आखिर क्यों हैं भारत के आदिवासी कुपोषित

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आखिर क्यों हैं भारत के आदिवासी कुपोषित

प्रधानमंत्री ने मार्च 2018 में राष्ट्रीय पोषण मिशन की शुरूआत की थी। इसका मकसद था भारत में पोषण के स्तर में तेजी से सुधार लाना। इसके लिए 2022 तक बच्चों में अल्पपोषण, एनीमिया, जन्म के समय कम वजन, बढ़वार में रुकावट जैसी घटनाओं में कमी लाने के लिए सालाना लक्ष्य तय किए गए थे।

अल्पपोषण के इन प्रमुख संकेतकों में तब तक कमी नहीं लाई जा सकती जब तक पोषण की दृष्टि से सबसे ज्यादा वंचित समुदायों- अनुसूचित जनजातियों के पोषण स्तर में सुधार नहीं किया जाता। हाल ही में जारी नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 की रिपोर्ट ने उसी अनुमान को सही साबित किया है जिसके मुताबिक अनुसूचित जनजातियों में बहुत अधिक कुपोषण व्याप्त है। अगर सभी वर्गों के कुपोषण स्तर को जोड़ दिया जाए तब भी यह सबसे ज्यादा है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 5 वर्ष से कम आयु के 44 प्रतिशत आदिवासी बच्चों की बढ़वार रुकी हुई है मतलब उनकी उम्र के हिसाब से उनकी ऊंचाई कम है, 45 प्रतिशत बच्चे अपनी उम्र के अनुसार कम वजन के हैं और 27 प्रतिशत बच्चे कमजोर हैं मतलब उनकी ऊंचाई के हिसाब से उनका वजन कम है।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक, 45 प्रतिशत आदिवासी बच्चे कम वजन के हैं।

ओडिशा, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुत इलाकों में बच्चों की कुपोषण की वजह से हाल में हुई मौतों के बाद आदिवासी लोगों में भुखमरी और कुपोषण के उच्च स्तर पर काफी ध्यान दिया गया। इस तरह के मामलों में नीतिगत प्रतिक्रिया या तो ऐसी घटनाओं को नकारने की या फिर फौरी तौर पर कुछ मदद करने की होती है। लेकिन ऐसी समस्या के स्थाई समाधान के लिए लंबी अवधि की रणनीति खोजने पर काम नहीं होता। इसके अलावा, आम चर्चा में इस मुद्दे पर नीतिगत ढांचे में बदलाव लाकर इसके समाधान खोजने पर कोई बहस नहीं की जाती जिसकी ज्यादा आवश्यकता है।

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यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि कुपोषण के कई कारण हैं। इन्हें तात्कालिक (अपर्याप्त आहार और बीमारी), आधारभूत (परिवार में खाद्य असुरक्षा, गरीबी, स्वास्थ्य, साफ जल और साफ-सफाई जैसी सुविधाओं तक पहुंच की कमी) और प्राथमिक कारणों (सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक वातावरण) में बांटा जा सकता है। आदिवासियों के मामलों में दूसरे कारकों के अलावा भेदभाव, भौगोलिक अलगाव, सार्वजनिक सेवाओं तक सीमित पहुंच, सांस्कृतिक विभिन्नता जैसे कारण भी हैं। चूंकि आदिवासी आवश्यक सेवाओं के लिए सरकार पर बहुत अधिक निर्भर हैं इसलिए ऐसी पोषण संबंधी चुनौतियों का सामना करने में अतिरिक्त प्रयासों की आवश्यकता होगी।

पिछले दशक में, सरकार ने आदिवासी लोगों को सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण सेवाओं मुहैया कराने के लिए कुछ अहम प्रयास किए हैं। मसलन, आदिवासी बस्तियों में एकीकृत बाल विकास सेवा योजना के तहत आंगनवाड़ी या मिनी आंगनवाड़ी स्थापित करने के लिए जनसंख्या से जुड़ी शर्तों में रियायत देना, या नेशनल हेल्थ मिशन के तहत स्वास्थ्य केंद्र स्थापित करना। ऐसा करने की पीछे कारण यह है कि अधिकतर आदिवासी बस्तियां बिखरी और विरल होती हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ प्रदेशों ने आदिवासियों के लिए कुछ विशेष कार्यक्रम चलाए हैं, जैसे महाराष्ट्र की एपीजे अब्दुल कलाम अमृत आधार योजना, यह गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिला के पूर्ण आहार के लिए है, इसके अलावा बहुत अधिक कुपोषित बच्चों के लिए ग्रामीण बाल विकास केंद्र की स्थापना करना।

हालांकि, सरकार ने आदिवासी बच्चों को पोषण मुहैया कराने के लिए कुछ अहम प्रयास किए हैं।

लेकिन इन योजनाओं को लागू करने में बुनियादी ढांचे और मानव संसाधन की कमी की वजह से इनकी गुणवत्ता और आदिवासी इलाकों तक इनकी पहुंच प्रभावित होती है।

ग्रामीण स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2017 के मुताबिक, अखिल भारतीय स्तर पर आदिवासी इलाकों में उप केंद्रों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या अपनी निर्धारित संख्या से क्रमश: 21 प्रतिशत, 26 प्रतिशत और 23 प्रतिशत कम हैं। यह कमी आदिवासी बहुल राज्यों में और भी ज्यादा नजर आती है। उदाहरण के लिए, राजस्थान में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या 52 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 53 प्रतिशत, झारखंड में 58 प्रतिशत, तेलंगाना में 36 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 30 प्रतिशत कम है।

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आदिवासी इलाकों में इन सेवाओं को मुहैया कराने वाले लोगों की लगातार कमी बनी हुई है इससे यह मुद्दा और गंभीर हो गया है। उदाहरण के लिए, इसी सर्वे से पता चला है कि आदिवासी इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों के 28 प्रतिशत तक पद खाली हैं, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में देश भर में नर्सिंग स्टॉफ के 22 प्रतिशत पद खाली हैं। इतना ही नहीं इन स्वास्थ्य केंद्रों में से अधिकतर में लोगों की कमी, बुनियादी दवाओं और उपकरणों की कमी की वजह से कामकाज ठप है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 ने खुलासा किया है कि अनुसूचित जनजाति के 57 प्रतिशत सदस्यों ने स्वास्थ्य केंद्रों पर दवाएं न होने पर चिंता जताई और 42 प्रतिशत आदिवासी यह महसूस करते हैं कि स्वास्थ्य केंद्रों की दूरी से डॉक्टरी सलाह और इलाज कराने में दिक्कत आती है।

इस सिलसिले में यह समझना आवश्यक है कि बजटीय संसाधनों की उपलब्धता इन कमियों के सुधार में अहम भूमिका निभाती है। धन के सामान्य प्रवाह के अलावा सरकार ने अनुसूचित जन जाति के लिए लक्षित नीति संचालित बजट की व्यवस्था करने के लिए 1974 में जनजातीय उप योजना (टीएसपी) की शुरूआत की। इसके अनुसार संघ और राज्य सरकारों को कम से कम भारत की कुल आबादी (जनगणना 2011 के अनुसार 8.6%) या संबंधित राज्यों में अपने हिस्से के अनुपात में जनजातीय लोगों के लिए योजना निधि निर्धारित करना था। इसका मकसद आदिवासी इलाकों में किसी खास क्षेत्र के विकास के लिए अलग से वित्त व्यवस्था सुनिश्चित करना था।

लेकिन टीएसपी आवंटन हमेशा निर्धारित मानदंड से काफी नीचे ही रहा। उदाहरण के लिए 2014-15 से 2016-17 के बीच पोषण से संबंधित मंत्रालयों के लिए खर्च किए गए टीएसपी के अध्ययन से पता चलता है कि केंद्र सरकार ने अपने योजना बजट का केवल 4.4 प्रतिशत ही आवंटित किया था जबकि उसे यह 8.6 प्रतिशत करना था।

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2017-18 के केंद्रीय बजट में योजना और गैर योजना व्यय के मदों का विलय कर दिया गया है। टीएसपी पर सरकार की नीति क्या होगी अभी तक सरकार ने इस पर अपना रुख तय नहीं किया है।

एक नीति के रूप में टीएसपी का इस्तेमाल भोजन, पीने योग्य पानी, स्वच्छता सुविधाओं, क्वॉलिटी स्वास्थ्य सेवाओं और जनजातीय क्षेत्रों में दूसरी सुविधाओं तक आदिवासियों की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए किया जा सकता है। वर्षों से आदिवासियों में कुपोषण के प्रति लगातार चिंता बनी हुई है इसके बावजूद इस मुद्दे के हल करने और सरकारी प्रयासों को सुव्यवस्थित करने के लिए कोई निश्चित नीति नहीं बनाई जा सकी है।

इस संदर्भ में, सरकार को अधिक सक्रिय भूमिका निभाने और आदिवासी मामलों, महिलाओं और बाल विकास, कृषि, ग्रामीण विकास, पेयजल और स्वच्छता, और मानव संसाधन विकास (शिक्षा) जैसे मंत्रालयों में समन्वित कार्रवाई के लिए नीति तैयार करने की आवश्यकता है ताकि आदिवासी इलाकों में कुपोषण की समस्या से निबटा जा सके।

(सौम्या श्रीवास्तव का यह लेख India Development Review में प्रकाशित हो चुका है। सौम्या सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी (सीबीजीए) नाम के स्वयंसेवी संगठन से जुड़ी हुई हैं और सीबीजीए की ओर से देश भर में पोषण के लिए सार्वजनिक वित्त व्यवस्था पर शोध की अगुआई कर रही हैं।)

      

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