गोरखपुर के टेराकोटा कलाकारों की हर मदद करेगी सरकार, उपलब्ध कराएगी ऑनलाइन बाजार

Manish MishraManish Mishra   16 July 2019 11:56 AM GMT

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औरंगाबाद (गोरखपुर)। विश्व में अपनी कला के लिए अलग पहचान रखने वाली गोरखपुर की मिट्टी की हस्तकला से दूर होती अगली पीढ़ी को जोड़ने के प्रयास शुरू हो गए हैं।

बेजोड़ हस्तकला और मिट्टी की कलाकृतियों के लिए मशहूर गोरखपुर के औरंगाबाद गांव के टेराकोटा (मिट्टी के खिलौने) कारीगरों ने भले ही देश-विदेश में नाम कमाया हो लेकिन आज संसाधनों के अभाव में मोह कम हो रहा है। वजह है मेहनत अधिक और मेहनताना कम।

"हमारी चौथी पीढ़ी इस पर काम कर रही है। अगर हमें नौकरी मिले तो मैं उसे करना चाहूंगा इसे नहीं," मिट्टी से सने हाथ से माथे पर टपकते पसीने को पोछते हुए 28 साल के राम मिलन ने बताया। राममिलन एक मिट्टी के घोड़े को आकार दे रहे थे।

इन टेराकोटा शिल्पकारों की देश-विदेश में पहचान बढ़ाने के साथ ही कुम्हारों की दिक्कतों को दूर करने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं। प्रदेश सरकार ने इसे 'वन डिस्ट्रिक्ट, वन प्रोडक्ट' के तहत गोरखपुर से शामिल भी किया है।

"ये जो मिट्टी के शिल्पकार हैं, काफी अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन इनकी दिक्कतें कैसे दूर हों, और इनका मुनाफा कैसे बढ़े हम इस पर गंभीरता से काम कर रहे हैं," कुम्हारों की समस्याओं को सुनने उनके गाँव औरंगाबाद पहुंचे खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड के प्रमुख सचिव नवनीत सहगल ने कहा।

कलाकृतियों को देखते प्रमुख सचिव नवनीत सहगल।

गोरखपुर जिले के जिन गाँवों में टेराकोटा की कलाकृतियां बनाई जाती हैं, उनके लोगों के बीच चौपाल में प्रमुख सचिव नवनीत सहगल से अपनी समस्याओं को अवगत कराते हुए लक्ष्मी स्वयं सहायता समूह के अध्यक्ष ने कहा, "कुम्हारों के आगे सबसे बड़ी दिक्कत है मिट्टी की। जिसे खरीदना पड़ता है। सिर्फ दो महीने (मई-जून) मिट्टी मिल पाती है। जिन तालाबों में यह मिट्टी है उन्हें कुम्हारों के नाम पट्टा कर दिया जाए।"

गोरखपुर की इस मिट्टी की हस्तकला की खासियत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी समेत कई नेता इन गांवों का दौरा कर चुके हैं। गांव के करीब 10 शिल्पकार राष्ट्रीय और राज्य पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं।

प्रदेश में पहली बार गठित माटी कला बोर्ड के अध्यक्ष धर्मवीर प्रजापति ने कुम्हारों से बात करते हुए कहा, "सरकार की कोशिश है कि बाजार आप तक पहुंचे और जो भी सुविधाएं दी जा रही हैं वो भी आप तक पहुंचे।"

अपने मिट्टी के कच्‍चे घड़ों को सुखाने के लिए रखते एक कुम्हार।

सन् 1962 में हाईस्कूल पास करने के बाद सुपरवाइजर की सरकारी नौकरी छोड़कर अपने पैतृक पेशे को अपनाने वाले औरंगाबाद निवासी विक्रम प्रजापति के बेटे खुद इस काम को नहीं करना चाहते।

"हमारे तीन बेटे हैदराबाद में पेंट-पालिश का ठेका लेकर पेट पाल रहे हैं, लेकिन यह काम नहीं करना चाहते, जबकि हमने इसी से अपना घर, खेती सब बनाया," बिजली के चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाते हुए विक्रम प्रसाद प्रजापति ने कहा, "देखिए यह मिट्टी का काम है, जितना करेंगे उतना ही लाभ होगा।"

लगातार कई समस्याओं और कम मुनाफे के चलते युवाओं के हो रहे इस कला से मोह भंग को रोकने और इसके प्रचार प्रसार के बारे में प्रमुख सचिव नवनीत सहगल ने कहा, "इन्हें काम में गुणवत्ता और बढ़ोत्तरी लाने के लिए जो भी चाहिए वो हम देने जा रहे हैं, बिजली से चलने वाली चाक, पग मशीन आदि देंगे। कोशिश है इन मिट्टी के कलाकारों को तकनीक के साथ जोड़ा जाए।"

मिट्टी की कलाकृतियां

"यही नहीं, प्रदेश के अन्य जिलों में ऐसे कलाकारों की गांवों में मदद करके सुधारने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि गांवों में ही रोजगार पैदा हो सके। हम ग्रामोद्योगों को बढ़ावा दे रहे हैं, जब गांवों में उद्योग लगाएंगे तो ज्यादा रोजगार पैदा होगा," प्रमुख सचिव नवनीत सहगल ने कहा।

"हमारे बाबा, दादा काम को करते आए हैं तो हम करते रहना चाहते हैं। लेकिन हम साल भर में दो-तीन महीने में पूरी कमाई हो पाती है। बाकी समय दिक्कत आती है। हमें साल भर अगर बाजार मिले तो दिक्कत नहीं होगी," चौपाल में आईं सरिता प्रजापति ने बताया, "व्यपारी जो माल लेने आते हैं बहुत झेला देते हैं, पेमेंट समय से नहीं करते।"


  

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