‘घड़ी की सुइयां बनीं महिलाओं के चरित्र का पैमाना’

Shrinkhala PandeyShrinkhala Pandey   16 Dec 2017 9:27 PM GMT

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‘घड़ी की सुइयां बनीं महिलाओं के चरित्र का पैमाना’रात में सड़कों पर पुरुषों का आधिपत्य क्यों।

हमारे समाज में रात में लड़कियों का घर से बाहर निकलना बुरा माना जाता है। घड़ी की सुईयां महिला के चरित्र का पैमाना निर्धारित करती हैं और अगर महिला रोज रात को देर से आती है तो उसे कई तरह के उपनाम भी दिए जाते हैं।

16 दिसबंर 2012 की रात भी एक ऐसा हादसा हुआ था जिसने पूरे देश को झकझोर दिया और उसके बाद आरोपी ने अपने बयान में ये भी कहा था कि शरीफ घर की लड़कियां देर रात को घर से बाहर नहीं जाती हैं।

इस मानसिकता को बदलने के लिए लखनऊ की रेड बिग्रेड संस्था ने 16 से 29 दिसंबर तक 'रात का उजाला' कैंपेन की शुरूआत की जिसमें हम लोगों को ये बताएंगें कि जिस तरह हमारे लिए दिन है वैसी ही रात है, रात में बाहर जाने का अधिकार हमें भी है और इससे हमारे चरित्र का अंदाजा लगाना गलत होगा।

संस्था की अध्यक्ष ऊषा विश्वकर्मा बताती हैं, “ज्यादातर ऐसी घटनाएं रात के समय में ही होती है इसलिए हमारे रात में घर से निकलने पर पाबंदी लगा दी जाती है इसलिए कैंपेन में 40 से 45 लड़कियां शाम के बाद पब्लिक ट्रांसपोर्ट बस, कार, बाइक, मेट्रो, कैब, ऑटो, साईकिल से चलने वाले लोगों को बताएंगें कि इसमें रात में सफर करने का अधिकार हम महिलाओं को भी है।”

रात में सड़कें जितनी पुरूषों की हैं उतनी ही हमारी भी

इससे पहले 12 अगस्त को ‘मेरी रात मेरी सड़क’ हैशटैग से सोशल मीडिया पर चल रहे आंदोलन में बड़ी संख्या में दिल्ली एनसीआर समेत कई शहरों में महिलाएं व गैरकारी संस्थाएं रात को सड़कों पर निकलीं थीं। आज महिलाओं और लड़कियों के कामकाजी होने के कारण कई बार देर रात अकेले निकलना पड़ता है। ऐसे में हर वक्त उनके अंदर किसी अनहोनी का डर बना रहता है। इस दौरान उन्होंने महिला सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर चर्चा की और कुछ शहरों में नुक्कड़ नाटक भी करती है ताकि दूसरे लोगों को भी महिला सुरक्षा से जुड़े मुद्दे पर जागरूक किया जा सके।

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ऐसी मुहिम चलाने की जरूरत क्यों पड़ी इस बारे में दिल्ली की महिला पत्रकार अनुशक्ति सिंह बताती हैं, "लड़कियां रात से बाहर निकली ही क्यों" इस सवाल ने हमें मजबूर कर दिया कि हम यह बताएं कि सड़कें किसी ख़ास जेंडर की जागीर नहीं है। यह स्त्रियों की भी उतनी ही है, जितनी पुरुषों की क्यों उन लोगों को कब्ज़े में नहीं लिया जाता जो सड़कों को बदनाम करते हैं, उसकी जगह औरतों और लड़कियों को ताले में बंद कर दिया जाता है? नौकरी है करो, नाईट शिफ्ट है कैसे करोगी? ये सवाल हमने उठाए।

दिल्ली में भी हुई थी कैंपेन।

बलात्कार की सजा कठोर होनी चाहिए

महिलाओं के साथ हाेने वाली छेड़खानी व बलात्कार की घटनाओं पर लेखिका प्रियंका ओम बताती हैं, “अगर हमारे पिता, भाई या पति हमें राम में अेकेले जाने से रोकते हैं तो इसका मतलब यही है कि वो हमारी सुरक्षा को लेकर डरे हैं। इस तरह की कैंपेन का मतलब यही है कि रातों को भी अधिकार है कि वो मनचाहे कपड़े पहनकर पुरुषों की तरह रात में भी अकेले सड़कों पर निकल सकें।” वो आगे बताती हैं कि लेकिन अगर वो ऐसा करती हैं तो उनका रेप हो जाता है या छेड़खानी होनी जाती है। तो इसमें दोष किसका है महिला का या उनका जों इस तरह की मानसिक विकृति के शिकार हैं।

प्रियंका ओम आगे बताती हैं, “बलात्कार के मामलों में कहीं कमी नहीं आ रही हैं क्योंकि हमारे देश में इनके लिए कठोर सजा नहीं है। हमारे यहां नाबालिग को सुधरने का माैका दिया जाता है जबकि उसे भी सजा मिलनी चाहिए। क्योंकि उन्होंने नाबालिग जैसा काम नहीं किया है। ”

निर्भया कांड की पांचवीं बरसी: देश की राजधानी दिल्ली में बीते 16 दिसंबर 2012 को हुए निर्भया कांड पर लखनऊ में रेड बिग्रेड की लड़कियों ने इसे काले दिवस के रूप में याद कर निकाला मशाल जुलूस। देखें वीडियो...

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