किसान आंदोलन में बिहार के किसान क्यों नहीं हैं? खुद किसानों की जुबानी समझिए

कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे आंदोलन में बिहार के किसान क्यों नहीं हैं? क्या बिहार के किसान इन कानूनों से खुश हैं? गांव कनेक्शन के कम्युनिटी जर्नलिस्ट अंकित सिंह ने किसानों से बात की और यह समझने की कोशिश कि आखिर वे किसान आंदोलन से दूर क्यों हैं?

Ankit Kumar SinghAnkit Kumar Singh   10 Dec 2020 2:15 PM GMT

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farmers protest, kisan andolan in delhi, agriculture bills, bihar farmers in kisan andolanकृषि कानूनों के खिलाफ देश की राजधानी नई दिल्ली में किसानों का विरोध प्रदर्शन पिछले 15 दिनों से चल रहा है। (सभी तस्वीरें- गांव कनेक्शन)

कैमूर (बिहार)। देश के कई राज्यों के किसान कृषि कानूनों के विरोध में इस समय दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे हैं। इस किसान आंदोलन में पंजाब और हरियाणा के किसान अग्रणी भूमिका में हैं तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान दूसरी ओर से मोर्चा थामे हुए हैं, लेकिन इस किसान आंदोलन में बिहार कहां है? जबकि कृषि कानून के विरोध में बिहार का जिक्र बार-बार हो रहा है। कहीं-कहीं हुए प्रतिकात्मक विरोध प्रदर्शनों को छोड़ दें तो बिहार में विरोध प्रदर्शन न के बराबार हुए हैं, लेकिन क्यों?

कृषि कानून के संदर्भ में बिहार का जिक्र क्यों हो रहा, यह जानना भी जरूरी है। दिल्ली में प्रदर्शन कर रहे किसानों को इस इस बात की भी चिंता है कि कृषि कानून से आने वाले दिनों में सरकार एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समिति) मंडियां खत्म हो जाएंगी, जबकि बिहार में यह लगभग 15 साल पहले ही खत्म किया जा चुका है।

वर्ष 2006 में जब बिहार सरकार ने एपीएमसी अधिनियम खत्म किया था, तब इसे कृषि क्षेत्र के लिए एक बड़ा सुधारवादी कदम बताया था, लेकिन राज्य में किसान उपज की सही कीमत जूझ रहे हैं। राज्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद न के बराबर है। देश की राजधानी में जुटे किसानों की सबसे बड़ी मांग एमएसपी को कानून बनाने की है।

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बिहार में इस साल धान की कीमत यही कुछ 900 से 1,200 रुपए क्विंटल के आसपास है जबकि धान की एमएसपी केंद्र सरकार ने ग्रेड ए के लिए 1,888 रुपए प्रति क्विंटल और अन्य धान के लिए 1868 रुपए प्रति क्विंटल तय किया है।

बिहार में हर साल लगभग 80 लाख टन धान की पैदावार होती है, लेकिन मुश्किल से 20 प्रतिशत की ही सरकारी खरीद हो पाती है। यही कारण है कि किसान यहां से पंजाब की मंडियों में धान की तस्करी भी करते रहे हैं। पिछले दिनों गांव कनेक्शन ने इस पर विस्तृत रिपोर्ट भी की थी। धान के अलावा बिहार में बड़े पैमाने पर पैदा होने वाले मक्के का भी यही हाल है।

मतलब खुश तो बिहार के किसान भी नहीं हैं, फिर भी यहां के किसान आंदोलन क्यों नहीं कर रहें? या वे ऐसे आंदोलनों से दूर क्यों रहते हैं?

यह समझने के लिए पहले हमने कुछ किसानों से बात की। बिहार की राजधानी पटना से लगभग 200 किमी दूर उत्तर प्रदेश के चंदौली वाराणसी से सटे जिला कैमूर के रामगढ़ विधानसभा क्षेत्र के ब्लॉक रामगढ़ के गांव देवहलिया में रहने वाले युवा किसान अंगद सिंह जिनके पास लगभग दो एकड़ खेत है, से जब हमने पूछा कि देश में किसान सरकार के नए कृषि कानून बिल को लेकर विरोध कर रहे हैं, लेकिन आप लोग शांत क्यों हैं?

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इसके जवाब में वे कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि हम इस बिल के समर्थन में हैं। हमारी भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है, लेकिन हम छोटे किसान हैं। कर ही क्या कर सकते हैं। हमारे यहां किसानों में एकता भी नहीं है। हर कोई तो किसी न किसी पार्टी से जुड़ा है, इस कारण भी विरोध नहीं कर पाता। हम लोगों के यहां अभी धान की कटाई चल रही है। उसके बाद गेहूं भी बोना हैं, जबकि पंजाब और हरियाणा में धान की कटाई के साथ गेहूं के खेती हो चुकी है। उनको अब अनाज बेचना है। हम लोग छोटे किसान हैं। हमारी आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत नहीं कि हम सब कुछ छोड़कर बिल का पूर्ण रूप से विरोध कर सकें।"

इसी ब्लॉक के गांव भडहेरिया के किसान दीपक शर्मा अपने खेतों से धान घर तो ले आये हैं लेकिन अच्छी कीमत को लेकर परेशान हैं। वे कहते हैं, "हम तो सही कीमत को लेकर परेशान हैं। घर पर इतनी जगह है नहीं है कि उसे बहुत दिनों तक रख सकें। इसके बाद गेहूं लगाना है तो उसके लिए पैसे भी चाहिए। जो पैसे मिलेंगे उससे बच्चों की फीस भी जमा करनी है। अब आप भी बताइये, हम आंदोलन में कैसे जाएं? थोड़ी खेती ही है, इसे छोड़कर कहां जाएंगे।"

एमएसपी पर सबसे ज्यादा धान की खरीद पंजाब में हो रही है।

दीपक हमें धान में लागत और कमाई का हिसाब-किताब भी बताते हैं। उनके अनुसार, "धान की फसल की बात करें तो धान का बीज हम 40 से 45 रुपए किलो में खरीदते हैं। उसके बाद खेत की जुताई और खेत मे फसल लगाने तक में लगभग 2,000 रुपए प्रति बीघा (0.625 एकड़) का खर्च आता है। खाद और पानी मे लगभग 1,000 रुपए। फसल को मशीन से कटवाने और खेत से घर तक पहुंचाने में लगभग 6,00 रुपए का खर्च आ जाता है। इन सबको जोड़ दिया जाये तो 3,600 रुपए प्रति बीघा का खर्च आता है। एक बीघा में धान लगभग 2 से 3 क्विंटल तक हो पाता है। अगर सरकारी रेट बिकता तो हमें भी कुल 4-5 हजार रुपए मिल सकते हैं, लेकिन हम तो खुले बाजार में बेचते हैं जहां हमें 900 से 1,200 रुपए प्रति कुंतल का हिसाब मिलता है।"

इस समय देशभर की मंडियों में धान की खरीद हो रही है। पत्र सूचना कार्यालय, भारत सरकार (पीआईबी) की रिपोर्ट के अनुसार देश 9 दिसंबर तक खरीफ विपणन सत्र 2020-21 के दौरान धान की खरीद 356.18 लाख मीट्रिक टन से अधिक हुई है और पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में 20.41 फीसदी अधिक है।

दिल्ली किसान आंदोलन में पंजाब और हरियाणा के किसान बड़ी संख्या में हैं।

रिपोर्ट के अनुसार इस सरकारी खरीद के एवज में 37.38 लाख किसानों को सरकार की वर्तमान एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) योजनाओं के तहत 67248.22 करोड़ रुपए का भुगतान पहले ही किया जा चुका है।

अब एक नजर डालते हैं 356.18 लाख मीट्रिक टन धान खरीदी में राज्यों की हिस्सेदारी कितनी है, यानी कि देश के किस राज्य में मंडियों में धान की खरीद कितनी हुई है।

पीआईबी की रिपोर्ट देखें तो 356.18 लाख मीट्रिक टन धान की कुल खरीद में से अकेले पंजाब की हिस्सेदारी 202.77 लाख मीट्रिक टन है, जो कि कुल खरीद का 56.93 प्रतिशत है। रिपोर्ट में यह तो बताया गया है कि पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, उत्तराखंड, तमिलनाडु, चंडीगढ़, जम्मू-कश्मीर, केरल, गुजरात, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार से धान की खरीद की जा रही है, लेकिन डेटा देखेंगे तो बिहार का नंबर कहीं दिखेगा ही नहीं। चार्ट देखें-


गाँव कनेक्शन ने धान उत्पादन के लिए देश के शीर्ष राज्यों में से एक बिहार के धान की खेती और खरीद के आंकड़ों का गहराई से अध्ययन किया। बिहार में कुल 79.46 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से लगभग 32 लाख हेक्टेयर (40 प्रतिशत से अधिक) में धान की खेती होती है। यहां 104.32 लाख किसानों के पास भूमि है। जिसमें 82.9 प्रतिशत भूमि जोत सीमांत किसानों की है, 9.6% छोटे किसानों के हैं और केवल 7.5 फीसदी किसानों के पास ही दो हेक्टेयर से ज्यादा की जमीन है।

राज्य में सालाना लगभग 80 लाख टन धान का उत्पादन होता है। कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) की वर्ष 2017-18 की रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल चावल उत्पादन में देश का सबसे बड़ा राज्य है। इसके बाद दूसरे नंबर पंजाब और तीसरे नंबर पर उत्तर प्रदेश है। आंध्र प्रदेश चौथे और बिहार पांचवे नंबर पर है। (चार्ट देखें)


बिहार में वर्ष 2019-20 में 20 लाख टन धान की खरीद की गई थी, जबकि लक्ष्य 30 लाख टन का था। इसी तरह, 2018-2019 में केवल 14.2 लाख टन धान की खरीद की गई थी। धान की बिक्री के लिए बिहार में किसानों को सहकारी विभाग के साथ ऑनलाइन पंजीकरण करना पड़ता है, लेकिन आंकड़ों से पता चलता है कि इस सरकारी एजेंसी के माध्यम से राज्य में काफी कम खरीदी हुई है।

वित्तीय वर्ष 2019-2020 में केवल 409,368 किसानों ने धान खरीद के लिए ऑनलाइन आवेदन प्रस्तुत किए। जिसमें से केवल 6,184 आवेदन, जो कुल आवेदनों का 1.5 प्रतिशत है, को स्वीकार किया गया। चालू वर्ष (2020-21) की खरीद के लिए केवल 21,879 किसानों ने अब तक ऑनलाइन आवेदन प्रस्तुत किए हैं, जिनमें से 30 अक्टूबर तक सिर्फ 631 आवेदन स्वीकार किए गए हैं।

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जिला बक्सर के हकीमपुर के रहने वाले किसान अनिल सिंह यह तो कहते हैं कि उनकी खरीद तो एमएसपी पर होती ही नहीं, वे तो उपज बिचौलियों को बेचते हैं और सही कीमत भी नहीं मिलती, लेकिन आंदोलन में शामिल होने के जवाब में कहते हैं, "देखिए समस्या तो है लेकिन हम लोग अभी आंदोलन में इसलिए नहीं जा पार हे हैं क्योंकि हमारे यहां धान की कटाई चल रही है। इसके बाद गेहूं बोना है। बहुत ज्यादा खेत तो है नहीं कि हमें बहुत ज्यादा फायदा हो जायेगा, लेकिन हमे दिल से किसानों के साथ हैं।"


जिला कैमूर के रामगढ़ विधानसभा क्षेत्र से राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के विधायक सुधाकर सिंह को लगता है कि दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन में बिहार के किसान इसलिए नहीं हैं क्योंकि हमारे यहां किसान यूनियन ही नहीं है। वे कहते हैं, "हमारे यहां के किसानों में एकता की कमी है। वजह यह है कि बिहार के किसान राजनीतिक पार्टी से जुड़े हुए हैं और वह अपनी समस्या खुद न कहकर राजनीति से जुड़े नेताओं पर छोड़ देते है। उनको यह लगता है कि हमारी समस्या राजनीतिक पार्टी हल कर देगी, जबकि पंजाब, हरियाणा और अन्य राज्यों में किसानों का राजनीतिक पार्टियों से लेना देना नहीं है।"

"बिहार में सहजानंद सरस्वती ने किसान संगठनों को मजबूत करने का काम पूरे देश स्तर पर किया गया था, उसमें बिहार भी आगे बढ़ रहा था, लेकिन अभी हालात बिहार के किसान संगठन मृत अवस्था में हैं। अनाज खरीद-बिक्री पर ऐसे नियम बनाने की जरूरत है कि हर फसल की खरीद एक निश्चित दर पर हो, लेकिन केंद्र सरकार खुद अनाज खरीदने के जिम्मेदारी से धीरे-धीरे पीछे हटना चाहती है।" वे आगे कहते हैं।

कृषि कानूनों के खिलाफ आठ दिसंबर को किसानों के भारत बंद के ऐलान में बिहार की कुछ राजनीति पार्टियों ने बंद का समर्थन जरूर किया था। कांग्रेस वहां किसान आंदोलन के समर्थन में अभियान भी चला रही है।


  

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