देश में फुटबॉल का गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में ही पहचान खो रहा यह खेल

पश्चिम बंगाल अपने फुटबॉल प्रेम के लिए हमेशा से जाना जाता रहा है। कभी वहां फुटबॉल मैचों के समय उत्सव सा माहौल रहता था, लेकिन अब धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता घट रही है, और इसके एक नहीं, कई कारण हैं।

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देश में फुटबॉल का गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में ही पहचान खो रहा यह खेलसिलीगुड़ी में फुटबॉल को लेकर संभावनाएं बहुत कम हो गई हैं। फोटो- नीरज छेत्री

सृष्टि लखोटिया

आसमान में टिमटिमाते तारों को देखना, उनके बारे में बातें करना और उनसे जुड़ी जानकारियां हासिल करना सबको अच्छा लगता है, लेकिन ज़मीं के छोटे-छोटे कस्बों, गाँव और शहरों के उन सितारों को हम नहीं जान पाते जिनकी अपनी चमक होती है। जो अपने हुनर के दम पर पूरी दुनिया में रोशनी फैलाने का हौसला रखते हैं। ऐसे सितारे जो अपनी रोशनी से देश को गौरान्वित कर सकते हैं। पर अफ़सोस कि ऐसे तारों को न हम देखना चाहते हैं और न जानना। इसके पीछे तर्क देते हैं कि कहते हैं ज़माना बदल रहा है, अब सिर्फ हुनर बोलता है। पर सच्चाई इससे कोसों दूर है। अगर यह सच होता तो लाखों प्रतिभाएं यों ही दफ़न न होतीं। अवसाद में आकर जिंदगी खत्म न करतीं।

विविधता प्रधान हमारे भारत में खेल भी विविधता से भरे हैं। खुशकिस्मती यह कि इनसे जुडे प्रतिभावान खिलाड़ियों की भी कमी नहीं है। फिर आखिर ऐसी क्या कमी है कि इनकी प्रतिभा, हुनर खुलकर सामने नहीं आ पाता। क्यों ये किसी गाँव, किसी शहर या किसी कस्बे के बंद दरवाज़े के अंदर ये बंद हो जाते हैं।

देश में लोग क्रिकेट, क्रिकेटर्स और उनकी तथाकथित जीवनशैली के बार खूब जानते हैं और जानना भी चाहते हैं। इसी तरह टेनिस के बारे में भी जानते हैं। पर हॉकी, खो-खो, कबड्डी और फुटबॉल जैसे खेलों के बारे में नहीं जान पाते। दरअसल, इन खेलों और खिलाडियों को क्रिकेट और उनके खिलाडियों के सामान न तो वरीयता मिलती है और न ही उनका कैरियर क्रिकेटरों की तरह शानदार होता है। हालाँकि पिछले कुछ सालों में पहल तो हुई है पर मंज़िल बहुत दूर है।

ऐसा ही कुछ बंगाल का भी किस्सा है। एक समय था जब बंगाल में फुटबॉल का खेल उत्सव की तरह था। मोहल्लों से लेकर बड़े-बड़े शहरों के मैदानों पर गोलपोस्ट के बीच थिरकते कदमों पर सामूहिक नृत्य से माहौल बनता था। पर चाय बागानों के बंद होने के बाद से इस खेल की लोकप्रियता भी फीकी पड़ने लगी।

दरसअल, चाय बागानों में खेले जाने वाले मैच जश्न की तरह होते थे। इसके बावजूद इस खेल और खिलाडियों को वह पहचान नहीं मिल पाई जिसके वे हक़दार थे। खेल दबता गया तो प्रतिभायें भी दबती गईं। गाँव कनेक्शन ने राज्य की शानो-शौकत माने जाने वाले इस खेल की स्थिति का विश्लेषण किया।

पश्चिम बंगाल के हासीमारा के चाय बागान क्षेत्र के निवासी फुलजेंस बारला अपने समय के मशहूर फुटबॉल खिलाडी थे। गाँव कनेक्शन से बातचीत में पुराने दिनों को याद ताजा करते हुए उनकी की आंखें चमक उठती हैं। समय के साथ तस्वीरें भले धुंधली हो गई हों लेकिन स्मृतियां आज भी ताजा हैं।

घर के बच्चों के साथ पूर्व फुटबॉलर फुलजेंस बारला। फोटो- नीरज छेत्री

एक तस्वीर दिखाते हुए 68 वर्षीय फुजलेंज कहते हैं, "तब हम रात के अँधेरे में ट्रक और ट्रैक्टर की लाइट की रोशनी में मैच खेलते थे। उत्साह होता था। दिनभर 60 रुपए दिहाड़ी कमाते और काम के बाद फुटबॉल खेलते। जूनून और जोश हमें थकने नहीं देते थे। केवल 14 वर्ष की उम्र से मैं टी-एस्टेट्स के द्वारा आयोजित मैचों में बतौर गोलकीपर खेलता था। मैच काफी रोमांचक होता था। दर्शकों का उत्साह हमारा मनोबल बढ़ाता था।"

"सफ़ेद पैंट और पोलो टी-शर्ट पहने रेफरी हाथ में चाय का प्याला पकड़े टॉस करता था। खेल के कोई आधिकारिक नियम नहीं थे। बागानों के औपनिवेशिक स्वामी हमें सदभावना कप देते थे। फुलजेंस ने ऐसे 100 मैच खेले। धीरे-धीरे फुटबॉल की लोकप्रियता तो बढ़ी पर मैं बस जिला स्तर तक सिमट कर रह गया। करियर के शिखर पर होने के बावजूद किसी राष्ट्रीय स्तर की संस्था ने खेलने का मौका नहीं दिया। ब्रिटिश मूल का यह खेल जिसे चाय बागान मालिक और प्रबंधकों ने बहुत सलीके से संभाला था, बाद में सट्टेबाजी का गढ़ बन गया। बस यही हमारी बदकिस्मती रही। इतना कहकर वह शांत हो गया। उसकी आँखों की चमक भी धूमिल पड़ गई।" वे आगे कहते हैं।

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फुलजेंस कहते हैं कि खचाखच दर्शकों और रोशनी से भरपूर टी एस्टेट्स के फुटबॉल मैच रोमांच और आकर्षण का केंद्र हुआ करते थे। खिलाडियों का उत्साह, उस पर चार चाँद लगा देता था। सब अच्छा ही तो चल रहा था। फिर जैसे किसी की बुरी नज़र लग गई।

धूपगुड़ी फुटबॉल क्लब के सेक्रेटरी अर्नब घोष ने कहा कि इसे हमारी बदकिस्मती ही कहा जा सकता है। वर्ष 2007 से 2015 तक जिला स्तर पर लीड प्लेयर के रूप में खेलने वाले घोष ने यह सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन हालात इस कदर बदल जाएंगे कि फुटबॉल खेलने के सारे दरवाज़े बंद हो जाएंगे।

घोष कहते, "एक तरफ़ चाय बागानों के मालिकों ने पैसा देने से हाथ खींच लिया और दूसरी तरफ़ मैदान सट्टेबाजी का गढ़ बन गया। कुछ खिलाड़ी दूसरी जगह पर चले गए तो कुछ नशे का शिकार हो गए। खेल जिला स्तर से आगे बढ़ ही नहीं पाया।"

मैच प्रैक्टिस की एक तस्वीर। फोटो- नीरज छेत्री

मोहन बागान अकादमी से ट्रेनिंग लेने वाले अर्नब 2009 में चोटिल होने के बाद घर वापस चले गए। उनका कहना है कि यह विडंबना ही है कि खेल और मैच का स्तर नीचे चला गया। पहले बिरपारा के नाम से जाने जाने वाले डलगाँव में 16 टी एस्टेट्स थे। 2009 के बाद इनमें से सात बंद हो गए। स्वामित्व बदलता रहा और बागान भी बंद होते गए।

साहिबों के बदलते ही बदल गया खेल

असम के जोरहाट टी-एस्टेट्स के कर्मचारी पप्पू किशन गाँव कनेक्शन को बताते हैं, "फुटबॉल मैचों की अपनी विशेषताएं थीं। यह इतना लोकप्रिय हो गया था कि आस-पास क गाँव वाले देखते आते थे। डलगांव में मैच हो रहा है तो बीरापारा के लोग भी देखने आते थे। इस दौरान लोग एक-दूसरे के आचरण, व्यवहार और रहन-सहन को समझने लगते थे। एक-दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होते थे। मैच उनके लिए मनोरंजन का जरिया बन गया था। या यों कहें कि जीवन का हिस्सा बन गया था।"

वे आगे बताते हैं, "दरअअसल, यह औपनिवेशिक विरासत की देन है। ऐसा भी कह सकते हैं कि औपनिवेशिक विरासत का जिक्र बिना फुटबॉल के अधूरा है। तब के चाय बागानों के मालिकों या प्रबंधकों को साहिब कहा जाता था। साहिब तरह तरह के खेल-कूद की सुविधाओं को जुटाने और उन्हें विकसित करने के प्रयास में लगे रहते थे। पर देश की आज़ादी के बाद साहिबों के बदलते ही सब कुछ बदल गया। इन नए साहिबों का उद्देश्य सिर्फ़ पैसा कमाना होता था।"

औपनिवेशिक शासन में ही क्रिकेट भी शुरू हुआ। धीरे-धीरे यह लोकप्रियता के पायदान चढ़ने लगा। चाय बागानों में भले क्रिकेट को जगह न मिली हो लेकिन यह धीरे-धीरे फुटबॉल आगे बढ़ता गया। पूरे पश्चिम बंगाल के साथ ही देश के बाकी हिस्सों में भी ऐसा ही हुआ। अर्नब घोष के अनुसार खेल वर्गों में बँट गया। हसीमारा के चाय बागान के मैदान में लम्बी सफ़ेद तिरछी टाइल्स वाली इमारत अब वीरान पड़ी है। गहरी भूरे रंग की लकड़ी पे साहिब बिलियर्ड्स खेलते थे, अब सड़ रहा है। साहिब गोल्फ खेलते और मजदूर फुटबॉल। मजदूरों के लिए फुटबॉल खेलना आसान था। नंगे पांव और एक फुटबॉल ही तो चाहिए होता था।

हासीमारा टी गार्डेन क्लब। फोटो- नीरज छेत्री

1990 आते-आते चाय उद्योग घाटे में जाने लगा और चाय बागान के मालिक क़र्ज़ तले दब गए। नए मालिकों का आना और फिर हर चार महीने उनके बदलने के सिलसिले ने बागानों के पूरे पारिस्थितिकी को ही हिला कर रख दिया। पूरी अर्थवयस्था इसलिए डगमगा गई क्योंकि यह चाय बागानों पर ही निर्भर थी। मजदूर पलायन करने लगे। तब बीरपारा में एक ही रीता एजेंसी होती थी, जिन्हें खेल से सम्बंधित सारे उपकरण के लिए बड़े आर्डर दिए जाते थे। अब यहां चार एजेंसी हैं, जो ऊँची कीमत पर फुटबॉल के उपकरण बेचते हैं, जिन्हे खरीदना आसान नहीं होता।

फुटबॉलर्स के लिए बहुत कुछ नहीं बदला

चाय बागानों में काम करने वालों की स्थिति में बहुत ज्यादा फर्क नहीं आया। वर्ष 2015 और 2020 के बीच हालात और अवसर में कोई बदलाव नहीं आया। अर्नब घोष ने गाँव कनेक्शन को बताया कि अवसर अभी भी सीमित हैं। चयनकर्ताओं की अनदेखी प्रतिभाओं को उभरने नहीं देती। पिछले वर्ष पश्चिम बंगाल की आईसीएल टीम खिलाडियों के चयन के लिए डलगांव आई थी।

अचरज़ हुआ कि एक भी खिलाडी नहीं चुना गया। घोष गुस्से में कहते हैं कि इसका मतलब क्या हमारे यहां खिलाड़यों में फुटबॉल खेलने की प्रतिभा नहीं है? ऐसा नहीं है। दरअसल, यह पूरी प्रक्रिया महज़ दिखावा है। जब अवसर ही नहीं मिलेगा तो हुनर कैसे दिखेगा। हालात ऐसे ही रहे तो जज़्बे भी एक दिन अपना दम तोड़ देंगे।

घोष कहते हैं कि कूच विहार और जलपईगुड़ी में फुटबॉल के लिए कुछ स्टेडियम हैं। इनके लिए खर्च पश्चिम बंगाल सरकार का खेल और युवा विभाग मुहैया कराता है। डलगांव और हसीमारा में भी चाय बागानों के कुछ मैदान खाली पड़े हैं। भारत में फुटबॉल की राजधानी माने जाने पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता में ही जब यह दम तोड़ रहा है तो छोटे शहरों में तो यह कफ़न ओढ़ चुका होगा। धन की कमी नहीं है। अगर धन की कमी होती तो क्या वह बाहर से खिलाडियों को लेते?

कमी है तो अच्छी सोच और अच्छी मानसिकता की। कोरोना महामारी के इस दौर में अच्छा बहुत कम सुनने को मिल रहा है। प्रतिभाओं को जब उनका मुकाम नहीं मिलता तो अवसाद में आकर गलत कदम उठाने को मजबूर होते हैं। ज़रूरत है सही बदलाव की। सही दिशा में कदम उठाने की, गर्दिश में गुम हुए इन तारों को उनकी सही पहचान दिलाने की। ताकि इन सितारों की टिमटिमाहट सारा जग देख सके।

अनुवाद- इंदु सिंह

  

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