा

वीके मिश्रा आगे कहते हैं, ''गंगा की शुद्धता के लिए कुछ मानक तय किए गए हैं। जैसे बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) लेवल 3 मिलीग्राम प्रति लीटर, फीकल कोलीफार्म (मलजनित बैक्टीरिया) 500 एमपीएन प्रति 100 मिलीलीटर और डिजॉल्व ऑक्सीजन (डीओ) 5 मिलिग्राम प्रति लीटर होना चाहिए। 22 अक्‍टूबर को लिए गए आंकड़ों के मुताबिक, वरुणा कॉन्‍फ्युलेंस जहां गंगा वराणसी को छोड़ देती है, वहां फीकल कोलीफार्म 4 करोड़ से ज्‍यादा है, बीओडी लेवल 70 मिलीग्राम प्रति लीटर और डिजॉल्व ऑक्सीजन 2.6 है। गर्मियों में डिजॉल्व ऑक्सीजन जीरो भी हो जाता है। ये हालात हैं। क्‍या आप तय मानकों से इन्‍हें मिला सकते हैं।''

सुरेश रोहिला भी वीके मिश्रा की बात का समर्थन करते हुए कहते हैं, हमारे रिसर्च में सामने आया है कि गंगा बेसिन के पांच राज्य उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल पूर्ण ओडीएफ (खुले में शौच मुक्त) बन जाते हैं तो प्रति दिन लगभग 180 मिलियन लीटर मल कचरा उत्पन्न होगा। ऐसे में इस कचरे के प्रबंधन के लिए उचित कदम उठाने की जरूरत है, जो कि होता नहीं दिख रहा। यदि प्रबंधन नहीं होता है, तो यह सब गंगा में जाएगा।

रोहिला कहते हैं, ''चिंता की बात ये है कि मल कचरा, सीवेज से भी अधिक प्रदूषित होगा। जहां सीवेज का बीओडी 150-300 मिलीग्राम/लीटर है तो वहीं मल कचरा में यह प्रति लीटर 15,000-30,000 मिलीग्राम होगा।'' रोहिला कहते हैं, ''अभी हम अपनी सुविधा के अनुसार शौचायल बनाने में लगे हैं, लेकिन असल दिक्‍कत तो इनसे निकलने वाला कचरा है। इसे लेकर सोचने की जरूरत है।'' एक तरह से पीएम मोदी का स्‍वाच्‍छ भारत मिशन ही उनके दूसरे प्रोजेक्‍ट गंगा सफाई के आड़े आ रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, गंगा तट पर स्थित 99.93 प्रतिशत गांवों को ओडीएफ घोषित किया जा चुका है।

इस सवाल पर कि क्‍या नदी साफ ही नहीं हो सकती। वीके मिश्रा कहते हैं, ''गंगा के जल प्रवाह को समझ लिया जाए तो बहुत हद तक समस्‍या खत्‍म हो सकती है। अगर नदी में प्रवाह बना रहे तो नदी अपने कार्बनिक प्रदूषण को खुद ही दूर कर लेगी। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा।'' वीके मिश्रा इसी बात में आगे कहते हैं, ''अभी कुंभ में नदी को साफ करने का फ्लश तरीका आजमाया जाएगा। ऊपर से पानी छोड़ने पर नदी खुद में मौजूद कचरा बहा ले जाएगी और पूरे कुंभ में साफ रहेगी।'' वीके मिश्रा की बात का समर्थन करते हुए रोहिला कहते हैं, ''नदी खुद को नेचुरल तरीके से साफ कर सकती है, अगर सारे बैराज खोल दिए जाएं तो नदी साफ हो जाएगी।'' गौरतलब है कि गंगा बेसिन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 795 छोटे और बड़े बांध हैं, जो इसके प्रवाह को अवरुद्ध करते हैं।

विशेषज्ञों का ये भी मानना है कि गंगा सफाई से जुड़े विभागों में भी आपसी समन्‍वय नहीं है। इस वजह से भी गंगा साफ करना मुश्‍किल है। सुरेश रोहिला इस बात पर जोर देते हैं कि गंगा सफाई के लिए तकनीकी प्‍लान बनाया गया है, जो ग्राउंड के हिसाब से नहीं है। इस लिए भी विभागों के बीच आपसी समन्‍वय नहीं बन पाता। गंगा की सफाई के लिए एक बेहतर मैनेजमेंट प्‍लान की जरूरत है।

डाउन टू अर्थ से जुड़ी पत्रकार बनजोत कौर बताती हैं, 7 अक्टूबर, 2016 को जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय द्वारा जारी राजपत्र अधिसूचना कहती है, ''राष्ट्रीय गंगा परिषद हर साल कम से कम एक बार बैठक करेगी या जरूरत पड़ने पर उससे अधिक बार भी।" इसी अधिसूचना के अनुसार, राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए), जिसका नेतृत्व मौजूदा प्रधानमंत्री द्वारा किया जाता है, एनजीसी के अस्तित्व में आने के साथ भंग हो गई। इसलिए, एनजीसी को एनजीआरबीए की जिम्मेदारियों का निर्वहन करना है। पीएम मोदी की अध्यक्षता में एनजीआरबीए की एक बैठक 4 जुलाई 2016 को हुई थी। इसके बाद, एनजीसी का गठन हुआ था। उसके बाद से एनजीसी की एक भी बैठक नहीं हुई है।'' कुछ ऐसा ही हाल नमामि गंगे से जुड़े नौ मंत्रालयों का भी है, जिनमें आपस में बैठक की कोई जानकारी नहीं है।

बनजोत कौर बताती हैं, ''इतना ही नहीं नमामि गंगे के दायरे में आने के बाद भी 2011 की शुरुआत में स्वीकृत कई परियोजनाएं अपनी समयसीमा पर पूरी नहीं हो सकीं। संसदीय स्थायी समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक, परियोजना के समय पर पूरे न होने के कारण नमामि गंगे कार्यक्रम की लागत बढ़ जाएगी। कितनी बढ़ेगी, इसका अनुमान दिसंबर 2018 के बाद ही लगाया जा सकेगा।''

फिलाहल केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी भी मानते हैं कि गंगा को साफ करना थोड़ा कठिन है। हालांकि वो दावा करते हैं कि मार्च 2019 तक गंगा 70-80 फीसदी तक साफ हो जाएगी। बाकी काम 2020 तक पूरा हो जाएगा। इस दावे को भी कार्यक्रम में आए विशेषज्ञ खोखला बताते हैं। उनके मुताबिक सरकार के पास कोई रोडमैप नहीं है। इसलिए 2020 तक भी गंगा साफ नहीं हो सकती।

     

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